देश के लाखों थानों की तरह मैं भी एक थाना हूं, थाना कटारा हिल्स भोपाल. दिनरात हैरानपरेशान पीडि़तों और मामूली से ले कर जरायमपेशा खूंखार मुजरिमों से मैं रूबरू होता रहता हूं. लेकिन बीती 6 दिसंबर की दोपहर कोई 2 बजे मैं भी चौंक उठा था क्योंकि अपनी तरह का यह अनूठा मामला था, जिस में मुलजिमों को पुलिस वाले नाटकीय तरीके से गिरफ्तार कर पकड़ कर या घसीट कर गालीगुफ्तार करते हुए नहीं लाए थे बल्कि उन्होंने खुद थाने आ कर आत्मसमर्पण कर दिया था.
शायद उन्हें एहसास हो गया था कि अब बच पाना मुश्किल है. हालांकि संभावना इस बात की ज्यादा है कि उन्हें अपने किए का पछतावा और गिल्ट महसूस होने लगा था.
वे दोनों एक बड़ी सी कत्थई रंग की कार से उतरे थे, जिस से यह तो समझ आ रहा था कि दोनों कोई उठाईगीरे नहीं, बल्कि शरीफ और सभ्य समाज का हिस्सा हैं.
पहली नजर में देखने पर दोनों पतिपत्नी लग रहे थे, जिन के चेहरे पर इस गुलाबी ठंड में भी पसीना चुहचुहा रहा था. उन के हावभाव साफसाफ चुगली कर रहे थे कि जिंदगी में पहली बार उन्होंने किसी थाने में पांव रखा है. एक अधेड़ था तो दूसरी जवान दिख रही भरेपूरे बदन की मालकिन महिला बेइंतहा खूबसूरत थी. उस के साथ आया व्यक्ति भी कम स्मार्ट नहीं लग रहा था.
दोनों की उम्र 35-40 के करीब थी. गाड़ी सलीके से पार्क कर दोनों आहिस्ता से चल कर थाने के मेन गेट पर आ गए.
शरीफ शहरी लोगों का यूं थाने आना कोई नई बात नहीं है जो आमतौर पर छोटीमोटी वारदातों के शिकार होते हैं. लेकिन यहां मामला एकदम उलट था. महिला सधे कदमों से मौजूद ड्यूटी अफसर के पास पहुंची और बिना किसी भूमिका के बोली, ‘‘मेरा नाम संगीता मीणा है और यह मेरे प्रेमी आशीष पांडे हैं.’’
साथ आए पुरुष ने खुद के आशीष पांडे होने की सहमति में कुछ इस तरह सिर झुकाया जैसे कोई बड़ा अवार्ड उसे मिलने वाला हो. एक नहीं मौजूद सभी पुलिस वाले परिचय देने के इस बिंदास अंदाज पर चौंके थे और सभी ने एक साथ यह अंदाजा लगाया था कि हो न हो दोनों किसी मुसीबत में फंस गए हैं. या तो महिला का पति इन के पीछे पड़ गया है या फिर उस के प्रेमी की पत्नी ने कोई फसाद खड़ा कर दिया है, जिस से बचने के लिए ये लोग पुलिस की मदद चाहते हैं.
मौजूद अफसरों में से एक ने निहायत ही शिष्ट लेकिन पुलिसिया अंदाज में कहा, ‘‘जी कहिए, क्या बात है.’’
महिला शायद इसी सवाल का इंतजार कर रही थी सो तुरंत बोली, ‘‘बाहर खड़ी कार में मेरे पति की लाश है. मैं ने और आशीष ने उन की हत्या कर दी है.’’
बस इतना सुनना था कि सभी सन्न रह गए. क्योंकि महिला पूरे आत्मविश्वास से बोल रही थी.
