उस दिन कई दिनों बाद थोड़ी गुनगुनी धूप निकली हुई थी. सर्दी के मौसम में गुनगुनी धूप और वह भी शनिवार को जब आस्ट्रेलिया में सभी व्यापारिक संस्थान बंद होते हैं, सोने पर सुहागा वाली बात थी.
मैं अवकाश का आनंद लेने किलडा बीच पर चला आया था. काफी देर तक वहां प्राकृतिक दृश्यों का लुत्फ लेता रहा. कुछ ऐसे नजारे भी देखे जो विदेशों में ही देखे जा सकते थे. उस के बाद मैं लूणा पार्क चला आया था. दोपहर के बाद फलिंडर स्ट्रीट स्टेशन के निकट भारतीय रैस्टोरैंट फलोरा में खाना खाने के पश्चात सराइन आप रिमैंबरेंस चला गया और वहां काफी देर बैठा रहा.
जब घर लौटा तो आंसरिंग मशीन और मेरे मोबाइल पर भी एक मित्र के कई संदेश आए हुए थे.
मैं ने तुरंत उस का नंबर डायल किया. उस ने फोन उठाते ही गुस्से से कहा, ‘‘कहां गायब हो गया था सुबह से? मैं तो फोन करकर के थक गया. तुम तो मोबाइल भी नहीं उठा रहे थे.’’
‘‘सौरी यार,’’ मैं ने कहा, ‘‘मैं मोबाइल घर पर ही भूल गया था.’’ उस से मैं ने कह तो दिया लेकिन वास्तव में मैं स्वयं ही जानबूझ कर मोबाइल घर छोड़ गया था. वास्तव में मैं शांति से दिन गुजारना चाहता था.
मेरे यह पूछने पर कि कैसे याद किया, उस ने अत्यंत प्रसन्नता से बताया, ‘‘ओह यार, आजकल इंडिया से अपने गुरु महाराज आस्ट्रेलिया आए हुए हैं. कल वे हमारे घर पर प्रवचन करेंगे. तुम अवश्य आना.’’
‘‘यार, मुझ से कहां आया जाएगा?’’
‘‘क्यों, तुम्हारे क्या पैर भारी हैं?’’
‘‘तुम जानते तो हो, मेरी धार्मिक कार्यों में…’’
‘‘दिलचस्पी नहीं,’’ उस ने मेरी बात काटते हुए कहा, ‘‘वाइन की तो पूरी बोतल डकार जाता है मगर धार्मिक कार्यों के नाम पर तुम्हारे पेट में मरोड़ उठने लगती है.’’ उस ने अपनत्व की भावना से आगे कहा, ‘‘ज्यादा इधरउधर की मत हांक… और हां, आते हुए बेबी तथा उस के बच्चों को भी साथ ले आना. जीजाजी तो सिडनी गए हुए हैं.’’
लो, एक और मुसीबत गले पड़ गई. मेरे घर से मैलटन, जहां उस की बहन बेबी रहती है, कम से कम 45 किलोमीटर दूर होगा. पहले तो शायद न जाता, मगर अब तो उस की बहन और बच्चों को भी साथ ले कर जाना पड़ेगा. फोन पर मेरी ओर से कोई जवाब न मिलने पर वह बोला, ‘‘क्या हुआ, मेरी आवाज सुनाई नहीं दे रही है?’’
‘‘अरे, सुन रहा हूं भई, निश्ंिचत रह, मैं बेबी तथा बच्चों को साथ ले आऊंगा.’’
‘‘यार, तुम से एक और रिक्वैस्ट है,’’ उस की आवाज अत्यंत हलीमीभरी थी, ‘‘गुरु महाराज को 100 डौलर से कम दक्षिणा मत देना.’’
‘‘अरे, यह भी कोई कहने वाली बात है,’’ मैं ने तुरंत कह तो दिया, लेकिन मन ही मन यह अवश्य सोचा था कि यहां डौलर छापने की मशीन तो नहीं लगी हुई है. इसे क्या मालूम कि ट्रेन के किराए
के 5-6 डौलर बचाने के लिए मैं 5 किलोमीटर की दूरी पर अपने इंस्टिट्यूट तक प्रतिदिन पैदल आताजाता हूं.
खैर, मैं उस के घर चला गया, वहां उस के कई रिश्तेदार तथा परिचित आए हुए थे.
