चीन भी अब आर्थिक मुश्किल की चपेट में आ गया है. अंतर्राष्ट्रीय शेयर बाजार में उस के शेयरों में आई भारी गिरावट बताती है कि उस की अर्थव्यवस्था में सबकुछ ठीकठाक नहीं है. अब चीन के चुंधिया देने वाले चमत्कार की कलई खुलती जा रही है. चीन के गुब्बारे की हवा कभी भी निकल सकती है. यह प्रक्रिया उसे सोवियत संघ के रास्ते पर भी  ले जा सकती है. कई अर्थशास्त्री कहते हैं कि निर्यात पर आधारित अर्थव्यवस्था बनाने वाले एशियाई टाइगर देशों का जो हश्र हुआ वही चीन का भी हो सकता है या हो रहा है.  अमेरिका के प्रतिष्ठित शोध संस्थान स्ट्रेटफोर ने 22 जनवरी, 2010 को आगामी दशक के बारे में चौंकाने वाली कई  भविष्यवाणियां की थीं उन में सब से प्रमुख भविष्यवाणी यह थी कि इस दशक में चीन की अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी. इस भविष्यवाणी ने खासतौर पर इसलिए भी चौंकाया है कि अभी 2 दशक पहले तो चीन का एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में उदय हुआ है. जिस तरह उगते सूर्य को सभी नमस्कार करते हैं उसी तरह उदीयमान चीन का दुनियाभर में स्तुतिगान हो रहा था. अचानक यह क्या हो गया कि चीन की अर्थव्यवस्था के लिए शोकगीत लिखे जाने लगे.

चीन के महाशक्ति बन कर उभरने के बाद ऐसी पुस्तकों की बाढ़ सी आ गई थी जो चीन की चुंधिया देने वाली तरक्की का जायजा लेती हैं. इन में विलियम ओवरहौल्ट की ‘राइज औफ चाइना’ और टेरिल रास की ‘द न्यू चाइनीज एंपायर’ प्रमुख हैं. लेकिन जल्दी ही चीन की जेट गति से प्रगति का घोर अंधेरा पहलू कुछ लोगों को नजर आने लगा. उन्हें अपने विश्लेषण से लगा कि चीन कुछ जल्दी ही महाशक्ति बन गया है, इसलिए वह एक ऐसी महाशक्ति है जिस की छाती तो फौलादी है मगर पांव मिट्टी के हैं. खासकर, उस का आर्थिक विकास एक ऐसा बुलबुला है जो कभी भी फूट सकता है. ऐसी पुस्तकों में गोर्डन चांग की ‘द कमिंग कोलैप्स औफ चायना’, जौय स्टडवेल की ‘द चायना ड्रीम’ प्रमुख हैं. इस के अलावा ‘चाइनीज इकोनौमी इन क्राइसिस’ और ‘चाइना डीकंस्ट्रक्ट’ जैसी अकादमिक पुस्तकों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है.