कार की डिक्की में निकली लाश
अचानक ही अफरातफरी मच गई जो लोग अभी तक सारी बातचीत यह ऐक्टिंग करते सुन रहे थे मानो उन की इस में कोई दिलचस्पी न हो, वे भी अपना कामधाम छोड़ कर सतर्क हो गए.
बम फूटने के बाद का सा सन्नाटा पसर गया और सभी एकदूसरे का मुंह यह सोचते हुए ताकने लगे कि महिला या तो निपट खब्त है या फिर मजाक कर रही है.
ये दोनों ही अंदाजे गलत निकले. पुलिस वाले जैसे ही इन दोनों को बाहर ले कर आए और धड़कते दिल से कार की डिक्की खोली तो उस में वाकई एक पुरुष की लाश पड़ी थी. इस के बाद तो दोनों को घेरे में ले कर सवालों की बौछार लगा दी गई.
लाश 35-40 साल के आदमी की थी जिस पर कंबल लिपटा हुआ था. चेहरे की बिगड़ी और सिर की कुचली हालत बता रही थी कि मारने से पहले किसी तरह का रहम मृतक पर नहीं किया गया था. मृतक का नाम धनराज मीणा है या कुछ देर पहले तक हुआ करता था.
धनराज मीणा अब से कोई 7 साल पहले जब पत्नी संगीता और बच्चों को ले कर सीहोर के अपने छोटे से गांव टीकाखेड़ी से भोपाल आया था तो बहुत खुश था. रहने के लिए उस ने कटारा हिल्स के अपार्टमेंट सागर गोल्डन कैंपस में फ्लैट ले लिया था जिस का नंबर था 109.
भोपाल आ कर बस जाना जिंदगी का सुखद अनुभव जिस का एक बड़ा मकसद यह था कि बेटी और बेटा यानी दोनों बच्चों की पढ़ाईलिखाई अच्छे से हो. वे एक सभ्य और शिक्षित समाज में रहते जिंदगी के तौरतरीके सीखें और फिर अच्छी नौकरी करें.
इस अपार्टमेंट का माहौल सचमुच में अच्छा था. सारे फ्लैट्स में पढ़ेलिखे लोग रहते थे. गांव जैसी चिल्लपों यहां नहीं थी. करने के नाम पर धनराज मीणा ने खेतीकिसानी के आइटम्स की दुकान अपार्टमेंट से कुछ ही दूर खोल ली थी, जिस से ठीकठाक आमदनी हो जाया करती थी.
बीवीबच्चे भी खुश थे और जल्द ही अपार्टमेंट के रहवासियों से घुल मिल गए थे. संगीता को तो मानो मुंहमांगी मुराद मिल गई थी. फ्लैट नंबर 101 वाले आशीष पांडे के परिवार से तो इतना घरोपा हो गया था कि ये लोग तीजत्यौहार साथ मिल कर मनाने लगे थे.
आशीष भले आदमी थे जो लिंक सौफ्टवेयर नाम की कंपनी में इंजीनियर थे. उन की पत्नी भी कालेज में नौकरी करती थीं. संगीता तो उन की खास सहेली बन गई थी.
वक्त कैसे गुजर रहा था, इस का एहसास ही नहीं हो रहा था. दिन दुकानदारी में कट जाता था और शाम घर वापस आते ही टीवी और सोसायटी की जिंदगी का हिस्सा बन कर निकल जाती थी. इस के बाद रात होतेहोते खाना और फिर गप्पों में रम जाना और फिर बैडरूम में जा कर बिस्तर पर पसर जाना.
खलता था पति का देहातीपन
कभीकभी तो लगता था कि जिंदगी में कोई दुख या कमी है ही नहीं. साथ ही यह सोचते डर भी लगता था कि कहीं हमारी हंसतीखेलती जिंदगी और घर को किसी की नजर न लग जाए.
संगीता को भी जैसी जिंदगी चाहिए थी वैसी मिल गई थी. अपार्टमेंट में सभी अच्छे और समझदार लोग हैं. साफसफाई और सलीके से रहते हैं, एकदूसरे का खयाल रखते हैं और खास बात यह कि बेवजह किसी के फटे में टांग नहीं अड़ाते.