मैं ने धीरे से 50 डौलर महाराज के सिंहासन के सामने पड़ी थाली में डाल कर माथा टेक दिया, लेकिन अगले ही पल हिसाब भी लगा लिया कि भारतीय करैंसी में कितने रुपए बन गए तथा मन ही मन अपनेआप को कोसते हुए तथा मित्र को भी एक भद्दी सी गाली निकालते हुए कहा, ‘ससुरे ने अढ़ाईतीन हजार रुपए का नुकसान करवा दिया.’
गुरु महाराज प्रवचन देने लगे. उन का एकएक बोल मनमंदिर के किवाड़ खोल रहा था. चांदी जैसे उज्ज्वल वस्त्रों से सुशोभित वे किसी देवर्षि की तरह लग रहे थे. सचमुच ही ऊपर वाले ने इन महापुरुषों को कोई विशेष गुण दिया होता है. मगर गुरु महाराज की ओर देखते हुए यों प्रतीत हो रहा था मानो वे मेरे परिचित हों, लेकिन यह मेरे मन का वहम हो सकता था, क्योंकि मैं तो इंडिया में रहते हुए भी कभी किसी धार्मिक सम्मेलन में नहीं गया था.
महाराज को चढ़ावा भी काफी चढ़ गया था. घर वालों ने भी सोने की मोटी चेन, हाथ का कड़ा तथा डौलरों से भरा लिफाफा उन के चरणों में रख दिया था. तदोपरांत लंगर छक कर संगत चली गई थी.
महाराजजी से परिचय करवाने के लिए मेरा मित्र मुझे उन के निकट ले गया. मगर उस की बात पूरी होने से पहले ही महाराज बोल पड़े थे, ‘‘मैं जानता हूं इन्हें, डा. शुक्ला हैं. समाचारपत्रों में अकसर मैं इन के बारे में पढ़ता रहता हूं.’’ और उन्होंने मुझ से पूछा, ‘‘तू ने पहचाना नहीं मुझे? मैं रमेश हूं, मेछी?’’ और उन्होंने मुसकराते हुए मेरे मित्र से परदाफाश कर दिया, ‘‘यह तो मेरे साथ ही गांव के स्कूल में पढ़ा करता था.’’
पलभर में ही चलचित्र की रील की तरह सबकुछ मेरी आंखों के सामने घूमने लगा था. तभी तो महाराज का चेहरा मुझे इतना जानापहचाना लग रहा था.
हम दोनों गांव के राजकीय स्कूल में एकसाथ पढ़ते थे. वह पढ़ाई में नालायक विद्यार्थियों जैसा था, लेकिन बातचीत में इस कदर शातिर था कि आसमान को भी पैबंद लगा देता था. वह इस प्रकार की दलीलें देता कि झूठ भी सच साबित हो जाता था. हमारे अध्यापक अकसर उस से कहा करते थे कि तू इतना चालाक है कि बड़ा हो कर लीडर बनेगा. स्कूल में पढ़ते समय ही वह देसी शराब और सिगरेट भी पीता था.
मुझे अभी तक याद है कि कैसे उस ने एक बार मुझे पीटा था और मुख्य अध्यापक से भी मेरी पिटाई करवाई थी. स्कूल के निकट ही साइकिल पर तिनके वाली कुल्फी बेचने वाला आया करता था. एक टके (2 पैसे) की एक कुल्फी. मेछी (रमेश) ने मुझ से कुल्फी ले कर देने को कहा था. मैं ने मना कर दिया तो उस ने मुझे 3-4 थप्पड़ रसीद कर दिए. मैं ने उसी समय मुख्य अध्यापक से उस की शिकायत कर दी. उन्होंने झटपट उसे बुला लिया. लेकिन मेछी ने सरासर झूठ बोलते हुए पासा ही पलट दिया, ‘सर, यह बिना किसी बात के मुझे गालियां दे रहा था. मुझे क्रोध आ गया और तब मैं ने इस के 2-4 चांटे लगा दिए.’’ मुख्य अध्यापक ने उस की बात पर विश्वास करते हुए 2-3 थप्पड़ मारते हुए मुझे डांटा, ‘‘एक तो गालियां बकता है और फिर शिकायत भी करता है.’’
और तभी उन्होंने झट से मेछी को आदेश दे डाला, ‘‘लगा इस के दोचार थप्पड़ और.’’ मेछी ने फिर मेरे चांटे मार दिए. मैं स्तब्ध सा मुख्य अध्यापक के कार्यालय से जब बाहर आया तो मेछी ने पहले से भी ज्यादा अकड़ कर कहा, ‘‘अब कुल्फी ले कर देगा या तेरी और करवाऊं पिटाई.’’