‘द कमिंग कोलैप्स औफ चाइना’ के लेखक गोर्डन चांग ने एक इंटरव्यू में अपनी पुस्तक की चर्चा करते हुए कहा था, ‘‘आधुनिक दुनिया में चीन की राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था टिक नहीं सकती. चीनी गणराज्य के संस्थापक माओ त्से तुंग ने एक असामान्य समाज का निर्माण किया था और उसे अन्य समाजों से अलगथलग कर दिया था. उन की व्यवस्था तब तक टिकी रही जब तक चीन ने अपने को बाकी दुनिया से अलगथलग रखा. लेकिन उन के उत्तराधिकारियों ने चीन गणराज्य को बाकी दुनिया के लिए खोलने की कोशिश की है. चूंकि यह देश अन्य देशों के साथ जुड़ गया है तो वही राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक शक्तियां उसे भी संचालित करेंगी जो सारी दुनिया को संचालित करती हैं. इस प्रक्रिया में एक समय ऐसा आएगा कि माओ की बनाई यह असामान्य व्यवस्था उसे छोड़नी पड़ेगी क्योंकि चीन विश्व व्यवस्था में जो स्थान बनाना चाहता है उस के लिए वह बुनियादी तौर पर अनुकूल नहीं है. जल्दी ही वह समय आएगा जब चीन की सरकार एक मुक्त और गतिशील समाज की चुनौतियों का सामना करने में अक्षम होगी. वर्तमान ढांचे के ढहने के बाद नई व्यवस्था आएगी और तब कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में नहीं होगी. निश्चित ही चीन तो रहेगा मगर वह चीन नहीं जो कम्युनिस्ट है. यह ढहना एक दशक में पूरा हो जाएगा.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘हम नहीं जानते कि उन घटनाओं का चरित्र क्या होगा जो कम्युनिस्ट पार्टी के पतन का कारण बनेंगी. चीन कई चुनौतियों का सामना कर रहा है-देश का बढ़ता कर्ज, आर्थिक प्रगति से हो रहा सामाजिक विस्थापन, बैंकिंग सुधार न होने से नौनपरफौर्मिंग लोन्स की भरमार, खस्ताहाल पैंशन स्कीम जो बूढ़ी होती आबादी को सामाजिक सुरक्षा देने में अक्षम है, पर्यावरण का विनाश, बेकाबू होता भ्रष्टाचार, बेतहाशा बढ़ते अपराध, चरमराती शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा इन में प्रमुख हैं. इन सब को एकसाथ मिला दीजिए और आप समझ जाएंगे कि क्यों इन से निबटने में सरकार असफल हो जाएगी. एक या दूसरे कारण को महत्त्वहीन बता कर हम सरकार के नाकाम होने की संभावना को खारिज कर देते हैं लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कम्युनिस्ट पार्टी  को एक ही समय सारी चुनौतियों से निबटना है, एक समय में एक चुनौती से नहीं.’’

आज के चीन की नीतियां सरकार और जनता के बीच की खाई को चौड़ा करने के लिए बनाई गई हैं इसलिए वे अस्थिरता को जन्म दे रही हैं. आज सरकार संचालित आर्थिक विकास और सोशल इंजीनियरिंग के कारण असाधारण गति से अकल्पनीय सामाजिक परिवर्तन हो रहे हैं. कम्युनिस्ट पार्टी भी सार्थक राजनीतिक सुधारों के रास्ते में बाधक बन कर खड़ी हुई है. चूंकि बड़े अधिकारी सार्थक परिवर्तन की अनुमति नहीं देते इसलिए अधिकारियों को असंतोष को फैलने से रोकने के लिए बल प्रयोग करना पड़ता है. लेकिन राज्य की दमन की शक्ति का उपयोग केवल लघुकालिक समाधान ही है. नेतृत्व असंतोष के कारणों को हल करने की कोशिश नहीं कर रहा. हकीकत यह है कि चीन जैसेजैसे समृद्ध होता जा रहा है वैसेवैसे ज्यादा अस्थिर होता जा रहा है. 2002 के बाद प्रदर्शन ज्यादा बड़े और ज्यादा बार होने लगे हैं. इस के अलावा प्रदर्शन ज्यादा उग्र होते जा रहे हैं. और ऐसा नहीं है कि केवल किसान और मजदूर ही सड़कों पर उतर रहे हैं, बल्कि मध्यवर्ग भी विरोध जता रहा है जो पिछले 25 वर्षों में सब से ज्यादा फायदे में रहा है. सारे समाज में ही असंतोष के प्रदर्शन में उग्रता है, जैसी तियेनमान स्क्वायर पर 1989 हत्याकांड से पहले देखी गई थी.

बहुत सारे लोगों को उम्मीद है कि चीनी गणराज्य थाईलैंड, ताइवान और कोरिया की तरह बनेगा लेकिन इन देशों के नेताओं के सिर पर मार्क्सवाद का बोझ नहीं था. मार्क्सवाद न केवल देशों के नेताओं को शासन का अधिकार देता है बल्कि उन से यह अपेक्षा करता है कि वे इस की मांग करें. चीन के नेताओं का विश्वास है कि उन की एक नियति है कि वे हमेशा राज करेंगे. जब नेता शांतिपूर्ण परिवर्तन की संभावना को नकारते हैं तो लोग आखिरकार बल प्रयोग की रणनीति को अपना लेते हैं. यह सही है कि चीन ने पुनर्जीवन के लिए सोवियत संघ से अलग रास्ता अपनाया. चीन की आर्थिक पुनर्रचना ने कुछ समस्याओं को हल किया जिन्हें सोवियत संघ हल नहीं कर पाया था. लेकिन इस से दूसरी चुनौतियां पैदा हुईं.  वहीं, एक अनिवार्य तथ्य यह है कि सोवियत संघ और चीन दोनों का मूल चरित्र मार्क्सवादी व्यवस्था होना है, इस कारण वह सुधार से परे है.