दोनों बच्चों को भी अच्छा माहौल मिल रहा था. गांव में रहते तो बच्चे भी गंवार देहाती ही रह जाते. कुछ दिनों से जरूर एक कमी खटक रही थी कि काश! धनराज भी शहरी मर्दों की तरह बढि़या सजसंवर कर टिपटौप रहते. लेकिन जाने क्यों उन्हें सलीके से रहने का न तो शौक था और न ही शऊर.
अभी भी उन के बातचीत के लहजे से देहातीपना टपकता है तो कोफ्त होती है. कभी इस बाबत पत्नी उन्हें समझाती तो गुस्सा हो उठते. इस पर उस की चिढ़ और बढ़ जाती कि क्यों ये गंवारपने को अपनी खूबी समझते हैं.
एक आशीषजी हैं क्या फिटफाट और ऐक्टिव रहते हैं. कैंपस में आरएसएस की एक्टिविटीज भी कभीकभी चलाते हैं. सामाजिक काम भी करते रहते हैं और सोसायटी के भी काम देखते हैं.
लाख रुपए महीना तो उन्हें सैलरी मिलती है. इतने हंसमुख और मिलनसार अगर धनराज भी होते तो बात कुछ और होती. लेकिन वे हैं कि सुनते ही नहीं. आशीष की पत्नी भी अच्छी हैं दोनों का मैच लाखों में एक है. दोनों एकदूसरे से जितना प्यार करते हैं उस से कहीं ज्यादा एक दूसरे का खयाल रखते हैं. काश! उसे भी ऐसा हैंडसम और स्मार्ट पति मिला होता…
धनराज को न जाने क्यों पिछले कुछ दिनों से संगीता बदलीबदली लग रही थी. आशीष और उस की पत्नी का जिक्र किए बिना उस का खाना हजम ही नहीं होता लेकिन खून तो तब ज्यादा खौलता है जब वह आशीष से उस की तुलना करने लगती थी.
जब वह बहुत नजदीक होती थी, तब भी अजनबी सी लगती है. कभीकभी ऐसा भी लगता था जैसे कि उसे ही कोई गलतफहमी हो रही हो, पर कैसे उसे समझाऊं कि उस के मुंह से आशीष का नाम बारबार सुन कर मुझे गुस्सा आता है.
अभी लौकडाउन के पहले तक तो सब ठीकठाक था. पांडे फैमिली का आनाजाना कभीकभार ही होता था और आशीष से या भाभी से कैंपस में चलतेफिरते दुआसलाम हो जाती थी.
अब यह लौकडाउन में क्या हो गया कि पांडेजी अकसर हमारे घर में ही नजर आते हैं. यह ठीक है कि सब बोर हो रहे हैं बच्चे भी हैरानपरेशान हो रहे हैं लेकिन इस का यह मतलब तो कतई नहीं कि मैं अपने घर में ही मेहमान सा महसूस करने लगूं. न जाने क्यों कुछ गड़बड़ होने का एहसास उन लोगों के चले जाने के बाद और उस में भी ज्यादा रात को सोते वक्त होता है.
लौकडाउन में धनराज की दुकान बंद रहने से संगीता के आशीष से मिलनेजुलने पर मानो धनराज नाम का पहरा सा लग गया. संगीता को बारबार ऐसा लगता कि या तो उन्हें अपने घर बुला कर बतियाती रहूं या फिर उन के घर जा कर घंटों बैठी बातें करती रहूं. मुझे नहीं मालूम, मुझे यह क्या हो रहा था लेकिन जो भी हो रहा था वह रोके नहीं रुक रहा था. लगता था जैसे मेरा दिल मेरे अख्तियार में नहीं रह गया है. फिर सोचती भी थी कि मैं कोई गुनाह या गलती तो नहीं कर रही
कोई अगर मुझे अच्छा लगने लगा है तो उस से 2 घड़ी बातें करने में क्या हर्ज है. हां, हर्ज तब लगता, जब खिंचेखिंचे रहने लगे धनराज की आखों में तैरते शक के बादल दिख जाते. जब भी आशीष आते, तो वह अकसर खामोश रहते और निगाहों से हम दोनों की निगरानी सी करते रहते.