….और आज वही मेछी मेरे सम्मुख सिंहासन पर विराजमान है.
गुरु महाराज से बहुत सारी बातें हुईं. उन के अमेरिका, कनाडा, इंगलैंड, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में आश्रम भी थे और उपासक भी. मेरे आकलन के अनुसार, उन के पास करोड़ों की संपत्ति तो अवश्य होगी.
घरपरिवार के बारे में पूछने पर उन्होंने मुसकराते हुए कहा था, ‘साधुसंतों का परिवार तो उन के शिष्य होते हैं. यही लोग हमारा परिवार हैं तथा समाज भी.’
गुरु महाराज तो शाम की फ्लाइट से अपने भक्तों से मिलने के लिए ब्रिसबेन चले गए थे मगर मेरे मन की यादों की पिटारी खोल गए थे.
मैं बचपन से ही संगीतप्रेमी था और नाटकों में अभिनय भी किया करता था. गाना गाने के लिए स्कूल की ओर से हमेशा मुझे ही भेजा जाता था. और मैं हर बार कोई न कोई पुरस्कार प्राप्त करता था.
कहीं भी ढोल बजने लगता तो स्वयं ही मेरे पैर थिरकने लग जाते.
हमारे गांव से 4-5 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव में मजार है. कुछ लोग अपने कष्ट दूर करने के बहाने वहां जाते थे. जिन लोगों में पीर की ‘हवा’ आती थी, वे वहां ‘खेलने’ (झूमने) लगते थे. वहां यह मान्यता भी थी कि लगातार 5 बार वहां जाने से मनोकामना पूरी हो जाती है.
मैं भी प्रत्येक वीरवार ऊबड़खाबड़ और कंकड़ोंभरे रास्ते पैदल चल कर वहां जाता था. मगर शायद मेरी भावना में स्वार्थीपन अधिक तथा श्रद्धा कम थी. लेकिन लगातार 5 बार जाने के बावजूद मेरी मनोकामना पूरी नहीं हुई थी. आप यह भी जानना चाहोगे कि मैं वहां क्या मांगता था. वास्तव में मैं वहां जा कर हर बार यही प्रार्थना किया करता था कि पीर मुझे भी ‘खेलने’ में लगा दे.
लेकिन मेरी ख्वाहिश मन में ही रह गई थी.
गांव में एक कुम्हारों यानी मुसलमानों का घर था. अब तो पूरी तरह याद नहीं कि वे लोग कुम्हार थे या मुसलमान. वर्षों पुरानी बात है. उन के परिवार के सदस्यों में पीर की ‘हवा’ आती थी. वे लोग वीरवार वाले दिन शाम को ढोल बजाने लगते तथा कुछ समय बाद उन के परिवार का कोई सदस्य ‘खेलने’ लग जाता और अपने शरीर पर ‘छेंटे’ मारने लगता.
मैं कभीकभी उन के घर चला जाता था. वे लोग खुले आंगन में ढोल बजा कर ‘खेलते’ थे. लेकिन एक बार न जाने क्या हुआ. कुछ पता ही न चल पाया कि कब ढोल की थाप मुझ पर हावी हो गई थी और मैं भी ढोल की थाप के साथसाथ झूमने लगा था. उन्होंने मुझे ‘छेंटा’ पकड़ा दिया और मैं ‘छेंटे’ से अपने शरीर पर वार करने लगा था तथा जैसे वे बोलते गए वैसे ही हक, हक… कहता रहा.
मगर शीघ्र ही यह खबर मेरे घर खबर पहुंच गई थी. मेरे घर वाले कुम्हारों को भलाबुरा कहते हुए मुझे घसीटते हुए ले गए थे. घर वालों ने मेरी धुनाई भी कर डाली थी और स्वयं भी बहुत परेशान हुए थे.
जंगल की आग की तरह यह खबर पूरे गांव में फैल गई थी कि मुझे भी असर हो गया है और मुझ में भी हवा आने लगी है.
एक दिन शाम को मैं बंजर जमीन की ओर जा रहा था. गांव की एक महिला ने मुझे रोक कर मेरे पांव छुए और गोद में उठाए हुए बालक की ओर इशारा करते हुए कहने लगी, ‘जी, कहते हैं इस पर किसी प्रेत का साया है. दिनभर रोता रहता है. आप कोई उपाय बताइएगा.’