कमजोर महाशक्ति 

अमेरिका में कुछ वर्ष पहले एक और पुस्तक छपी है जिस का शीर्षक है, ‘चाइना: फ्रेजाइल सुपर पावर : हाउ चाइनाज इंटरनल पौलिटिक्स डीरेल इट्स पीसफुल राइज.’ अमेरिकी विदेश विभाग में आला अफसर रही सूसन एल शिर्क की यह पुस्तक इस मिथ्या को तोड़ती है कि चीन एक ऐसी महाशक्ति बन सकता है जो सारी दुनिया को चलाएगा. उन का निष्कर्ष यह है कि चीन एक उभरती महाशक्ति जरूर है मगर एक कमजोर महाशक्ति. चीन के अपने अंतर्विरोध ऐसे हैं जो उस के नेतृत्व की स्थिरता के लिए चुनौती बन सकते हैं. ये हैं बूढ़ी होती आबादी, इंटरनैट का उदय, अर्थव्यवस्था का निजीकरण, शहरी अमीरों और ग्रामीण गरीबों के बीच की बढ़ती खाई, भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता का असंतोष, प्रदूषण जो अब जानलेवा बन गया है, बढ़ती बेरोजगारी. चीन के नेता देख रहे हैं कि आर्थिक सुधारों ने ऐसी सामाजिक शक्तियों को जन्म दिया है जो सरकार को पलट सकती हैं.

स्ट्रेटफोर ने चीन की अर्थव्यवस्था चरमराने के बारे में जो भविष्यवाणी की थी उस की व्याख्या करते हुए कहा था कि चीन का आर्थिक मौडल टिकाऊ नहीं है. मौडल अन्य चिंताओं के मुकाबले रोजगार की तरफ झुका है और इसे केवल थोड़े मार्जिन से चला कर मेंटेन किया जा सकता है. दूसरा, चीनी मौडल केवल तब तक ही संभव है जब तक पश्चिम के लोग बड़े पैमाने पर चीन के माल की खपत करते रहेंगे. केवल यूरोप की जनसांख्यिकी ही इसे अगले दशक में असंभव बना देगी. तीसरा, चीनी मौडल को सस्ता माल बनाने के लिए सस्ता श्रम और सस्ती पूंजी चाहिए. उस का मिलना अब मुश्किल है. अंत में अंदरूनी तनाव वर्तमान व्यवस्था को तोड़ देंगे. एक अरब से ज्यादा चीनी घरों में आज ऐसे लोग रहते हैं जिन की आय 2 हजार डौलर प्रति वर्ष से कम है. 60 करोड़ लोगों की आय 1 हजार डौलर प्रति वर्ष से भी कम है. सरकार यह जानती है इसलिए अपने संसाधनों को अंदरूनी क्षेत्रों में ले जाना चाहती है जिस में ज्यादातर चीन बसता  है. लेकिन ये हिस्से जनसंख्या की दृष्टि से इतने सघन और गरीब हैं कि चीन के पास इन की समस्याओं को सुलझाने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं.

यही वजह है कि बाजार पर पैनी नजर रखने वाले कुछ दिग्गजों का कहना है कि बहुचर्चित, बहुप्रचारित चीनी चमत्कार असल में कागजी अजगर है. उन का तर्क है कि चीन ने माल, लग्जरी स्टोर और इन्फ्रास्ट्रक्चर बना कर अपनी अर्थव्यवस्था का बहुत खतरनाक तरीके से चुंधिया देने वाला दिखावा करने की कोशिश की जबकि उन की कोई मांग नहीं थी और सारी व्यवस्था ध्वस्त होने की तरफ बढ़ रही है. चीनी अर्थव्यवस्था के ढहने के अमेरिका पर गहरे प्रभाव होंगे. चीन की अमेरिकी कर्ज खरीदने की क्षमता सीमित हो जाएगी और चीनी शासन के अंदर अज्ञात राजनीतिक परिवर्तनों को बढ़ावा मिलेगा.

