देश की धार्मिक व्यवस्था चाहे सुदृढ़ हो गई हो पर आर्थिक व्यवस्था चरमराने लगी है. यज्ञों और हवनों की सरकार की देन नोटबंदी, जीएसटी और कैशलैस सारे देश को फकीर बनाने में तुले हैं. कहने को चाहे हम अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हुए कहते रहें कि हम विश्वगुरु हैं, हम ढोल बजाते रहें कि हम दुनिया की सब से तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था हैं.

हम असल में दुनिया की सब से तेज गति से बढ़ने वाली धर्मव्यवस्था हैं. यहां मंदिर, मठ, आश्रम, तीर्थ, आरतियों, मूर्तियों की भरमार हो रही है. पूरा आम चुनाव धर्म पर लड़ा गया है. मोदी के हिंदुत्व का जवाब देने के लिए दूसरी पार्टियों को भी धर्म को मानने का नाटक करना पड़ा.

हम इतिहास से सीखने को तैयार नहीं हैं कि धर्म ने हमेशा लड़ाई सिखाई है. पौराणिक कहानियां देवताओं और दस्युओं की लड़ाइयों से भरी हैं. रामायण में भाइयों में लड़ाई का माहौल है जिस कारण राम को न केवल राजगद्दी नहीं मिली,

14 साल देश से बाहर जाना भी पड़ा. महाभारत में भी भाइयों की लड़ाइयां हैं. ग्रंथों में कहीं देश निर्माण की बात नहीं है, कहीं आम जनता के सुख की बात नहीं. सारा माहौल ऋषियों, मुनियों और राजाओं के झगड़ों का रहा है.

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भारत ने 1947 से पहले कम आर्थिक उन्नति नहीं की थी. उसी समय तो देशभर में रेलों का जाल बिछा, शहर विकसित हो गए थे. उन दिनों धर्मव्यवस्था कमजोर थी और ब्रिटिशों के राज के बावजूद लोग 1857 से पहले से ज्यादा खुश थे.

आज हमारी सारी जिंदगी पश्चिम एशिया के मुसलिम देशों की तरह धर्म के आदेशों के चारों ओर घूम रही है. उस संत ने यह कहा, उस साध्वी ने यह किया, उस ने जनेऊ पहना, उस ने आरती की, वहां मंदिर बना, वहां मूर्ति बनी, वहां तीर्थयात्रा होगी, वहां पाठ होगा, मीडिया इन्हीं बातों से भरा रहता है.

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