मेरी भतीजी दिल्ली से कार द्वारा लखनऊ आई थी. 2 दिनों बाद उसे वापस जाना था. वह बोली, ‘‘बूआ, कार की पिछली सीट खाली है. दिल्ली चल पड़ो.’’ प्रोग्राम बन गया और वापसी के लिए ग्वालियर-बलरामपुर ऐक्सप्रैस ट्रेन का टिकट मिल गया. ऊपर की बर्थ थी. वापस लखनऊ जाने के लिए भांजा रात 8:30 बजे ट्रेन में मुझे चढ़ा कर चला गया. मैं अपनी सीट पर बैठ गई. नीचे की दूसरी बर्थ पर एक लड़का और एक बर्थ पर लड़की थे. दोनों गपें मार रहे थे.
मैं ने किनारे बैठ कर खाना खा लिया. तब मैं ने कहा, ‘‘बच्चो, क्या तुम दोनों में से एक नीचे की सीट मुझ से चेंज कर लोगे. मैं ऊपर चढ़ नहीं पाऊंगी. बुजुर्ग हूं.’’
दोनों ने कहा, ‘‘नहीं आंटी, हमें भी प्रौब्लम है.’’
जब दोनों ने साफ इनकार कर दिया तब कोई चारा न देख कर 10 मिनट बाद मैं ने एक चादर निकाली जो मैली थी, और नीचे सीटों के बीच में बिछाने लगी. दोनों ने देखा तो पूछने लगे, ‘‘ये क्या कर रही हैं? नीचे तो हमारा सामान है.’’
मैं ने कहा, ‘‘मैं ऊपर चढ़ नहीं सकती, इसलिए नीचे चादर बिछा कर लेट जाऊंगी. बैठी तो रह नहीं सकती. सुबह 4:30 बजे लखनऊ आ जाएगा.’’ उन्हें बलरामपुर जाना था. पता नहीं क्या सोचा, दोनों ने आपस में इशारे किए, फिर लड़की बोली, ‘‘ठीक है, मैं ऊपर चली जाती हूं. आप मेरी सीट पर सो जाइए.’’
क्या करती, जब बुढ़ापे में कोई मदद न करे, तो ऐसे ही बात बनानी पड़ती है.
माला वाही
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हमारे पड़ोसी के लड़के की शादी कुछ ही दिनों पहले हुई. बहू उत्तर प्रदेश के जौनपुर शहर की है. ससुराल में सब को पंजाबी बोलते देख वह भी पंजाबी बोलने की कोशिश करने लगी.
एक दिन उन के घर कोई परिचित मिठाई ले कर आए. सब उन को मुबारकबाद दे रहे थे. नई बहू बोली, ‘‘अंकल, तैनूं बधाइयां.’’ उन्होंने बिना कुछ कहे मुंह दूसरी ओर कर लिया. उन के जाने के बाद सब हंस पड़े और बहू को बताया कि बड़ों को तैंनू नहीं, तोहानूं कहते हैं.
उस के बाद बहू ने बाहर वालों के साथ पंजाबी में बोलने की हिम्मत नहीं की.
निर्मल कांत गुप्ता