भाजपा सहित सभी हिंदू संगठन इस से आहत हैं कि यह पोल भी क्यों खोली जा रही है. यशराज फिल्म्स निर्मित व सिद्धार्थ पी मल्होत्रा निर्देशित इस फिल्म को पुष्टिधर्म संप्रदाय, बजरंग दल, हिंदू महासभा व प्रज्ञा ठाकुर की तरफ से गुजरात हाईकोर्ट में घसीटा गया. हिंदू धर्म व सनातन धर्म के प्रति लोगों को नया मुद्दा लडऩेझगडऩे को देने के लिए बजरंग दल, भाजपा और हिंदू महासभा संगठनों से जुड़े लोगों ने मुंबई के बीकेसी में स्थित ‘नेटफ्लिक्स’ के दफ्तर पर हमला बोला था. यह तब है जब आसाराम बापू व उन के बेटे के अलावा ‘डेरा सौदा’ के गुरमीत राम रहीम को उन के औरतों से कुकर्मो के कारण जेल भेजा जा चुका है. फिल्म ‘महाराज’ का विरोध करने के लिए अदालत जाने की जरूरत क्यों महसूस हुई जबकि सौरभ शह की किताब ‘महाराज’ को पुरस्कृत भी किया गया था. इस तरह का विरोध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना है. यह 1952 के सिनेमेटोग्राफी एक्ट को खत्म करने की शुरुआत तो नहीं है?

19वीं सदी में जब भारत पर ब्रिटिश शासन था, उसी दौर में ‘महाराज लाइबेल केस’ घटित हुआ था. 5 अप्रैल, 1862 को बौम्बे सुप्रीम कोर्ट (वर्तमान में मुंबई हाईकोर्ट’) ने उस वक्त मुंबई में वैष्णव संप्रदाय की बड़ी हवेली/मंदिर के मुख्य पुजारी यदुनाथ ब्रजरतन महाराज द्वारा पत्रकार व समाज सुधारक करसनदास मूलजी के खिलाफ दायर 50 हजार रुपए के मानहानि केस पर फैसला सुनाते हुए करसनदास मूलजी के पक्ष में फैसला दिया था.

क्या है ‘महाराज लाइबेल केस 1862’

वैष्णव पुष्टिमार्ग की स्थापना 16वीं शताब्दी में वल्लभाचार्य द्वारा की गई थी और यह कृष्ण को सर्वोच्च मान कर पूजा करता है. संप्रदाय का नेतृत्व वल्लभ के प्रत्यक्ष पुरुष वंशजों के पास रहा, जिन के पास महाराजा की उपाधियां थीं. धार्मिक रूप से वल्लभ और उन के वंशजों को कृष्ण की कृपा के लिए मध्यस्थ व्यक्ति के रूप में आंशिक देवत्व प्रदान किया गया है और कहा गया कि ये महाराज भक्त को तुरंत कृष्ण की उपस्थिति प्रदान करने में सक्षम हैं. 19वीं सदी में महाराज यदुनाथ ब्रजरतन महाराजजी ने अपने तरीके से वैष्णव पुष्टि मार्ग संप्रदाय का न सिर्फ प्रचार किया, बल्कि बड़ी हवेली/मंदिर के लिए अटूट धन जमा कर मंदिर के सभी पुजारियों का महत्त्व खत्म कर खुद ही निरंकुश शासक की तरह काम करने लगे.

महाराज यदुनाथ ब्रजरतन महाराज ने भगवान कृष्ण की स्तुति वाले एक भजन की कुछ पंक्तियों का भावार्थ अपने तरीके से धर्म के अंधभक्तों व धर्मावलंबियों को समझाया कि मोक्ष पाने के लिए हर नारी को अपना तन स्वेच्छा से महाराज को समर्पित करना चाहिए और उन्होंने महाराज के ‘चरण सेवा’ नाम से प्रथा की शुरुआत की.

