सुस्ती, डर और मंदी का माहौल अब कश्मीर के श्रीनगर या जम्मू में ही नहीं है, देशभर में फैलने लगा है. बढ़ती बेकारी, बाजारों का ठंडापन, सरकारी कामों में देर होना, सरकार के भुगतान रुकने आदि का नतीजा यह है कि जो उत्साह और उमंग एक वर्ग में कश्मीर के 370 व 35ए अनुच्छेदों को लगभग समाप्त करने से उत्पन्न हुई थी वह सप्ताहों में ही गायब हो गई है.
कश्मीर में जो किया गया उस का फायदा अगर मिलेगा तो वर्षों बाद मिलेगा. सोशल मीडिया पर जो वहां जमीनें खरीदने या वहां की गोरियों को लाने की बातें कर रहे थे, वे नहीं जानते थे कि कश्मीर तो एक जेल की तरह बन जाएगा जहां न कुछ बनेगा न जहां कोई जा पाएगा.
आज कश्मीर बुरी तरह आहत है. जो यह सोच रहे थे कि सरकार का यह कदम कश्मीर के लिए संवैधानिक जंजीर को तोड़ना होगा, गलत थे, क्योंकि ये 2 धाराएं कश्मीरियों के लिए एक वादे को निभाने के लिए थीं. उन के प्रावधानों को हटाने से कश्मीरियों को कोई लाभ होगा, यह समझना जरूरी था. अपने गरूर और संसद में बहुमत के आधार पर भारत सरकार ने तो वहां संचार साधन ही बंद कर दिए जिस से कश्मीर की जनता को न लाभहानि का पता है न सरकार की मंशा का. अगर कश्मीरियों को यह एहसास दिलाया जा सकता कि इन प्रावधानों के हटने से वे देश की उन्नति में बराबर के हिस्सेदार बन जाएंगे तो बात दूसरी थी. पर इन दिनों शेष देश खुद कराहने लगा है, वह कश्मीर या किसी और का क्या भला करेगा.
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एक सरकार केवल धर्मादेशों पर नहीं चल सकती. जिन पुराणों पर सरकार के शासकों की आज नजर रहती है उन में किसी भी प्रसंग को देख लें, वहां किसी न किसी तरह की निराशा ही टपकेगी. दशरथ को एक अंधे मांबाप के युवा बेटे को अकारण मार डालने के कारण जो बुराभला सुनना पड़ा वह एक शासक के लिए शर्म की बात है. अंधे मातापिता कहते हैं कि वे ऋषि हैं पर चूंकि वे जन्म से वैश्य व शूद्र हैं और उन की दशरथ द्वारा मारी गई संतान वर्णसंकर है, इसलिए राजा को ब्रह्महत्या का पाप तो नहीं लगेगा पर वे दशरथ को ऐसी ही मौत मिलने की कामना कर जाते हैं. इस तरह के ग्रंथों पर विश्वास करने के
दंभ में डूबी मौजूदा सरकार की सोच दूरदर्शी न हो, तो यह स्वाभाविक है. आर्थिक और राजनीतिक दोनों क्षेत्रों में लड़खड़ाती सरकार वोट तो अवश्य पाएगी पर देश का कोई खास भला कर पाएगी, इस में संदेह है.