और मैं ने भी झट से यों कह दिया जैसे मैं तंत्रविद्या में निपुण था. ‘इस के सिर के ऊपर से कलौंजी घुमा कर पक्षियों को डाल देना, शीघ्र ही ठीक हो जाएगा.’
वास्तव में उस महिला के पूछने पर तुरंत ही मुझे कुछ याद आ गया था. एक बार मेरी माताजी ने किसी साधु से मेरे बारे में पूछा था तो उस ने यह उपचार बताया था.
मुझ में हवा आने की खबर हमारे गांव से शीघ्र ही निकटवर्ती गांवों में जंगल की आग की तरह फैल चुकी थी. उस महिला की तरह और भी कई लोग अपने दुखों के समाधान के लिए मेरे पास आने लगे थे. दिमाग तो मेरा पहले से ही तेज था. मैं घरपरिवार में सुने टोटके और साथ ही अंधविश्वास से जुड़े ढंग भी बता देता था.
एक बार मैं कुबैहड़ी गांव जा रहा था. एक महिला अपने पोते को मेरे पास ला कर बोली, ‘महाराज, यह कुछ भी खातापीता नहीं है. दूध तो बिलकुल भी नहीं पीता. पहले तो पूरी बोतल पी जाता था. मुझे शक है कि मेरी बड़ी बहू ने इस के लिए टोना कर दिया है.’
मैं ने मस्तिष्क पर बल डाला तो मुझे शीघ्र ही याद आ गया कि जब मेरे छोटे भाई को भूख नहीं लगती थी तो एक हकीम ने बताया था कि लोहे के चाकू को गरम कर के दूध में डुबो कर उस दूध को पिलाना चाहिए. मैं ने भी वही नुस्खा उसे बता दिया. और साथ में यह भी बोल दिया कि इस के गले में सुराख वाला तांबे का सिक्का काले धागे में डाल कर बांध देना.
संभवतया मेरी ख्याति और फैल जाती, अगर भेद न खुलता. दरअसल, उस औरत के बच्चे को भूख लगने लगी थी और वह खुश हो कर दूध की गड़वी तथा गुड़ का बड़ा सा ढेला मेरे घर दे गई थी, क्योंकि मेरे बतलाए उपाय से उस का पोता ठीक हो गया था.
एक वैज्ञानिक होने के नाते अब मैं स्पष्टीकरण दे सकता हूं कि लोहे के चाकू को गरम कर के दूध में डालने से उस दूध में खनिज पदार्थ लोहे की मात्रा बढ़ गई होगी और बच्चे की रक्ताल्पता (अनीमिया) में सुधार आ गया होगा. बाकी सब तो अंधविश्वास की बातें थीं जिन के बिना लोगों की संतुष्टि नहीं होती.
घरपरिवार में पता चलते ही मेरी खूब पिटाई हुई थी. पिताजी चीखचीख कर पूछ रहे थे, ‘तू कब से सयाना बन कर लोगों को उपाय बताने लगा है.’ उन्होंने मुझे गांव से निकाल दिया और लुधियाना पढ़ने भेज दिया. मैं बस डिगरियां ही प्राप्त करता रहा और एक वैज्ञानिक बन गया. अब तो सेवानिवृत्त भी हो चुका हूं.
….और आज गुरु महाराज से मिल कर सबकुछ याद आने लगा था, लेकिन मेरे मन में यह विचार भी बारबार कौंधता रहा कि इतनी उपाधियां प्राप्त कर के और अंतराष्ट्रीय स्तर का वैज्ञानिक बन कर मुझे क्या मिला. 34-35 वर्ष की नौकरी के उपरांत सेवानिवृत्त होने पर जितनी राशि मुझे मिली थी उतनी तो गुरु महाराज ने आस्ट्रेलिया के एक फेरे में ही बना ली होगी. फिर उन की और भी कई प्रकार की सेवाएं होती होंगी.
मुझे पछतावा होने लगा था. इस से तो अच्छा होता गांव में ही रहता. मेरी तो उन दिनों भी काफी ख्याति हो गई थी. अब तक मेरे भी कई बंगले व आश्रम बन जाते तथा करोड़ों में बैंक बैलेंस होता. मगर अब तो बहुत देर हो चुकी है. अब तो मेरा मन भी बारबार यही कह रहा है, अब पछताए क्या होत.