मंदी की मार

चीन के आंकड़ों में भारी विसंगतियां हैं, जैसे कारों की बिक्री की संख्या बढ़ रही है मगर गैसोलीन की खपत के आंकड़े स्थिर हैं. इस से पता चलता है चीनी आंकड़े गढ़ रहे हैं. उन का अनुमान है कि चीन की राज्य संचालित कंपनियां वृद्धि दर्शाने के लिए बड़े पैमाने पर कारें खरीद रही हैं और उन्हें विशाल पार्किंग स्थलों में खड़ा किए दे रही हैं. ऐसा ही एक और आंकड़ा है. चीन विश्व के सब से ज्यादा यानी 1.4 अरब टन सीमेंट की खपत करता है लेकिन हाल ही के वर्षों में उत्पादन की क्षमता को इतना बढ़ाचढ़ा कर दिखाया  गया है कि उस के पास 34 करोड़ टन की क्षमता अतिरिक्त है.

पिवोटल कैपिटल मैनेजमैंट की इस साल की रिपोर्ट के मुताबिक, यह अतिरिक्त क्षमता अमेरिका, भारत और जापान की मिलीजुली खपत से ज्यादा है. बाजार के इन विशेषज्ञों का दावा है कि ऐसा चीन की अर्थव्यवस्था के हर सैक्टर में हो रहा है. इस का मतलब है कि चीन के सामने सब से बड़ा संकट यह है कि वह बड़े पैमाने पर ऐसा माल और उत्पाद बना रहा है जिन को वह बेच नहीं पा रहा है. पिवोटल रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला गया है कि हमें विश्वास है कि चीन की मंदी वैसी ही निर्णायक घटना बन सकती है जैसी विश्व बाजार में अमेरिकी सब प्राइम और हाउसिंग बूम का खात्मा बनी थी. अल्फा वन पार्टनर्स के चीफ एग्जीक्यूटिव निकोलस सारकीज ने अपने लेख ‘डौंट बी टेकन इन बाय चाइनीज मिरेकल मिथ’ में टिप्पणी की है, ‘‘मैं 31 अक्तूबर, 2010 को खत्म हुए शंघाई वर्ल्ड एक्सपो की तुलना पूर्व सोवियत संघ द्वारा अपनी महानता के दिखावे से करने से रोक नहीं पाता. सोवियत संघ के मामले में ऐसी प्रदर्शनियां अपनी भव्यता से चुंधियाने की कोशिश थीं. इसी तरह आज चीनी विशेषज्ञ यह पूछ सकते हैं, यह महान प्रदर्शनी खत्म होने के बाद क्या?

‘‘चीन की यात्रा के दौरान प्रोफैसर  मिल्टन फ्रीडमैन ने कई बिल्डरों को नए रास्ते पर काम करते देखा. वे आधुनिक तकनीक के बजाय फावड़ों से जमीन खोद रहे थे. जब उन्होंने पूछा कि आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जा रहा तो उन्हें बताया गया, यह रोजगार कार्यक्रम कंस्ट्रक्शन उद्योग में रोजगार की उच्च दर को बनाए रखने का एक हिस्सा है. इस के पीछे तर्क यह था यदि मजदूर ट्रैक्टर या रोड बनाने के आधुनिक यंत्रों का इस्तेमाल करेंगे तो कम लोगों को रोजगार मिलेगा. इस तरह आज भी पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में चीन का कुछ हद तक आटोमेशन का स्तर कम है.’’ सारकीज के मतानुसार, अनार्थिक परियोजनाओं में पूंजी निवेश सब से ज्यादा चिंता का विषय है. फिक्स्ड एसेट निवेश इतना ज्यादा है कि बुनियादी ढांचा परियोजनाओं ने दिखावे के शहर, खाली पड़े शौपिंग मौल और ऐसी इमारतें बनाई हैं जिन में कोई नहीं रहता.

चीन की अर्थव्यवस्था का विस्तृत जायजा लेने के बाद वे टिप्पणी करते हैं कि चीनी चमत्कार की बातों पर मत जाइए, उस का तो अस्तित्व ही नहीं है.रैडिफ डौट काम की एक रिपोर्ट ‘इज चाइनाज इकोनौमी वेटिंग टू कोलैप्स’ में लिखा है कि क्या चीन कई गुना बड़ा लेहमैन है. लंदन के हैज फंड मैनेजर मि हेंड्री यही सोचते हैं. उन की पक्की राय है कि चीन का प्रौपर्टी का बुलबुला फूट रहा है. वे दा वा करते हैं कि चीन की सरकार विकास दिखाने के नाम पर गैरजरूरी निर्माण करा रही है.

