लगभग ढाई दशक पहले तक जब उदारवादी अर्थव्यवस्था अपने शैशवकाल में या शुरुआती दौर में थी तो सरकारी स्तर पर बचत की कई लघु योजनाएं शुरू की गईं और पैसे वाले, सामान्य आय वर्ग वाले और नौकरीपेशा लोग उस में पैसा लगा कर 5 साल तक अपने निवेश के दोगुना होने का निश्चिंत हो कर इंतजार करते. बस चिंता थी?तो सिर्फ यह कि लघु बचत योजना पत्र को संभाल कर रखना है और निश्चित समय पर उस का भुगतान पा कर अगले 5 साल के लिए उसे फिर निवेश कर देना है. यह नौकरीपेशा लोगों में सामान्य प्रवृत्ति थी.
इन बचत योजनाओं के लिए सब से सुरक्षित और सुलभ डाकखाने ही हुआ करते थे. हर गली और हर गांव में डाकखाना था और डाकघर में रखा पैसा सब से अधिक सुरक्षित माना जाता था इसलिए हर आदमी डाकघर की योजना से जुड़ना चाहता था. लेकिन अब इस तरह की राष्ट्रीय बचत योजनाएं संकट में हैं. आज स्थिति बदल गई है और इन योजनाओं में पैसा जमा करने की तुलना में निकाले जाने की गति बढ़ी है.
जिस पश्चिम बंगाल में शारदा ग्रुप की चिटफंड कंपनी ने घोटाला किया है और लोगों के हजारों करोड़ रुपए डकार गई है वहां साल 2013 के वित्त वर्ष की पहली तिमाही में लघु बचत यानी डाकखाना आदि में जमा होने वाली कुल पूंजी 194 करोड़ रुपए थी जबकि लक्ष्य 8,370 करोड़ रुपए का रखा गया था. इसी तरह से इस अवधि में राष्ट्रीय स्तर पर इन योजनाओं में कुल जमा 15 हजार करोड़ रुपए रहा जबकि 2009-2010 वित्त वर्ष में यह राशि 64,300 करोड़ रुपए थी. कहने का तात्पर्य यह है कि लोग सुरक्षित योजनाओं से भाग कर लालच में लुटेरों के जाल में फंस रहे हैं और सरकार यह सब चुपचाप देख रही है क्योंकि नेताओं और अफसरों के इन योजनाओं को चलाने वालों के साथ करोड़ों रुपए दांव पर लगे हैं.
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