मेरी पुत्री व दामाद दोनों ही सरकारी नौकरी में हैं. दोनों को ही सरकारी कार्य से 1-2 महीने के लिए दूसरे शहरों में जाना पड़ता है. उस समय उन के बच्चों की देखभाल के लिए मैं जबलपुर से उन के यहां जाती हूं.
बात 6 महीने पुरानी है. मेरी पुत्री कार्यवश दूसरे शहर गई. वह अपने साथ सोने के कुछ आभूषण भी ले गई. उस शहर में हमारे करीबी रिश्तेदार भी रहते हैं और साप्ताहिक अवकाश के दिन उन्हीं के यहां लंच करने और फिर घूमनेफिरने का प्रोग्राम रहता था.
1 महीने बाद वह वापस आई तो पता लगा कि उस के आभूषणों में हाथ के कंगन नहीं मिल रहे हैं. मेरा मन निराशा से भर गया. मैं अपनी पुत्री को भलाबुरा कहने लगी. मन में शंकाएं उठने लगीं कि कहीं कंगन रिश्तेदारों के यहां रह गए या उन्होंने ही निकाल लिए... जब दामाद भी बाहर से आ गए तो मैं भारी मन से जबलपुर लौट आई.
अभी हाल ही में मेरे दामाद का अचानक फोन आया, ‘‘मम्मीजी, कंगन घर में ही मिल गए.’’ यह खुशखबरी सुन कर मन को बहुत संतोष हुआ.
हुआ यह था कि पुत्री ने घर आ कर कंगनों को एक कपड़े में लपेट कर लापरवाही से रख दिया और भूल गई. एक दिन दामाद घर की सफाई कर रहे थे कि एक अलमारी के कोने में रखे कपड़े की पोटली को खोला तो उस में कंगन रखे थे. मुझे यह बुरा लगा कि मैं बेवजह ही अपने रिश्तेदार के लिए गलत सोच रही थी. 
विमलेश शर्मा, जबलपुर (म.प्र.)
 
बेटी की शादी तय हो चुकी थी. वर पक्ष की आपसी रजामंदी से विवाह का शुभदिन भी रखा जा चुका था. एकएक कर के हम ने सभी दोस्तोंरिश्तेदारों को भी खबर करनी शुरू कर दी थी.
बूआ सास को जब यह बात पता चली तो वे बहुत नाराज हुईं. उन्होंने कहा कि रविवार विवाह के लिए शुभदिन नहीं है, यह मान दिन हैं. इस रोज ही भाई (हमारे ससुर) का देहांत हुआ था.
वर के पिता से परिस्थिति बताते हुए हम ने विवाह की तिथि बदलने का आग्रह किया. उन्होंने हमें अपनी असुविधा जताई लेकिन बाद में किसी तरह वे मान गए. हमें फोन पर सब लोगों को विवाह की दूसरी तारीख का निमंत्रण देना पड़ा. हमारे साथसाथ आने वाले मेहमानों को भी खासी परेशानी का सामना करना पड़ा.
इस तरह न चाहते हुए भी हमें अपने रिश्तेदारों के मानसम्मान के कारण अंधविश्वास के चक्रव्यूह में फंसने को मजबूर होना पड़ा था.
सुखदा सहाय, मथुरा (उ.प्र.) 

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