उन के जाने के बाद न तो धनराज नौरमल रह पाते और न ही मैं सहज तरीके से रह पाती. धनराज का गुस्सा बहुत तेज था सो किसी अनहोनी से भी डरती, लेकिन क्या करूं समझ नहीं आता. आशीष के जाने के बाद हर बार फैसला कर लेती थी कि अब उन से पहले जैसी दूरी बना कर रहूंगी पर दूसरे दिन ही यह प्रण टूट जाता था.
अनचाहे मुकाम की तरफ जा रही थी जिंदगी
जिंदगी एक अनचाहे अनसोचे मुकाम पर आती जा रही थी. इसी द्वंद के दौरान आशीष याद आते थे तो सब कुछ भूल जाती थी और उन की बातों और पर्सनैलिटी में खो जाती थी. कभीकभी तो लगता कि मैं सिलसिला फिल्म की रेखा हूं और आशीष अमिताभ बच्चन हैं. उन की पत्नी जया भादुड़ी हैं और धनराज संजीव कुमार के रोल में हैं.
धनराज: नहीं, मुझे सोवे गौरी का यार बलम तरसे… जैसी संजीव कुमार सरीखी हालत मंजूर नहीं. पानी अब सिर से गुजरता जा रहा है. आशीष पांडे नाम का वह चिकनाचुपड़ा शख्स संगीता को उस से और बच्चों से दूर करता जा रहा है.
समझ नहीं आता कि क्या करूं. हो सकता है मैं कोरे शक का शिकार हो गया हूं. लेकिन उन कमबख्त नजरों का क्या करूं, जो इन दोनों की आखों में एकदूसरे के लिए उमड़ती चाहत जो एक तरह से वासना ही है, को रोजरोज देखती हैं.
एक पुरानी देहाती कहावत याद आती है कि जहांजहां धुआं होता है वहांवहां आग जरूर होती है. अब ये आग कैसे बुझेगी, यह तो मुझे ही सोचना पड़ेगा. नहीं तो मेरा हंसताखेलता घर इस में जल कर राख हो जाएगा.
आशीष पांडे: संगीता भाभी की देह से उठती संतरे जैसी मोहक गंध अब जिस्म को लांघ रूह में बसती जा रही है. वह जब भी सामने पड़ती हैं तो दिलोदिमाग बेकाबू हो उठते. उन्हें भी मेरी इन नजरों से कोई शिकवा शिकायत नहीं जो हर घड़ी उन के शरीर का भूगोल नापती रहती हैं. उलटे वह तो प्रोत्साहित ही करती है, उकसाती हैं कि मैं उन्हें बांहों में जकड़ कर पीस डालूं तो भी उन्हें कोई ऐतराज नहीं होगा.
जिंदगी उन्हीं में सिमटती जा रही थी. शिवपुरी में बचपन गुजारने से ले कर ग्वालियर के इंजीनियरिंग कालेज के दिनों तक की पढ़ाई और फिर एक नामी कंपनी की नौकरी तक में कभी दिल में वो जज्बा नहीं जगा, जो इन दिनों नींद और चैन का दुश्मन बना हुआ है.
बात सिर्फ शरीर की नहीं रह गई है बल्कि उन से हमदर्दी की भी है. वे जब भी रोतेसुबकते बताती हैं कि आज फिर धनराज भाई ने उन की पिटाई की तो जी में आता है कि उस गंवार गैंडे का जबड़ा एक घूंसे में तोड़ दूं. जी तो यह भी करता है कि संगीता की आंखों से निकले आंसू गाल पर लुढ़कने के पहले पी जाऊं. दुनिया के सारे सुख उन के दामन में डाल दूं.
