संविधान निर्माताओं ने चुनाव आयोग के आयुक्तों के बारे में प्रावधान करते समय सरकार को एक अवसर दिया था कि वह अपनी मरजी का कानून बनवा ले और उस के अंतर्गत चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करे. सरकारों ने, चाहे कांग्रेस की हो या भारतीय जनता पार्टी की, इस बारे में कुछ नहीं किया क्योंकि वे चुनाव आयुक्त को किसी तरह का कानूनी अधिकार देना नहीं चाहती थीं. सरकार यानी प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति पिछले 70 सालों से चुनाव आयुक्त नियुक्त करते आए हैं.
अब सुप्रीम कोर्ट ने इस खाली जगह को भरने के लिए एक बहुत अहम फैसला दिया है कि चुनाव चूंकि लोकतंत्र की रीढ़ की हड्डी हैं, उन की देखरेख में लगे व्यक्ति का चयन ढंग से हो. अब प्रधानमंत्री से पूर्व हक छीन कर 2 जनों, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और विपक्षी दल के नेता के बीच बांट दिया गया है.
सरकारें पिछले 40-50 सालों से चुनाव आयुक्त के बारे में कानून नहीं बना रही थीं क्योंकि फिर चुनाव आयुक्त का सारा काम उस कानून के अंतर्गत होता और सरकार की दखलंदाजी कम हो जाती. वह कानून संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकारों, स्वतंत्र चुनाव प्रक्रिया के अनुसार ही हो, यह जरूरी भी हो जाता. अब तक की निरंकुश नियुक्तियों को दरकिनार कर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को एक नई सृदुढ़ छवि दी है कि वह स्वतंत्र होगा क्योंकि अब चुनाव आयुक्त प्रधानमंत्री का तोता नहीं होगा, प्रधानमंत्री के रहमोकरम पर नहीं होगा. उस के चयन में देश के मुख्य न्यायाधीश व मुख्य विपक्षी दल के नेता का भी हाथ होगा.
हमारा संविधान ऐसा है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला तब तक कानून रहता है जब तक सुप्रीम कोर्ड उसे खुद न पलटे या संसद के दोनों सदनों में कानून बना कर उसे निरस्त न किया जाए. यह मामला ऐसा है जिस में न तो दोबारा सुप्रीम कोर्ट में जाने की गुंजाइश है, न सरकार के पास नया कानून बनाने की. नए कानून के प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट कभी भी मूल संवैधानिक ढांचे के विरुद्ध मान कर अंसवैधानिक करार दे सकती है.
चुनाव अब पूरी तरह निष्पक्ष हो सकेंगे, यह कोई गारंटी नहीं है. चुनावों के बारे में मुखालफत का मुख्य कारण है कि जनता का एक वाचाल वर्ग शासन के नहीं, धर्म के मुद्दों को चुनावों में ले आया है. सरकार का गठन देश की रक्षा, आंतरिक सुरक्षा, रोजमर्रा के प्रबंध, जीवन को सहजसरल बनाने के लिए होता है पर अब तो सरकारें मंदिर बना रही हैं, घाट बना रही हैं, मूर्तियां लगा रही हैं, पूजापाठ सिखा रही हैं. जनता तो सिर्फ टैक्स देने के लिए बची है और मूर्ख जनता मंदिर, मूर्ति के चक्कर में अपनी आजादी न्योछावर कर रही है, जेब खाली भी कर रही है.