आज पूरा विश्व एक महामारी की गिरफ्त में हैं , सबकी शिकायत भरी नजर चीन पर उठ रही है, यूँ तो मानव स्वभाव है शिकायत करना. शिकायत तो सभी की होती है एक दूसरे से, पत्नी को शिकायत पति से ;घर पर समय नहीं देते , पति को शिकायत दफ्तर के काम से मुक्ति नहीं मिलती, बच्चों को शिकायत कालेज, कोचिंग के बीच खुद के लिए समय ही नहीं निकाल पा रहे .किसने सोचा था कोरोना जैसा गम्भीर, असाध्य रोग इन शिकायतों का हल बनेगा. जी हाँ ! आज कोरोना से पूरी दुनिया थम गई है.‘जो जहाँ है, जिस हाल में है …बस वहीं रहे’ घोषणा हर तरफ सुनाई दे रही है . टेलीविजन पर माननीय प्रधानमन्त्री के भाषण के बाद तो मेट को छुट्टी देना हमारा नागरिक कर्तव्य हो गया था, चिंता में थी कैसे होगा …सफाई , कपड़े, खाना … उस पर सभी की फुल टाइम घर में मौजूदगी .
श्रीमान जी ने मन की बात भाप ली, बोले नो टेंशन, उन्होंने भी प्रधानमन्त्री की तर्ज पर अपने रियासत में एलान कर दिया,
“मौसम है ख़राब घर से बाहर न निकला जाय घर पर रहकर ही माँ के काम में हाथ बटाया जाय ” फार्मूला काम कर गया. सबसे बड़ी बात ‘बेटे के एमबीए फाइनल का एक्जाम कर्फ्यू के दो दिन पहले ही समाप्त हुआ था . उसे जॉब के लिए पन्द्रह दिन बाद ही निकलना था, सो फरमाइश थी, ‘माँ मुझे कुछ रसोई का काम सिखला दो ताकि जहाँ रहूँ कम से कम भूखा तो न रहूँ .तो सबसे पहले तो मैंने किचन की कार्यशाला लगाईं . जिसमे सभी की हिस्सेदारी रही .सब्जी काटने ,छोंका लगाने, आटा, कुकर लगाने, रोटियाँ बेलने का काम बारी-बारी सबके हिस्से आया सुखद यह था कि सभी ने अपना काम ईमानदारी से निभाया.उस पर प्याज काटते हुए जब बेटे के मुख से यह वाक्य निकले ,
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‘माँ कैसे काटती हैं आप प्याज़ , उफ़ ! कितना लगता है आँखों को ” वहीं रोटियाँ बेलते हुए पतिदेव को हैरान , परेशान हो यह कहते सुना ,
“सुमि ! कैसे बेल लेती हो तुम गोल-गोल रोटियाँ …यहाँ तो कभी चीन ,कभी जापान का नक्शा ही बनकर रह जाता है .” सच क्या कहूँ ये वाक्य किसी मन्त्र से सुकून दे रहे थे , मन आसमान की ऊंचाइयाँ छू गया .बहरहाल प्रतिस्पर्धा सी हो गई आज किसने अपना काम कौशल के साथ किया, अच्छा ऐसा …! मैं कल इससे अच्छा कर दिखाऊंगा.
अक्सर बेटे से शिकायत करती थी , ‘
‘कालेज जाते हो या धूल में लौटकर आते हो …! कपड़े ही इतने गंदे रहते है.” बड़ी आसानी से जवाब देता , “मशीन है ना माँ..फिर क्या चिंता ” अब उसे कौन समझाये मशीन के बाद भी मेहनत लगती है .अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे बेटे के हिस्से आये जब कपडे,
“आप सच कहती हैं माँ, मेरे कपडे कुछ ज्यादा ही धूल से दोस्ती कर लेते हैं ना …देखिये कोशिश तो की है मगर आपकी तरह नहीं हो पाया न ” मुग्ध हो गई, लगा जीत गई मेरे भीतर की औरत, मगर एक माँ दिल हार गई ,
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“चल रहने दे मैं कर देती हूँ ”“ओके, तब तक मैं आप सबको बढ़िया अदरक वाली चाय बनाकर पिलाता हूँ ” लगा अंतिम पलों में किसी ने स्वर्ग की सैर करा दी.क्या कहूँ अब तक तो सुबह जल्द उठने के बाद भी कभी बच्चों के टिफिन, चाय ,नाश्ते, फिर श्रीमान के दफ्तर के लिए टिफिन …यानि सुबह से जो दौड़ शुरू होती फिर नहाकर ,कपड़े पूजा करने के बाद बमुश्किल नाश्ते के लिए समय मिलता था.