लेकिन ऐसा मुमकिन कहां, आखिर वे किसी की पत्नी हैं, 2 बच्चों की मां हैं. बाप तो मैं भी एक बेटी का हूं और किसी का पति भी हूं.
मेरी भी उन के प्रति कुछ क्या सारी जिम्मेदारियां हैं और मेरी पत्नी… उफ जाने किस मिट्टी की बनी है, जो सब कुछ जानतेसमझते और देखते हुए भी कभी एक लफ्ज नहीं बोलती.
हो सकता है वह भी मुझ से उतना ही डरती हो, जितना संगीता धनराज से डरती है. वह भी अपना घर बिखरने और पति खो जाने के खयाल से सहम जाती हो. अब जो भी हो देखा जाएगा, लेकिन बिना संगीता के जिंदगी में न संगीत है न गीत है.
धनराज: अब यह साफ हो गया था कि संगीता के आशीष के साथ शारीरिक संबंध भी हैं. क्योंकि मैं जब भी इस बारे में पूछता हूं तो वो और चिढ़ाने वाले जवाब देने लगी है.
संगीता ने भी सोचा कि जब धनराज को सच का पता चल ही गया है तो क्यों बारबार पूछता है और शराब के नशे में मुझे जानवरों की तरह पीटता है.
आशीष से अब संगीता की हालत देखी नहीं जाती. जल्द ही उसे कुछ करना पड़ेगा पर ऐसी हालत में क्या हो सकता है, यह नहीं सूझ रहा.
धनराज ने आखिर एक दिन अपनी पत्नी संगीता और आशीष को रंगेहाथों पकड़ ही लिया. दुकान से अचानक आ कर घंटी बजाई तो दोनों किस तरह सकपका गए थे. कहने वाले सही कहते हैं कि स्त्री का चरित्र और पुरुष का भाग्य कोई नहीं जानता. वो तो अच्छा हुआ कि जेब में पिस्तौल नहीं थी नहीं तो आशीष को तो भून ही देता.
दोनों कितनी बेशर्मी से लिपटे पड़े थे. आशीष तो सिर झुकाए वहां से निकल गया था और संगीता भी कुछ देर सन्न रह गई थी. अब तो उसे पीटने का भी मन नहीं करता. लगता था, जैसे सारी दुनिया उस पर हंस रही है कि कैसे मर्द हो तुम धनराज मीणा, जो अपनी बीवी को काबू नहीं रख पाए. थू है तुम पर और तुम्हारी मर्दानगी पर.
लेकिन कुछ तो करना पड़ेगा. बात अभी ढकीमुंदी घर की दहलीज तक थी. फिर यह भी लग रहा था कि राज खुल गया तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाऊंगा. बच्चों पर भी गलत असर पड़ेगा.
इतनी नरमी बरतने के बाद भी समझ नहीं आ रहा कि चूक कहां हो गई. क्या पैंटशर्ट और कोट टाई का पहनावा न होना और मुंह से 2-4 लफ्ज अंगरेजी के न थूक पाना ही मेरा गुनाह है?
आशीष: मेरे यू चले आने के बाद संगीता पर जाने क्या गुजरी होगी. उस वहशी ने फिर उसे मवेशियों की तरह मारा होगा. जाने क्यों अंदर कहीं से आवाज आ रही है कि आशीष तुम ही उन की इस दुर्दशा के जिम्मेदार हो. जिस की शुरुआत कुछ दिन पहले ही हुई थी, जब उन के फ्लैट का फ्यूज उड़ गया था और मैं जोड़ने गया था.
अंधेरा हो चला था मैं फ्यूज लगाने ही वाला था कि खुद संगीता भाभी ने कहा था कि अंधेरा ही रहने दो, कम से कम आप का साथ तो मिलता रहेगा.
