एयरफोर्स में फाइटर पायलट रहे पिता के बेटे अनुज शर्मा अपनी अदाकारी से अभिनय की दुनिया में अपनी एक अलग पहचान स्थापित कर चुके हैं. मूलतः सोनीपत, हरियाणा निवासी अनुज शर्मा को ‘स्टेट आफ सीज 26/11’, ‘स्पेशल ऑप्स’, ‘अनदेखी’,‘जौनपुर’ सहित कई वेब सीरीज में काफी पसंद किया गया. तो वहीं वह फिल्मकार संजय लीला भंसाली के साथ ‘पद्मावत’ के बाद ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ में भी अभिनय कर अपना दमखम दिखा चुके हैं.फिलहाल वह जल्द प्रदर्शित होने वाली अपनी फिल्मों ‘चिड़िया’, ‘कर्मसूत्र’ व ‘आजमग-सजय़’ को लेकर चर्चा में हैं. इनमें से फिल्म ‘चिड़िया’ में अनुज शर्मा सोलो हीरो हैं.जबकि ‘आजमगढ़’ में उनके साथ पंकज त्रिपाठी हैं.

प्रस्तुत है अनुज शर्मा से हुई बातचीत के अंश..

आपके पिता एयरफोर्स में फाइटर पायलट थे.पर आपने एयरफोर्स में जाने की बजाय अभिनय का क्षेत्र चुना?

आपने एकदम सही कहा.मेरे पिता ओम प्रकाश शर्मा एयरफोर्स में फाइटर पायलट थे.उन्होंने 1971 का युद्ध लड़ा था.मेरी मां सुषीला शर्मा हिंदी की शिक्षक रही हैं.मेरे दादा राजनीति में थे. बड़े भाई वगैरह होटल व्यवसाय से जुड़े हुए हैं. मैं पढ़ाई में कभी बहुत ज्यादा तेज नहीं रहा. लेकिन बचपन से मुझे लोगों की जीवनियां पढ़ने का शौक रहा है.मेरे आदर्श अब्राहम लिंकन रहे हैं.मेरे पिता ने बहुत सही उम्र में मुझे अब्दुल कलाम की एक किताब ‘‘विंग्स आफ फायर’ पढ़ने को दी थी.इसकी पहली लाइन थी- ‘‘सपने हमेशा बड़े देखो. सपने सच होते हैं.’’ इस पंक्ति से मैं काफी प्रभावित हुआ और मैंने सोच लिया था कि जिंदगी में जब भी बनना है,बड़ा ही बनना है, छोटा नहीं. पहले मेरी इच्छा पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए एयरफोर्स में जाने की थी, जिसके लिए मैंने प्रयास भी किए.लेकिन सफलता नहीं मिली. तब मैं दिल्ली के हिंदू कालेज में पढ़ाई करने पहुंच गया, क्योंकि पिता ने कहा कि पहले स्नातक तक की पढ़ाई पूरी करो, उसके बाद जो मर्जी हो, वह करना. मैं फिलोसफी/ दर्शन शास्त्र में गोल्ड मैडलिस्ट हॅूं. मैंने मास्टर की डिग्री हासिल की है. उन दिनों कालेज में थिएटर हुआ करते थे.तो मैं थिएटर करने लगा. इसी के चलते मेरे अंदर भी फिल्मों से जुड़ने का सपना जागा.इसलिए फिल्मों में हीरो बनने के लिए मैं एक दिन मुंबई पहुंच गया. दूसरी बात उन्ही दिनों दिल्ली में एक फिल्म की शूटिंग चल रही थी. मैं शूटिंग देखने पहुंचा ,तो देखा कि सेट पर हीरो के आते ही एक मेकअप मैन, हेयर ड्रेसर के साथ ही छाता लिए एक इसांन आ गया. मुझे समझ में आया कि इतने मजे तो कलाकार के अलावा कोई नहीं कर सकता. उपर से सभी कलाकार को ‘सर’ बोलते हैं. इसलिए मन में आया कि काम वहीं करना, जहां सभी लोग ‘सर’ कहें.तब मैंने अभिनेता बनने के बारे में सोचना शुरू किया और पता चला कि मंडी हाउस ऐसी जगह जहां कलाकार बनने के लिए जाना पड़ेगा.पर मंडी हाउस में सब कुछ आसान नही था.