चमत्कार का खोखलापन

अल जजीरा चैनल ने भी 2009 में चीन के एक प्रांत इनर मंगोलिया के ओरडोस  के बारे में एक रिपोर्ट ‘चाइनाज एम्पटी सिटी’ शीर्षक से प्रसारित की  थी. ओरडोस का यह शहर राज्य संचालित निर्माण परियोजना है जो विकास दर को प्राप्त करने में मदद करती है. इस नए बने शहर के बारे में आश्चर्यजनक बात यह है कि इस शहर में कोई रहता नहीं, वहां कोई स्थानीय अर्थव्यवस्था नहीं है, फिर भी हर अपार्टमैंट कौंप्लैक्स बिक चुका है. चीन ने 2005 में दुनिया का सब से बड़ा शौपिंग मौल डंगुआन में बनाया है लेकिन कुछ विदेशी फास्ट फूड कंपनियों को छोड़ दें तो यह शौपिंग मौल 99 फीसदी खाली पड़ा है. पिछले 30 वर्षों  में चीन ने 8 फीसदी की विकास दर को बनाए रखा. दुनिया में ऐसा करिश्मा पहले कभी नहीं हुआ. 2008 के ओलिंपिक को दुनिया ने चीन की अंदरूनी शक्ति के प्रदर्शन के रूप में देखा और यह मान लिया कि चीन 21वीं सदी की महाशक्ति है. लेकिन उस के बाद से चीन की अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी. 

भारत में वरिष्ठ पत्रकार और चीन पर कई पुस्तकें लिखने वाले प्रेमशंकर झा अपनी पुस्तक  ‘मैनेज्ड केओस : द फ्रजिलिटी औफ द चाइनीज मिरेकल’ में चीन के चमत्कार के अंतर्विरोधों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘‘मसलन चीन एक ही समय विश्व की सब से ज्यादा अधिनायकवादी ?और सब से ज्यादा वैश्विक स्तर पर इंटरकनैक्टेड अर्थव्यवस्था है. उस की प्रति व्यक्ति आय पिछले 30 वर्षों में 11 गुना बढ़ी है और उस ने 40 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है लेकिन यह तेजी से बढ़ते असंतोष को नहीं रोक पाया जो सरकार के खिलाफ संकल्पित विपक्ष के तौर पर अपने को प्रकट कर रहा है. चीन की विकास दर पिछले 30 वर्षों में लगभग 10 फीसदी रही है. विश्व में यह सर्वोच्च है. उस के बढ़ते निर्यात और बढ़ता व्यापार लाभ उस के उत्पादन की उच्चस्तरीय कुशलता को ही दर्शाते हैं, फिर वह उत्पादों के प्रति डौलर के लिए भारत की तुलना में 2.2 गुना ऊर्जा और तीन गुना कच्चा माल क्यों खर्च कर रहा है. संक्षेप में, अकुशलता और चरम प्रतियोगितात्मकता दोनों का सहअस्तित्व कैसे बना हुआ है.’’

चीनी चमत्कार के इस  खोखलेपन ने चीन को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर प्रभावित किया है.  चीन के पास 2 ट्रिलियन डौलर का विदेशी मुद्रा भंडार है. मगर वह गरीबों और अमीरों के बीच बहुत बड़ी विषमता का शिकार है. केवल 0.4 प्रतिशत लोगों के पास देश की 70 प्रतिशत संपदा है. 20 प्रतिशत आबादी यानी 30 करोड़ चीनियों की रोजाना की आमदनी एक डौलर से भी कम है. संपत्ति का यह चरम केंद्रीकरण चीनी सरकार के लिए गंभीर समस्या बन गया है और सत्ता पर उस की पकड़ को चुनौती दे रहा है.

