मेरे पापा शिक्षा को बहुत अहमियत देते थे. जब लड़कियों में शिक्षा का प्रचलन कम था, उस समय भी उन्होंने छोटे शहर में रहने के बावजूद हम
5 बहनों और 2 भाइयों को शिक्षा दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वे कहते थे, जो जितना पढ़ेगा उसे उतना अधिक पढ़ाऊंगा.
पापा की उम्मीदों पर खरी सिर्फ एक दीदी ही उतरती थीं इसलिए वे उन्हें ऐक्सप्रैस ट्रेन और हम लोगों को मालगाड़ी कहते थे ताकि हम लोग भी मेहनत से पढ़ें और आगे बढ़ें.
जीवन के नैतिक मूल्यों की शिक्षा और अच्छे संस्कार, जो उन के द्वारा मिले, उस की बदौलत हम भाईबहनों की गाड़ी कभी पटरी से नीचे नहीं उतरी, बल्कि अपनेअपने क्षेत्र में कामयाब हो कर आगे बढ़ते हुए सुव्यवस्थित जीवनयापन करने में सफल रहे.
यद्यपि पापा हम लोगों के बीच नहीं हैं फिर भी उन के व्यक्तित्व व शिक्षा से हमें सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है.
रेणुका श्रीवास्तव, लखनऊ (उ.प्र.)
 
मुझे रसोई के काम में तनिक भी रुचि नहीं थी. कभीकभार मेरे पापा मुझे चाय बनाने के लिए कह देते तो मैं कभी ज्यादा पानी वाली या कभी ज्यादा चीनी वाली चाय उन को बना कर दे देती.
उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि चाय में चीनी अधिक है या चाय ठीक नहीं बनी है. वे हमेशा एक ही बात कहते, ‘बेटा, तुम ने चाय तो बढि़या बना कर दी है.’
एक दिन पापा के एक मित्र आए. पापा मेरे साथ किचन में आए. उन्होंने मुझ से चाय बनवाई. चाय पीने के बाद पापा के दोस्त जब जाने लगे तो उन्होंने कहा कि आप की बिटिया तो सब काम अच्छी तरह कर लेती है.
पापा ने अपने मित्र से कहा कि इस के रहते हुए मुझे कोई फिक्र नहीं है. पापा की बातों से मुझ में आत्मविश्वास पैदा हुआ और अब रसोई का कार्य मैं स्वयं कर लेती हूं. काश, सभी के पापा ऐसे हों.
दीपशिखा गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)
 
बात वर्ष 1986-87 की है. मैं 11वीं में पढ़ता था. मेरी मां का देहांत, जब मैं मात्र 5 साल का था, हो गया था. मुझे मेरे भैयाभाभी ने पालापोसा. मेरे पिताजी रिटायर्ड फौजी थे और दिल्ली में दूसरी सर्विस कर रहे थे. मां के देहांत के बाद अचानक पिताजी की आंखों की रोशनी चली गई. पिताजी गांव में रहने लगे. वे मुझे सेना में जाने के लिए जागरूक करते, सेना की बहादुरी के पुराने किस्से सुनाते. नतीजतन, मुझे भी सेना में जाने की जिज्ञासा हुई.
पापा की ही प्रेरणा से मैं आज सेना में सूबेदार हूं. पापा को सैल्यूट.
महिपाल रावत, नंदौली (उ.खं.) 
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