इस प्रथा के तहत संप्रदाय से जुड़ी हर अविवाहित को विवाह करने से पहले महाराज यदुनाथ की चरण पादुकाओं को निकाल कर उन के साथ यौन संबंध बनाना होता है. यदुनाथ ब्रजरतन महाराज ने तो हर पुरूष को यही सिखाया कि उन्हें अपनी पत्नियों को भी ‘चरण सेवा’ के लिए भेजना चाहिए. ‘चरण सेवा’ मंदिर के पीछे हवेली के बड़े हौल में होती थी. इस प्रथा का आनंद लेने के लिए कोई भी पुरुष एक मोटी रकम या सोने का जेवर चढ़ावा में दे कर हवेली में बनी खिड़कियों से चुपचाप ‘चरण सेवा’ प्रथा का नयन सुख ले सकता था. इसे वर्तमान परिस्थिति में आप ‘पोर्न फिल्म’ देखने की संज्ञा दे सकते हैं.

फिल्म की कहानी

कहानी के अनुसार गुजरात के कच्छ गांव में जन्मे करसनदास मूलजी बचपन से ही ‘महिलाएं घूंघट क्यों ओढ़ती हैं?’ या ‘क्या देवता उन की भाषा बोल सकते हैं?’ जैसे सवाल पूछना शुरू करता है. करसन की मां की मौत के बाद उस के पिता करसनदास को बौम्बे (वर्तमान मुंबई) में उस के मामा और विधवा मौसी (स्नेहा देसाई) के पास छोड़ जाते हैं. जहां पढ़लिख कर करसनदास पत्रकार के रूप में दादाभाई नौरोजी (सुनील गुप्ता) जैसे प्रगतिशील पुरुषों के साथ काम करते हुए दादाभाई नौरोजी के अखबार में समाज सुधारक लेख लिखते हैं.

मसलन, वे अपने लेख में विधवा विवाह की वकालत करते हैं. करसनदास मूलजी स्वयं वैष्णव संप्रदाय से हैं. वे धार्मिक व्यक्ति होते हुए भी अंधविश्वास में विश्वास नहीं करते हैं. करसन की सगाई किशोरी (शालिनी पांडे) से होती है. वे किशोरी की पढ़ाई पूरी होने पर उस से शादी करने वाले हैं. किशोरी यदुनाथजी ब्रजरातन महाराज (जयदीप अहलावत) की भक्त है. होली के त्योहार वाले दिन यदुनाथ ब्रजरातन महाराज जी, भगवान कृष्ण को रंग लगाने के बाद होली खेलने का ऐलान करते हैं. उस के बाद वे किशोरी को ‘चरण सेवा’ समारोह के लिए चुनते हैं.

करसनदास हवेली के अंदर किशोरी को यदुनाथ ब्रजरतन महाराज के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देख कर हर बाधा को पार कर यदुनाथ व किशोरी तक पहुंच जाता है. मगर उस वक्त किशोरी, जिसे मोक्ष मिलने की आशा है, यदुनाथ के साथ यौन संबंध बनाए बिना करसन के साथ चलने से इनकार कर देती है. यदुनाथ कहते हैं कि वे किसी भी लडक़ी के साथ जबरन कुछ नहीं करते. यदुनाथ, कृष्ण भजन की पंक्ति व गीता के एक श्लोक को संस्कृत में पढ़ कर हिंदी में उस की मनमानी ढंग से व्याख्या करते हुए कहते हैं कि मोक्ष पाने के लिए भगवान को तनमनधन सबकुछ समर्पित करना होता है. तन का समर्पण ही ‘चरण सेवा’ है.

करसन, किशोरी संग विवाह करने से इनकार करने के साथ ही ‘चरण सेवा’ प्रथा पर भी सवाल उठाता है. करसनदास की राय में यह तो नारी का शोषण है. फिर ‘चरण सेवा’ और यदुनाथ ब्रजरतन महाराज के कुकर्म के खिलाफ आवाज उठाने का निर्णय लेता है. यदुनाथ महाराज की ‘चरण सेवा’ के खिलाफ करसन लेख लिखता है, पर दादाभाई नौरोजी अपने अखबार में छापने से मना कर देते हैं. उन की राय में वे ‘बड़ी हवेली’ के पुजारी यदुनाथ के खिलाफ कुछ भी नहीं छापेंगे. तब करसन गुजराती भाषा में ही अपना अखबार ‘सत्य प्रकाश’ निकाल कर उस में पुजारी यदुनाथ ब्रजरतन व ‘चरण सेवा’ प्रथा के विरोध में लगातार लेख छापना शुरू करता है.