बड़ी चुनौतियां

इस का मतलब यह है कि घरेलू बाजार को टिकाऊ बनाने के लिए कम उपभोक्ता हैं. इसलिए विश्व का यह वर्कशौप अपने भविष्य के लिए विशेषरूप से विश्व अर्थव्यवस्था पर निर्भर है. अब चीन का निर्यात चरमरा रहा है और उस के साथ उद्योग भी. सरकार दावा करती है कि शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी 4 प्रतिशत है लेकिन सरकारी आंकड़ों पर विश्वास नहीं किया जा सकता.बढ़ती बेरोजगारी और स्थिर वेतन देश के सुपर अमीरों के खिलाफ असंतोष को बढ़ाएंगे और शासक वर्ग के लिए खतरा बन जाएंगे. चीन की सरकार चुनी हुई नहीं है, उस की नीतियां नौकरशाह और पूंजीपतियों द्वारा संचालित की जाती हैं. वह आम चीनी के हित में काम करने के बजाय शासक और अभिजात वर्ग को बचाने की कोशिश कर रही है. इन बड़े उद्योगों के मालिक अपनी संपत्ति को सुरक्षित तरीके से बाहर दूसरे देशों में ले जा रहे हैं. इस के सुबूत लौस एंजिलिस से ले कर जेनेवा तक देखे जा सकते हैं. चीन के सुपर अमीर तेजी से नकदी दे कर संपत्ति खरीद रहे हैं. बेरोजगारी के कारण जैसेजैसे चीनी सामाजिक ढांचा हिलेगा, उथलपुथल होगी, वैसेवैसे चीन से ज्यादा से ज्यादा पूंजी का पलायन होगा. इस से एक दुश्चक्र पैदा होगा.

चीनी सरकार एक भयंकर दुविधा में फंस गई है. वह या तो आम चीनी की मदद कर सकती है या नौकरशाह, पूंजीपति वर्ग की, मगर दोनों की मदद एकसाथ नहीं कर सकती. चीन सरकार आम आदमी की मदद नहीं करती तो चीनी लोग विद्र्रोह करेंगे और सरकार का तख्ता पलट देंगे. बढ़ते असंतोष में चीन का इतिहास अपने को दोहरा रहा है. हिंसा की लहर हर राजवंश को खत्म करती रही है. इस में सैनिक दमन काम नहीं करने वाला. सैनिक उन किसानों और मजदूरों के भाई हैं जिन का रोजगार छिन गया है. सैनिक अफसरों के परिवार भी आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं.

सरकार के खिलाफ असंतोष

वहीं, यदि चीनी सरकार आम चीनी के पक्ष में काम करती है तो बड़े उद्योगपतियों और नौकरशाहों का शासक वर्ग उसे पलट देगा. समय तय नहीं मगर उस का अंत निश्चित है. चीन से आ रही खबरों से यह स्पष्ट है कि चीनी सरकार के खिलाफ जन असंतोष तेजी से बढ़ रहा है. चीन की एक और कमजोरी है, विद्रोही राष्ट्रीयताएं. चीन हमेशा एक साम्राज्यवादी देश रहा है. साम्यवादी चीन ने इस परंपरा को जारी रखा. 1949 में माओवादी क्रांति के बाद चीन ने उसी वर्ष सीक्यांग पर कब्जा कर लिया और 1950 में तिब्बत पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया. इन दोनों के अलावा इनर मंगोलिया एक ऐसा क्षेत्र है जिस के लोग अपने को चीन का हिस्सा मानने को तैयार नहीं हैं. यों तो चीन में सरकारी तौर पर  55 राष्ट्रीयताएं हैं लेकिन उन की आबादी 10 प्रतिशत ही है और वे चीन के सीमावर्ती इलाकों में बसी हुई हैं. मगर देश की 60 प्रतिशत जमीन इन  विद्रोही राष्ट्रीयताओं की है. चीन के कारागार में 60 वर्ष तक रहने के बावजूद इन राष्ट्रीयताओं की आजादी की भावना खत्म नहीं हुई है. यही कारण है कि तिब्बत और उईगर में अकसर विद्रोही स्वर सुनाई देते हैं. जब भी चीन में कोई बड़ा संकट आएगा, ये राष्ट्रीयताएं अपने को मुक्त करने की कोशिश कर सकती हैं. सोवियत संघ के उदाहरण ने उन्हें उम्मीद बंधाई है कि कभी वे भी आजाद हो सकती हैं. कभी चीन का भी वही हश्र हो सकता है जो सोवियत संघ का हुआ है.

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