लेखक-रोहित 

दिसंबर माह से दिल्ली के लोगों ने लगातार दिल्ली में तनाव का माहौल झेला है. पहले चुनाव की सरगर्मी में गर्म होते नेताओं के तेवर व उस से उपजे भारी तनाव. फिर दंगों की आग, अफवाहों के साए और अब कोरोना के कारण एक लंबा लाकडाउन. यह सब इतने कम समय में इतनी तेजी से हुआ कि अगर लोगों का मनोस्तिथि का ब्यौरा लिया जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा कि काफी हद तक दिल्लीवासी अवसाद से गुजर रहे हैं. जाहिर है एक सभ्य समाज में उपजे इस तरह के तनाव आने वाली पीढ़ी के लिए मानसिक दुष्प्रभाव का कारण बनेंगे.

इन घटनाक्रमों में सब से ज्यादा प्रभावित वह लोग हुए जिन्होंने कुछ दिन पहले ही दिल्ली में हुए दंगों का दंश झेला. उन हजारों लोगों के लिए यह समय उस परिस्थिति से उभरने का था, लेकिन वे उभरने की जगह लाकडाउन की चपेट में जा घिरे. कितना मुश्किल होगा इस परिस्थिति को महसूस करना. आम तौर पर देश में जहां भी दंगे हुए वहां दंगों के बाद एक लंबा राहत का समय होता है. सरकार द्वारा राहत कैंप बनाए जाते हैं जिस में दंगा पीड़ितों को राहत मिलने तक रखा जाता है. फिर उन जगहों पर नेताओं और समाजसेवियों के आने का कभीकभार सिलसिला चलने लगता है. यही राहत का समय होता है जब दंगा पीड़ित लोग खुद को फिर से संतुलित करने के लिए संघर्ष करते है. यह संतुलन सिर्फ आर्थिक ही नहीं मानसिक तौर पर भी जरुरी होता है.

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23 फरवरी से शुरू हुए दंगों में 53 लोगों ने अपनी जान गंवाई तथा कई घायल हुए. कई लोगों ने अपने घरसंपत्ति को जल कर ख़ाक होते देखा. गरीब लोगों के लिए यह सब कुछ छीन लिए जाने के बराबर था. ऐसे में हजारों लोग बेघर हुए. उन में से कुछ अपने गांवों की तरफ वापस लौटे. लेकिन जिन के लिए गांव में भी कुछ बचा नहीं था वे वहीँ मुस्तफाबाद के ईदगाह में बने राहत कैंप में रहने को मजबूर हुए. लगभग 1000 की संख्या के आसपास लोग यहीं राहत केम्प में शरण लेने को मजबूर हुए. जो लोग सरकार द्वारा बनाए इन राहत कैंप की दरियादिली के कायल हैं वे यह जरुर समझ लें की यह मात्र खाना, कम्बल और टेंट है. किंतु दंगा पीड़ित इंसानी जीवन सिर्फ खाना, कम्बल या टेंट नहीं.

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