देशभर में बिल्डर लौबी बुरी तरह बदनाम है. आम आदमी बिल्डरों पर खलनायक, लुटेरा, सूदखोर, चोर, मुनाफाखोर और न जाने क्याक्या आरोप लगा कर उन्हें बदनाम करता है. गनीमत है कि इतनी बदनामी सहने के बावजूद इस उद्योग में आने वाले बिल्डरों की अभी तक कमी नहीं है और लोग हजारों की नहीं, लाखों की संख्या में देश के हर शहर, कसबे में बिल्डरों के बनाए मकानों में रह रहे हैं या व्यवसाय कर रहे हैं.

यह ऐसा व्यवसाय है जिस के बिना रहा भी न जाए और साथ निभाया भी न जाए. सरकार ने बिल्डरों के खिलाफ बने माहौल का बड़ा लाभ उठाया है और उन पर नए कानून थोपे हैं जो इस धंधे को शायद नष्ट ही कर डालेंगे. नए कानून के लागू होने से पहले ही सैकड़ों प्रोजैक्ट खटाई में पड़ चुके हैं और दिल्ली के कई नामी बिल्डर जेल में हैं या उन्हें भेजे जाने की तैयारी है.

अदालतें ग्राहकों की समस्या का उपाय केवल जुर्माना या जेल समझ रही हैं जबकि ग्राहकों को दोषियों को सजा से नहीं, मकानों के मिलने से संतुष्टि मिलेगी. जुर्माना भरने या जेल में जाने से मकान तो उग नहीं आएंगे पर आम प्रशासकों की तरह अदालतें भी समझती हैं कि सख्ती से हर जीव को नियंत्रित किया जा सकता है. अदालतें यह भूल जाती हैं कि जेल में बंद बिल्डर मकान के प्रोजैक्ट को आगे बढ़ा ही नहीं सकता.

इस उद्योग में मोटा पैसा बना या पैसा लेने के बाद देरी हुईर् तो आमतौर पर कारण सरकारी अड़ंगेबाजी है. सरकारों ने, जिन में बीसियों एजेंसियां होती हैं, बिल्डरों को सोने के अंडे देने वाली मुरगियां तो समझ रखा है पर उन को दानापानी देने का कोई इंतजाम नहीं कर रखा है. बिल्डर अनुमतियों के चक्कर में फंसे रहते हैं. हर अफसर ऐसे नए नियम बनाता रहता है जो कानून में होते ही नहीं हैं. अफसर की कलम का गलत लिखा सिर्फ अदालत हटा सकती है और अदालतें छोटेछोटे मामलों पर फैसला देने के लिए वर्षों का समय लेती हैं. अगर इन वर्षों के कारण ग्राहकों को मकान न मिल पाएं तो भी दोष न अफसर का होता है, न नियमों का, न कानून बनाने वालों का और न ही अदालतों का. दोष बिल्डरों का ही माना जाता है.

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