बौलीवुड अदाकारा दीपिका पादुकोण का दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पहुंच कर वहां चल रहे स्टूडैंट्स के आंदोलन में भाग लेना और विश्वविद्यालय की स्टूडैंट्स यूनियन के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार को जबरदस्त तरीके से लगाए जा रहे आजादी के नारे को खड़े रह कर समर्थन देना बहुत बड़ी हिम्मत का काम है. आमतौर पर बौलीवुड के कलाकार भीरु और दकियानूसी हैं जो देश की मौजूदा भगवा सरकार से बेहद डरते हैं. वे ऐसा कुछ भी करने को तैयार नहीं होते जिस से किसी भी वर्ग को कोई आपत्ति हो.

सिनेमा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है और यह लोगों का दिलदिमाग बदलने में उतना ही मजबूत है जितने समाचारपत्र व पुस्तकें. यह बात दूसरी है कि पिछली सदी के 5वें, 6ठे दशकों के बाद फिल्मों में से क्रांति गायब हो गई. वैसे उस दौर में जहां एक तरफ ‘बिराजबहू’, ‘दो बीघा जमीन’, ‘नया दौर’, ‘परख’  और ‘गोदान’ जैसी फिल्में बनीं, वहीं ज्यादातर फिल्मों में जम कर धर्म का प्रचार किया गया था. फिल्मों ने ही नाग देवता जैसे अंधविश्वासों को जन्म दिया. ‘जय संतोषी मां’ फिल्म के कारण एक नई देवी पैदा हो गई थी, जो बाद में फिल्मी सहयोग के अभाव में लुप्त हो गई.

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दीपिका पादुकोण का अपनी फिल्म ‘छपाक’ के रिलीज होने के समय कट्टरपंथियों के खिलाफ खुल्लमखुल्ला चल रहे आंदोलन में हिस्सा लेना जोखिमभरा काम था और ट्विटर, इंस्टाग्राम और फेसबुक पर पाखंडियों की बरात ने उसे ट्रोल कर के साबित कर दिया है कि आज का कट्टरपंथी हिंदू तर्क की तो सुनता ही नहीं, वह अपने खिलाफ भी कुछ नहीं सुनना चाहता. उसे तो केवल आरती, कीर्तन, भक्तिगान आता है. वंदेमातरम भी आरती के अलावा कुछ नहीं है. कट्टरपंथी हिंदू इसे राष्ट्रगान के रूप में थोपना चाहते हैं. यह वर्ग भाजपा नेताओं को अवतार मानता है और उन के हर कदम पर हां करने के अलावा कुछ नहीं करना चाहता.

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