सुप्रीम कोर्ट ने बड़ी सड़कों पर से शराब के ठेके हटाने का हुक्म तो दे दिया है, पर यह आधाअधूरा है. इस देश में पीने का पानी चाहे 4-5 किलोमीटर तक न मिले, उन सड़कों पर जो शहरों को जोड़ती हैं, हर कदम पर ‘ठेका देशी शराब’, ‘शराब की दुकान’ के बोर्ड मिल जाएंगे, जो हर ड्राइवर को दावत देते हैं, आओ, पीओ और चलाओ और मरो. एक तो यहां की सड़कें खराब, दूसरे यहां के लोगों को न चलाना आता है, न चलना और ऊपर से शराब पी कर चलाने की दावत. हादसे नहीं होंगे, तो क्या होगा. हर साल देश में सवा लाख मौतों की जिम्मेदार शराब है.

शराब के ठेके सड़कों के किनारे खोले इसलिए जाते हैं कि वहां मोटी कमाई होती है. राज्य सरकारों को टैक्स मिलता है. शराब कंपनियों की बिक्री होती है. अफसरों को टैक्स चोरी करने की छूट दे कर जेबें भरने का मौका मिलता है और कहीं कोई हादसा हो जाए, तो पुलिस वालों को मरने व मारने वाले दोनों को लूटने का मौका मिलता है. अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा तो है कि सड़क से 5 सौ मीटर तक शराब की दुकान न होगी, पर जिसे सैकड़ों किलोमीटर जाना हो, उस के लिए 5 सौ मीटर क्या हैं और फिर 5 सौ मीटर की नपाई करेगा कौन  पुलिस वाला ही न  वह तो कह देगा और लोग एक बैंच लगा कर सड़क के किनारे बोतलें रख कर ऐसे शराब बेचने लगेंगे, जैसे फलसब्जियां और खाने की चीजें मिलती हैं.

शराब की लत प्रकृति ने नहीं दी है. यह आदत तो डलवाई जाती है. पक्का है कि सदियों से राजा और धर्म शराब को बहुत आसरा देते थे, क्योंकि एक तो इस के नाम पर टैक्स मिलता था और दूसरे इस से पैदा होने वाली घरेलू लड़ाइयों में पंडोंमुल्लों, पादरियों को लाभ होता था. इसलाम में तो ‘शराब हराम’ इसीलिए कहा गया, क्योंकि वहां समझ लिया गया कि यह वैसे नुकसानदेय है, पर न तो मुसलमानों ने इसे पूरी तरह अपनाया, न राजाओं व मुल्लाओं ने थोपा. धर्म या धर्मगुरु के खिलाफ कुछ सच बोल दो तो तलवारतमंचे निकल आएंगे, पर शराब को पिला दो तो कुछ नहीं.

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