करसन अपनी तरफ से समाज को शिक्षित करने की कोशिश करता है, लेकिन उस के समुदाय के लोग महाराज को अपने परिवार की महिलाओं के साथ शारीरिक संबंध बनाने में कोई बुराई देखने के बजाय उस दिन घर पर खुशी में मिठाई बनाते हैं. इधर यदुनाथ दबाव बनाते हैं, जिस के चलते करसन के पिता भी उसे त्याग देते हैं. सभी दबाव असफल होने के बाद यदुनाथ ब्रजरतन महाराज, अदालत में करसन के खिलाफ 50 हजार रुपए का मानहानि का मुकदमा करते हैं. अदालत में करसन दास को पराजित करने के लिए यदुनाथ ब्रजरतन महाराज ने महिलाओं से कुछ दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कराने से ले कर उन्हें अपनी आलोचना करने से रोका. यह बात अदालत के अंदर उजागर होती है. अदालत के अंदर वादी ने 31 गवाह पेश किए, जबकि प्रतिवादी ने 33 गवाह पेश किए. बौम्बे सुप्रीम कोर्ट 5 अप्रैल, 1862 को करसन दास मूलजी के पक्ष में निर्णय देते हुए यदुनाथ ब्रजरतन महाराज पर क्रिमिनल केस करने की बात कही.

पहले 14 जून को फिल्म प्रदर्शित होने वाली थी

यशराज फिल्मस निर्मित व सिद्धार्थ पी मल्होत्रा निर्देषशित फिल्म ‘महाराज’ को नेटफ्लिक्स 14 जून से अपने प्लेटफौर्म पर बिना किसी प्रमोशन व शोरगुल के चुपचाप स्ट्रीम करने वाला था. 13 जून को यशराज फिल्मस ने अंधेरी, मुंबई स्थित अपने स्टूडियो में ही पत्रकारों को बुला कर फिल्म ‘महाराज’ दिखाई. यहां मुंबई में पत्रकार इस फिल्म को देख रहे थे, उसी वक्त गुजरात और राजस्थान में मजबूत जड़ें रखने वाले हिंदू वैष्णव समुदाय, पुष्टिमार्ग संप्रदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का आरोप लगाते हुए गुजरात हाईकोर्ट में फिल्म को बैन करने की गुहार लगाई और अदालत ने फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी.

फिल्म देख चुके पत्रकारों को आश्चर्य हुआ कि फिल्म के प्रदर्शन पर रोक क्यों लगाई गई. इन सभी को तो फिल्म में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा था. हंसी इस बात पर आ रही थी कि सौरभ शाह की जिस पुस्तक ‘महाराज’ को 2013 में पुरस्कृत किया गया, उसी पर बनी फिल्म का विरोध हो रहा है. उधर विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल ने भी फिल्म को रोकने के लिए आंदोलन शुरू कर दिया. 13 जून को ही गुजरात के साथ मुंबई की अदालत में भी मुकदमे चले और दोनों जगह इस फिल्म पर रोक लगा दी गई थी.
गुजरात हाईकोर्ट ने 18 जून को फिर सुनवाई करने का आदेश दिया था. यशराज फिल्मस और नेटफ्लिक्स ने अपना पक्ष रखने के लिए मुकुल रोहतगी सहित 26 एडवोकेट की एक फौज खड़ी कर दी. आखिरकार, गुजरात हाईकोर्ट की न्यायाधीष ने 21 जून को फिल्म में कुछ भी अपत्तिजनक न होने की बात कह इसे प्रदर्शित करने का आदेश सुना दिया.

अदालत में सुनवाई के दौरान क्याक्या हुआ?

नेटफ्लिक्स और यशराज फिल्मस की तरफ से पक्ष रखते हुए वरिष्ट वकील मुकुल रोहतगी ने अदालत से कहा है कि हम इतिहास को बदल नहीं सकते, फिर चाहे वह किसी को पसंद आए या न आए.

याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि ब्रिटिश काल की अदालत ने मानहानि मामले का फैसला किया था और हिंदू धर्म की निंदा की थी. उस फैसले में भगवान श्रीकृष्ण के साथसाथ भक्ति गीतों और भजनों के खिलाफ भी गंभीर निंदनीय टिप्पणी की गई थी लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह सब ब्रिटिशकाल में हुआ था.

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने कहा कि ‘‘याचिकाकर्ता की मांग बिलकुल बेतुकी है.” उन्होंने कहा, “फिल्म को बैन करने और इस के सैंसरशिप सर्टिफिकेट को रद्द करने की याचिकाकर्ताओं की दोनों मांग बेतुकी हैं. याचिकाकर्ता को तो यह भी नहीं पता कि यह फिल्म ओटीटी पर स्ट्रीम होगी, जिस के लिए सैंसर प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं होती. इस याचिका की कार्रवाई पूरी तरह से मनगढ़ंत और आर्टिफिशियल है.”

मुकुल रोहतगी ने आगे कहा, “याचिकाकर्ताओं में से एक अहमदाबाद के बिजनैसमैन हैं. उन्होंने उस किताब के खिलाफ तो कभी कोई कदम नहीं उठाया, जिस पर यह फिल्म आधारित है. या फिर इंटरनैट पर इस विषय पर ढेर सारे कंटैंट हैं, लेकिन उन्होंने वहां भी विरोध में कोई कदम नहीं उठाया. फिल्म बनाना, उस का निर्माण करना या उसे एक स्टेज पर दुनिया के सामने रखना कोई छोटी बात नहीं है. इस में बहुत सारा पैसा और मेहनत लगती है.’’

वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने तर्क देते हुए आगे कहा, ‘‘1862 के मानहानि केस में अदालत ने जो भी फैसला लिया था, वह कानूनी इतिहास है. फिल्म इसी पर आधारित है. अब चाहे हमें वह फैसला पसंद हो या न हो, हम कानूनी इतिहास को मिटा तो नहीं सकते. याचिकाकर्ता को फैसले में इस्तेमाल की गई भाषा पर आपत्ति है पर इस तर्क के लिए आप फिल्म पर तो रोक नहीं लगा सकते. ब्रिटिशकाल में भगत सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानी को फांसी दी गई. यह भी अदालत का फैसला था. जाहिर तौर पर हमें यह पसंद नहीं है लेकिन यह इतिहास का हिस्सा है.’’

‘बैंडिट क्वीन’ पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का दिया हवाला

मुकुल रोहतगी ने जिरह के दौरान बैंडिट क्वीन फिल्म का भी हवाला दिया. उन्होंने अदालत से कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म में विवादास्पद दृश्यों के बावजूद कलात्मक स्वतंत्रता को बरकरार रखा था. सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में समाज की वास्तविकता को सिनेमा के माध्यम से दिखाने के तर्क को भी स्वीकार किया था.

धार्मिक भावनाओं के आहत होने का आरोप

याचिकाकर्ताओं की ओर से कहा गया कि यदि फिल्म को प्रदर्शित करने की अनुमति दी जाती है तो धार्मिक भावनाएं गंभीर रूप से आहत होंगी. इस से संप्रदाय विशेष के अनुयायियों के खिलाफ हिंसा भडक़ने की संभावना है. मगर सच यह है कि फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है.