जबकि मेट झाड़ू पोंछा कर जाती थी, किन्तु अब तो सभी फ्री हैं सो सुबह भी देर से होती है . सभी लोग साथ बैठ चाय नाश्ते का आनन्द लेते हैं. फिर बिना कहे सभी अपने-अपने मोर्चे पर तैनात हो जाते हैं. अपने हाथ के टेस्ट से बोर हो गई थी , अब अपनों के हाथों का बना चखती हूँ एक अलग अनुभूति हो रही है. समय ही समय है पास; सो सदुपयोग तो होना ही है. अमूमन बच्चों की अंग्रेजी फ़िल्में मैं नहीं देखती मगर आज जब उन्होंने जिद की तो उनकी पसंद की फिल्म वायरस देखी.लगा हमें देखनी चाहिए इस तरह की फ़िल्में ..काफी ज्ञानवर्धक लगी. बच्चों की पसंद पर फक्र हुआ तो बच्चों ने भी मेरा मन रखने के लिए मेरी मनपसन्द फिल्म माँग भरो सजना लगाईं. रात में फ्री होकर अब हर रोज कोई न कोई फिल्म देखते , दिन में कभी तम्बोला, कभी अन्त्याक्षरी ,तो कभी कोई माइंड गेम. दिमाग फ्री था , काम का भूत जो जाने – अनजाने कहीं मन में गया था , हवा हो गया. साथ ही कोरोना का खौंफ हमारे ठहाकों के बीच दबगया , सो खूब मन लगा.
इस बीच चावल और साबूदाने के पापड़ , मंगोड़ी भी मेरी आजकल पर टल रही थी, क्योंकि सबको विदा करते करते आधा दिन जा चुका होता; सोचती अब क्या कल करूंगी …वह कल अब आया.खाना बनाने से मुझे मुक्त दे पतिदेव ने कहा तुम अपना वह काम कर लो , बच्चे भी मेरे संग छत पर आ गए उनमें चावल के पापड़ गोल-गोल बनाने की होड़ लगी और मेरा काम आसान हुआ साथ ही मेरी रसोई का संग्रहण भी हो गया. अब से पहले रविवार का दिन मेरे लिए और भी तनाव भरा रहता था .एक दिन पहले प्लानिंग जो करनी पड़ती थी, कल सुबह नाश्ते में क्या , खाने में स्पेशल क्या बनाऊँ वरना यही सुनाने को मिलेगा एक दिन तो घर रहते हैं.फिर शाम का नाश्ता …मगर अब इस तनाव से हमेशा -हमेशा के लिए मुक्ति मिल गई. सबको यूट्यूब पर रिसिपी का चस्का लगा दिया , एक्सपेरिमेंट जारी है.फुर्सत के पलों में कुछ बच्चों के शौक जाने/समझे , कुछ अपने कहे , उन्हीं में एक शौक जो कहीं दब सा गया था पेंटिंग का , बच्चों को सुनकर आश्चर्य हुआ मेरे भीतर एक कलाकार भी है ,
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“जीवन की आपाधापी में / कब वक्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं तुझमें भी हुनर है किसी से कह सकूं ”
अब तक मैं एक रसोइया के रूप में जो देखी गई .बस फिर क्या था बेटे की रिजेक्ट ड्राइंग शीट और पेन्सिल आ गई मेरे सामने मेरी कला को सराहना ही नहीं मिली भविष्य में इस शौक को प्रचारित –प्रसारित करने का वादा भी मिला.
कोरोना का यह कर्फ्यू मन में बरसों के बंद द्वार खोल गया . सच हम कभी -कभी अपने को स्वयं वक्त नहीं देकर अपने भीतर के भावों को कुचल देते हैं और जाने-अनजाने किसी कुंठा से ग्रस्त हो जाते हैं. जो परिवार को हानि पहुंचाता है.यूँ एक दूसरे के करीब आकर एक दूसरे को जानने के अवसरों से हम वंचित रह जाते हैं. कोरोना के 21 दिनों के इस सुखद वनवास ने मेरी अयोध्या को गुलजार कर दिया.