अपने पति और बच्चों के साथ मैं मायके जा रही थी. मायका एक ऐसे कसबे में है जहां जाने के लिए डायरैक्ट बस नहीं है. कई गांवों से गुजरते हुए, छोटेछोटे वाहन, जैसे जीप, आटो अकसर ही जाते हैं. उस के पहले वाले कसबे में, जहां से आटो आदि मिलते हैं, वहां हम सब बस से उतरे. जाड़े का समय था. शाम 6 बज गए थे. वहां पहुंचने के बाद पता चला कि आज आटो वालों की हड़ताल है तो हमारे पैरों तले जमीन खिसक गई. वहां से मेरा मायका 15 मिलोमीटर दूर था. कोई साधन न मिलने से हम काफी घबरा गए.
अंधेरा बढ़ता जा रहा था. अचानक एक रिकशे वाला पास आ कर बोला, ‘‘अरे मैडम आप लोग यहां? दरअसल वह रिकशेवाला गणेश था जो हमारे यहां शहर में 2 वर्ष पहले काम करता था. हम लोगों ने अपनी परेशानी बताई. उस ने फौरन एक जीप की व्यवस्था की और हमारे साथ मायके तक हमें पहुंचाने भी गया.
आज भी जब मायके जाने की बात आती है तो उस सफर और गणेश की इंसानियत की अनायास याद आ जाती है.
माधुरी कुशवाहा
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मैं ट्रेन से अजमेर से इंदौर जा रहा था. ट्रेन नागदा स्टेशन से गुजर रही थी, समय सुबह 4 या 4:30 बजे का रहा होगा. स्टेशन पर गाड़ी कुछ समय रुकी. वहां एक सज्जन अपने सूटकेस के साथ चढ़ गए. उन का जहां आरक्षण था, उस बर्थ पर उन्होंने अपना बिस्तर बिछाया. चूंकि उन की बर्थ सब से ऊपर थी, सो उन्होंने अपनी अटैची को सब से नीचे की बर्थ के नीचे चेन से बांध कर ऊपर जा कर सो गए.