फिल्म में नारीशोषण के विरोध के साथ धर्म का महिमामंडन

हकीकत में फिल्म ‘महाराज’ देखने पर एहसास होता है कि यह फिल्म इतिहास के एक पन्ने को उठाते हुए जहां ‘चरण सेवा’ जैसी कुप्रथा का विरोध कर नारी शोषण के खिलाफ बात जरूर करती है, वहीं यह फिल्म हिंदू व सनातन धर्म का महिमामंडन भी करती है. जब करसनदास मूलजी, यदुनाथ ब्रजरतन महाराज के कुकर्मों के बारे में अपने गुजराती अखबार ‘सत्य प्रकाश’ में लेख छापते हैं तो धर्मावलंबियों को गुस्सा दिलाने व उन्हें करसनदास के खिलाफ भडक़ाने के लिए यदुनाथ ब्रजरतन महाराज मंदिर के दरवाजे बंद करा देते हैं क्योंकि उन दिनों हजारों लोग सुबह भगवान कृष्ण की आरती का हिस्सा बनने व कृष्ण के दर्शन करने के बाद ही कुछ खातेपीते थे. तब करसनदास मूलजी ने मंदिर के सामने मौजूद पेड़ के नीचे भगवान कृष्ण की बड़ी तसवीर रख कर उस की आरती कर लोगों से प्रसाद ग्रहण कर खाने के लिए कहता है. अब यहां भगवान का अपमान कहां है? यह तो हिंदू धर्म व कृष्ण भगवान का महिमामंडन ही है. शायद इतनी हिम्मत यशराज फिल्म्स के निर्माताओं की नहीं है कि वे पूरे तौर पर हिंदू या किसी धर्म की भूल-गलतियों की ओर जनता का ध्यान खींच सकें. ‘सरिता’ ने स्वयं 1945 से ही इस तरह के मुकदमों को झेला है जिन में कभीकभार कट्टरपंथी जजों ने कड़ा रुख अपनाया पर अपीलों में हर बात साबित हो गई.

हिंदू धर्म की आड़ में यौनशोषण बंद कहां?

धार्मिक व आध्यात्मिक गुरुओं पर यौनशोषण के गंभीर आरोपों को कभी भी माफ नहीं किया जा सकता. फिल्म में तो 19वीं सदी की सत्य घटना का चित्रण है जबकि यह सब 21वीं सदी में भी लगातार जारी है. आसाराम बापू व उन के बेटे भी धर्म की आड़ में नारियों का यौनशोषण व हत्याओं के मामले में ही जेल के अंदर हैं. तो वहीं ‘डेरा सौदा’ के गुरमीत राम रहीम सिंह भी धर्म की आड़ में अपने कुकर्मों के चलते जेल के अंदर हैं.

कुछ समय पहले फिल्मकार प्रकाश झा धर्मगुरुओं के कुकर्मों की पोल खोलने वाली वैब सीरीज ‘आश्रम’ और ‘आश्रम 2’ भी ला चुके हैं. नेटफ्लिक्स या यशराज फिल्मस को भी ‘महाराज’ में करसनदास मूलजी का किरदार निभा कर अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत कर रहे परफैक्शनिस्ट अभिनेता के रूप मे मशहूर आमिर खान के बेटे जुनैद खान जिस तरह से हिंदू राष्ट्रवादियों के निशाने पर आए, उस से जुनैद खान के कैरियर को नुकसान जरूर हुआ है.

वे पहले से ही भाईभतीजावाद का आरोप झेलते आए हैं. यों भी जुनैद खान अभी अति नौसिखिया अभिनेता हैं. उन्होंने अपने कैरियर की पहली फिल्म में ही इस चुनौतीपूर्ण किरदार को निभाना स्वीकार कर हिम्मती काम किया.

सोशल मीडिया ट्रोलिंग बनाम बौलीवुड

‘महाराज’ को ले कर बहुसंख्यक समुदाय के चंद लोगों ने जिस तरह सोशल मीडिया पर फिल्म ‘महाराज’ की ट्रोलिंग की, उसे प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि भगवा समर्थक बौलीवुड के खिलाफ नाराजगी पिछले एक दशक में कुछ ज्यादा बढ़ी है.

इस के लिए एक तरफ पिछले 10 वर्षों से देश की सरकार का रवैया जिम्मेदार है, तो वहीं कुछ फिल्मकार व उन के प्रचारक भी जिम्मेदार हैं. हर फिल्मप्रचारक अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह सही ढंग से करने के बजाय जबरन फिल्म को ले कर हिंदूमुसलिम कंट्र्रोवर्सी खड़ा करता रहता है जबकि अब तक कंट्र्रोवर्सी से किसी भी फिल्म को फायदा नहीं हुआ है.

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