इस देश में जहां 8-10 लोग एकसाथ बैठते हैं, अगर एकदूसरे का नाम, पता, काम न जानते हों, 10-20 मिनट में जाति का पता जरूर कर लेते हैं. वैसे तो ऊंची और अछूत जाति के लोग साथ बैठते ही नहीं हैं, पर अगर बैठ भी गए, तो 2016 में भी ऊंची जाति वाले मुंह फेर लेंगे या उठ कर चल देंगे. इन्हीं ऊंची जातियों वालों में से कुछ ने अछूत दलितों को राहत देने के नाम पर पेशकश की थी कि जन्म सर्टिफिकेट पर ही जाति लिखा दी जाए, ताकि जाति प्रमाणपत्र बनवाने के लिए सरपंचों, तहसीलदारों, जिलाधीशों के यहां चक्कर न लगाने पड़ें. इस गंदे सुझाव ने इतना जोर पकड़ लिया कि 15 दिसंबर, 2015 को लोकसभा में राज्य गृह मंत्री हरीभाई प्रतिभाभाई चौधरी को सफाई देनी पड़ी कि ऐसा कोई सुझाव सरकार के पास नहीं है.
जाति का सर्टिफिकेट तो केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और बनियों को लेना चाहिए, जो ऊंची जातियों के हैं और आबादी के बस 10 प्रतिशत होते हुए भी 90 प्रतिशत नौकरियों और 95 प्रतिशत संपत्ति पर असल कब्जा जमाए बैठे हैं. इन के पास यह ताकत अपनी पढ़ाई और हुनर से नहीं जन्म से है, इस पर चाहे जितना झगड़ा कर लो, सच यही है. जब बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश में राज मिला था, तब भी असल डोर मायावती के हाथ में नहीं थी, बल्कि उन के ऊंची जातियों के सलाहकारों के हाथ में थी, क्योंकि मायावती को तो राज कैसे चलाना है, सीखने में 8-10 साल लगने थे और राज पहले ही दिन फैसले मांगता है. इस के गुर तो ऊंची जातियों के पास ही हैं, क्योंकि नौकरशाही ने जो स्टील फ्रेम आईएएस अफसरों का बना रखा है, उस में इतनी भूलभुलैया बनाई?हैं कि आम नया आदमी चकरा ही जाए.
यह कह कर कि जाति का सर्टिफिकेट बनवाने में समय लगता है, ऊंची जातियां अपनी पोल खोल रही हैं. हर जना पैर रगड़वाता है, मां का नाम पूछता है, बाप का नाम पूछता है. उन का बस चले तो वे रात को बिस्तरी से ले कर पैदा होने तक की वीडियो रिकौर्डिंग सुबूत की तरह मांगने लगें. अपनी गलती के लिए वे नीची जातियों पर ठप्पा लगवाने के लिए जाति सर्टिफिकेट पर जाति का नाम लिखवाना चाहते थे. चाहते तो वे यह हैं कि हिटलर ने जिस तरह यहूदियों के साथ किया कि वे हर समय स्टार पहनें, माथे पर जाति का नाम गुदवाएं.
यह न भूलें कि देश के विकास की कुंजी असल में 90-92 प्रतिशत पिछड़ों और दलितों के हाथों में है, जो खेतों, सड़कों, कारखानों में काम कर के सामान पैदा करते हैं. चीन की चमक इन 90-92 प्रतिशत की मेहनत पर टिकी है. भारत आज भी इन्हें बोझ मान रहा है, जबकि हर जना वह छिपा खजाना है, जिसे मौका मिले तो देश सोने का सा हो जाए. जितने मेहनतकश लोग इस भारतभूमि (पाकिस्तानबंगलादेश समेत) में हैं, उतने दुनिया के किसी और हिस्से में एक सी बोली, एक से रहनसहन और साझे इतिहास वाले नहीं हैं. जरूरत तो यह है कि जाति ही नहीं धर्म के भी ऊपर उठ कर काम करें, पर पाकिस्तान और बंगलादेश की मुल्लाई सोच की तरह भारत में पंडाई सोच का दबदबा कम नहीं हो रहा और नतीजा है बेहद गुरबत, भूख और बीमारी.