वैचारिक स्वतंत्रता को मारने के लिए सैंसरशिप से ज्यादा कारगर पुलिस ऐक्शन होता है और आजकल जो भी लोकतंत्र, औरतों के हकों, अभिव्यक्ति की रक्षा की बात करता है, देश का मौजूदा प्रशासनिक सिस्टम उसे अर्बन नक्सल, देशद्रोही, नक्सली, विदेशी इशारों पर चलने वाला कहने लगता है.

यह कोई नर्ई बात नहीं है. पर धर्म में सब से ज्यादा डर विधर्मी से नहीं अपने धर्म के लोगों के आलोचकों से होता है. ईश निंदा को सदियों तक जघन्य अपराध माना जाता रहा है और कोई भी शख्स किन्हीं चर्च, पादरियों, मदिरों, महंतों, पंडों, मसजिदों, मुल्लाओं के बारे में कुछ भी कहता, उसे मारने की, मुंह बंद करने की धमकियां दी जाने लगतीं.

इस का कारण समझना कठिन नहीं है. धर्म एक बहुत बड़े झूठ के सहारे मकड़ी के जालों के समान बुना एक महल है जो लगता है कि मजबूत है पर अंदर से है खोखला. कोई भी आंधी उस की सारी मान्यताओं को नष्ट कर सकती है. पर आश्चर्य की बात है कि आज 5,000 साल बाद, विज्ञान, तर्क, तथ्य, अनुसंधान के युग में भी धर्म जीवित ही नहीं, इस का धंधा फलफूल भी रहा है.

इस का बड़ा कारण यह है कि मकड़ी के जालों से बुने महल ने बहुत से ऐसे परजीवियों को पालने लायक जगह दे रखी है जो कभी भी धर्म की सुरक्षा की खातिर सामने वाले का अस्तित्व नष्ट कर सकते हैं चाहे वह अपने धर्म का हो या दूसरे का. ‘अडरस्टैंडिंग फासिज्म इन प्रेजैंट इंडियन कौंटैक्स्ट’ शीर्षक से एक सैमिनार दिल्ली के हरिकृष्ण सिंह सुरजीत भवन में होना था. पुलिस ने 2 दिनों पहले उस की इजाजत कैंसिल कर दी.

हाईकोर्ट ने इजाजत तो दे दी पर कहा कि जो भी अटैंड करें उन के नाम व पते नोट किए जाएं और पुलिस के हवाले किया जाए.फासिज्म पर चर्चा किसी भी तरह से लोकतंत्र के खिलाफ नहीं हो सकती. रोक तो यहसिद्ध करती है कि नरेंद्र मोदी की सरकार फासिस्ट है और उस की पुलिस को डर है किइस चर्चा में लोग फासिस्ट सरकार की पोल न खोल दें. मुट्ठीभर लोगों के लायक बना यह मीटिंग हौल भरता भी या नहीं, पता नहीं क्योंकि आज के युग में अंधविश्वासों का बोलबाला इस कदर हो गया है कि तार्किक और अंधविश्वासी एक से हो गए हैं.

फासिज्म के बारे में बात करने वाले देश में मुट्ठीभर बचे हैं पर सरकार, पुलिस उन से डरती है, क्योंकि वे तो तथ्यों और तर्कों पर आधारित बातें करते हैं जबकि सरकार झूठी कहानियों, काल्पनिक इतिहास, पूरे न हो सकने वाले वादों, लच्छेदार वक्तव्यों, तथ्यहीन दावों पर टिकी है.

सरकार कितनी भयभीत है, इस का इस से पता चलता है कि एक छोटी सी जगह में होने वाले कार्यक्रम पर बीसियों पुलिसमेन लग जाएंगे जो हरेक के परिचयपत्र की जांच करेंगे, फोटो खींचेगे और बोलने वालों को संभावित अपराधियों में मान लेंगे. यानी, आज़ाद देश में बोलने की आज़ादी नहीं.

वैचारिक स्वतंत्रता का अंत का मतलब फिर से गुलामी. पहले मुगल शासन में भी शायद यही था और फिर बिटिश काल में. अब हम वापस जा रहे हैं, आगे नहीं. यह न भूलें कि जो गंभीर जंजीरें बन रही हैं, वे हर हाथ को जकड़ रही हैं, शासक दल के लोगों के भी. जंजीरों की आदत होती है कि कुछ देर बाद इस कदर उलझा जाती हैं कि उन्हें बांधने वाला भी उन में फंस जाता है और निकलने का रास्ता नहीं मिलता.

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