मैं मुंबई के चेंबूर इलाके में होस्टल में रह कर अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही थी. इसी बीच एक बार मेरी बूआजी और फूफाजी मुंबई घूमने के लिए आए. हम लोगों ने एस्सेल वर्ल्ड घूमने जाने का प्रोग्राम बनाया. हालांकि मैं भी अभी मुंबई और उस के रास्तों से अनजान थी, फिर भी इतना मालूम था कि सैंट्रल मुंबई से ट्रेन पकड़ कर गोरेगांव पहुंच कर, फिर वहां से एस्सेल वर्ल्ड पहुंचना आसान होता है.
हम लोग मुंबई सैंट्रल पहुंच गए और वहां से गोरेगांव के लिए लोकल ट्रेन का इंतजार करने लगे. जैसे ही एक लोकल ट्रेन आ कर रुकी, हम सब लोग उस में चढ़ गए. फूफाजी ने पूछा, ‘‘बेटे, यह कौन सा कंपार्टमैंट है?’’ लेकिन अनजाने में मैं ने कहा, ‘‘लोकल ट्रेन है, इसलिए सब कंपार्टमैंट एक से होते हैं.’’
इतने में ही टीटीई आए. जब उन्होंने हम से टिकट मांगी तो, हम ने उन्हें टिकटें दिखाईं. वे बोले, ‘‘ये सैकंड क्लास के टिकट हैं और आप फर्स्ट क्लास कंपार्टमैंट में आ गए हैं. आप को जुर्माना देना होगा.’’
हम ने उन्हें पूरी बात बताई तो उन की समझ में आ गया कि हम इस नगर और ट्रेन के सफर से अनजान हैं. उन्होंने अगले स्टेशन पर हमें आदरपूर्वक उतार कर स्वयं दूसरे ट्रेन में बैठाया. मुझे अपनी मूर्खता पर हंसी भी आ रही थी और गुस्सा भी. लेकिन साथ ही, उन टीटीई के व्यवहार ने हमारा मन कृतज्ञता से भर दिया था.
एक पाठिका
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मैं अपने पति के साथ दिल्ली से हैदराबाद आ रही थी. मैं ने ट्रेन में हाथमुंह धोते समय अपने हाथ की घड़ी, जो कि बिलकुल नईर् थी, और चांदी की एक अंगूठी उतार कर वहीं वाशबेसिन पर रख दी और वहीं भूल कर आ गई.