फिर एक घंटा हम दोनों एकदूसरे में गुंथे रहे, सारी सीमाएं टूट गईं दूरियां खत्म हो गईं. उस दिन का सुख अवर्णनीय था, है और रहेगा. फिर इस के बाद तो यह हर रोज का सिलसिला हो गया. कोरोना का दौर किसी और के लिए आया हो न आया हो, हमारे लिए तो सचमुच अवसर बन कर आया.
धनराज के दुकान जाते ही मैं जाने किस सम्मोहन में बंधा हाथ में लैपटौप लिए फ्लैट नंबर 109 में जा पहुंचता था और फिर शुरू हो जाती थी एक ऐसी प्यास बुझाने की कोशिश जो कभी बुझती ही नहीं उलटे और भड़क जाती थी.
संगीता भी खुश हो जाती थी लेकिन जुदा होते वक्त धनराज का खौफ उस की बातों और आखों में दिखता था तो मन कसैला हो जाता था. और फिर अब जब सब कुछ धनराज पर जाहिर हो ही चुका है तो यह डर तो खत्म हुआ कि वह न जाने क्या करेगा. पर ऐसा ज्यादा दिनों तक चलने वाला नहीं.
संगीता: दिसंबर का सर्द महीना शुरू हो गया है लेकिन आशीष से मिलना अब पहले सा आसान नहीं रहा. धनराज की पूरी कोशिश ज्यादा से ज्यादा वक्त घर पर रहने की होती है. आशीष से तो उस ने बातचीत करनी ही बंद कर दी है और घुन्नों जैसा कुछ सोचता रहता है. वह कुछ करेगा जरूर.
आंखों देखी मक्खी निगलने वालों में से तो वह है नहीं. मुझे कुछ भी कर ले, खूब मार ठुकाई कर ले मैं सब सह लूंगी, लेकिन आशीष को कुछ ज्यादा कहा या किया तो शायद ही बरदाश्त कर पाऊंगी.
कुछ दिन बाद ही आखिर वह हो ही गया, जिस का डर था धनराज ने मकान बदलने का फैसला सुना दिया है. अब वह निर्मल स्टेट कैंपस में रहने के लिए चलने को कह रहा है, जहां उस के कई रिश्तेदार और जानपहचान वाले रहते हैं. नहीं मैं आशीष को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी, फिर चाहे कुछ भी हो जाए.
आशीष: संगीता और मैं दोनों एकदूसरे के बगैर नहीं रह सकते. धनराज मकान बदल कर हमारी राह में रोड़े अटका रहा है. संगीता को 20 गोलियां मैं ने नींद की दे दी हैं कि इन्हें मौका पाते ही धनराज को खिला देना. फिर हम उसे हमेशा के लिए ठिकाने लगा देंगे. किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होगी कि जो हमें रास्ते से हटाने की साजिश रच रहा था, हम ने उसे ही ऊपर पहुंचा दिया.
अच्छी बात यह है कि इस में संगीता राजी है और पूरा सहयोग भी दे रही है अव्वल तो कत्ल का यह आइडिया ही उस के दिमाग की उपज है. जब भी वह सिग्नल देगी, मैं फिर फ्लैट नंबर 109 में जा पहुंचूंगा. बस इस बार मकसद कुछ और होगा.
संगीता: आज 5 दिसंबर, 2021 है जिसे मैं ने धनराज की जिंदगी का आखिरी दिन मान लिया है. रात को मैं ने खूब ऐक्टिंग की और कोरोना का डर दिखा कर धनराज को नींद की 10 गोलियां खिला दी हैं. उस के गहरी नींद में सो जाने के बाद आशीष भी आने को हैं. हमारा मिशन भी कामयाब होने को है.
…और फिर पति को लगा दिया ठिकाने
देर रात आशीष जब आ गए तो मैं ने रस्सी उठा कर घोड़े बेच कर बेखबर सो रहे धनराज का गला घोंट दिया. इस दौरान वह छटपटाया तो उस के सिर पर हथौड़ी दे मारी, जिस से वह और तड़पा और फिर हमेशा के लिए सो गया यानी मर गया.
हम ने काफी देर तक इस बात की तसल्ली की कि वह मरा या नहीं और जब तसल्ली हो गई तो थोड़ी देर बातचीत करने के बाद हम दोनों अलग हो गए. तब तक रात के 2 बज चुके थे.
नींद आने का तो सवाल ही नहीं उठता था. मेरे सामने मेरे पति की लाश पड़ी थी, जिस के साथ कभी मंडप के नीचे तमाम रस्मोरिवाजों के साथ सात फेरे लेते साथ जीनेमरने की कसमें भी खाई थीं. लेकिन अब मैं आशीष के साथ जीना चाहती थी.
जी कर रहा था कि एक बार अट्टहास लगा कर हंसूं कि यह वही आदमी है जो कल तक मुझे और आशीष को ऊपर पहुंचाने की धमकी दिया करता था, मेरी जिंदगी नर्क बनाने की धौंस दिया करता था. आज मैं ने और आशीष ने ही उसे नर्क भेज दिया. अब बस चिंता सुबह इस की लाश ठिकाने लगाने और उस के बाद के ड्रामे का रिहर्सल करने की है.
कटारा हिल्स थाना भोपाल में रहने वाला बेचारा धनराज मीणा नाम का शख्स इस तरह मारा गया. कानूनी खानापूर्तियां करने के बाद जिस की लाश को अभीअभी पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया है.
युवती बताती रही कि वह और उस का प्रेमी सुबह कोई 8 बजे लाश ले कर कहीं सुनसान में ठिकाने लगाने का इरादा ले कर निकले थे. बच्चों ने पापा के बाबत पूछा था तो उस ने बहाना बना कर उन्हें टरका दिया था.
6 घंटे पूरे भोपाल में कार दौड़ाने के बाद भी उन्हें कहीं मुनासिब जगह नहीं मिली तो उन्होंने थाने आ कर आत्मसमर्पण कर दिया. आला अफसर आ गए हैं. खासी हलचल है मीडिया वाले भी कैमरे ले कर आ चुके थे.
हालांकि करने को कुछ खास इस मामले में है नहीं. इकबाल ए जुर्म नाम की रस्म अदा हो चुकी थी, अब तो बस हल्ला मचना है कि पत्नी ने प्रेमी संग पति का बेरहमी से
कत्ल किया, नाजायज संबंध बने वजह…
वगैरह वगैरह.
पर शायद ही कोई सोचे कि ऐसा तेजी से क्यों हो रहा है. एक मुकम्मल जिंदगी जी लेने के बाद क्यों पतिपत्नी को एकदूसरे में खोट दिखने लगती है और क्यों वे बेवफाई पर उतारू हो आते हैं. इन और ऐसे कई सवालों का जवाब सदियों से कोई नहीं ढूंढ पा रहा.
मुझ जैसे थानों में तो लिखापढ़ी भर होती है. जुर्म के फैसले अदालतों में होते हैं लेकिन इस के बाद भी जुर्म थमते नहीं, कम नहीं होते. यह कानूनी खामी नहीं, बल्कि आदमी का आदिम मिजाज है कि वह बहुत ज्यादा वर्जनाओं और बंदिशों में जीना ही नहीं चाहता.
अदालत से इस मामले में जब भी, जो भी फैसला आए इस से मुझे कोई सरोकार नहीं, लेकिन संगीता और आशीष दोनों अपनेअपने बच्चों के तो या यूं कह लें कि बच्चों के भी तो गुनहगार हैं ही. उन पर क्या गुजर रही होगी, इस का अंदाजा लगाते ही मैं सिहर उठता हूं कि आखिर उन मासूमों को किस बात की सजा जिंदगी भर भुगतनी पड़ेगी.