उपर से हरियाणवी होने के चलते मेरी हिंदी भाषा के उच्चारण में दो-ुनवजया था. मेरे उपर अभिनय का ऐसा नषा सवार हुआ कि मुंबई आ ही गया.

अभिनय की बारीकियां कहीं सेतो सीखी होंगी?

मैं कुछ समय तक ‘एक्ट वन’ में रहा. लंबे समय के लिए विश्व प्रसिद्ध थिएटर कलाकार केदार शर्मा के साथ रहा. लेकिन अभिनय में मेरा कोई गुरू नही है. मेरा अपने अंदर के अभिनय को तराशने का अलग तरीका रहा.

मतलब…?

-अभिनय के असली वर्कशॉप के लिए मैंने अपने जीवन में एक सप्ताह की यात्रा की है. इस यात्रा के लिए मैं अपने घर सोनीपत, हरियाणा से बिना टिकट व बिना किसी धन राशि के निकला. मैंने मान लिया था कि इसी एक सप्ताह के अंदर मेरे अभिनय की सही मायनो में वर्कशॉप होनी है. मैं इस एक सप्ताह कैसे रहूंगा..क्या खाउंगा…..यह सब मुझे अभिनय करना है. इस वर्कशॉप के बाद मैंने अभिनय कहीं से नही सीखा.मै सोनीपत से दिल्ली होता हुआ कश्मीर तक ट्रेन व सड़क मार्ग से ट्रेन, ट्क, बैलगाड़ी व पैदल गया. लोगों के घरों में रहा और मस्त खाया पिया. मुझे कहीं तकलीफ नहीं हुई. जबकि मेरी जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं थी. नौवे दिन अपने घर खुश होकर और बहुत जिंदगी जीकर आया था. मुझे लगा कि दुनिया में जीने के लिए पैसा जरुरी नही है. आपका साफ दिल व इमानदार होना अत्यावश्यक है. सच को -सजयंाकने की जरुरत नहीं है.मैं हर जगह सच बोलता रहा, लोगों को मेरे चेहरे से पता चलता रहा कि मैं सच बोल रहा हॅूं. मेरी इस नौ दिन की यात्रा के दोस्त आज भी मेरे दोस्त हैं, जो कि मनाली, हिमाचल में भी हैं.इस तरह मैने अपने अंदर अभिनय को एक्सप्लोर किया.

नौ दिन की यात्रा में किस तरह के लोगों से आपकी मुलाकात हुई थी और उससे आपके अंदर का अभिनय कैसे एक्सप्लोर हुआ था?

सबसे पहले जब मैं जम्मू एक्सप्रेस से जा रहा था, तो टिकट न होने के चलते टीसी ने मु-हजये पकड़ लिया था.मैने उससे साफ साफ कह दिया कि सर मेरे पास टिकट नहीं है.पहली परफार्मेंस वहां पर एक्सप्लोर हुई. मैंने उसे बताया कि मैं इस तरह की यात्रा पर निकला हूं. आप चाहें तो मुझे जाने दें या आप चाहे तो मुझे जेल भेज सकते हैं.यदि आप जुर्माना लगाते है, तो वह कैसे दे पाउंगा, मुझे नहीं पता. उस टीसी ने दूसरे टीसी से कहा कि यह जहां जना चाहे वहां वह मुझे छोड़ दे. उसने मुझे जम्मू उतारा. पैंट्री कार में खाना खिलाया.जम्मू में कुछ दूर पैदल चला.फिर बैल गाडी में चला. एक परिवार से बात हुई.उनसे जिंदगी पर चर्चा हुई. उस वक्त तक मैंने पढ़ाई काफी रखा था,तो लोग मुझे सुनने लगे थे. ईश्वर ने इतना साथ दिया कि नौ दिन में कहीं नहीं फंसा. सच के बल पर राह आसान बनती गयी. तो मैंने सीखा कि अभिनय करना है, तो हमेशा सच के साथ रहना. मेरे पिता ने मुझे एक बात कही थी कि, ‘तू अगर अनुज शर्मा को इमानदारी

से जी गया, तो दुनिया में किसी भी किरदार को जी जाएगा.’’ तो आपके पिता ने आपको अभिनय को कैरियर बनाने के लिए मुंबई आने के लिए कहा था?

-जी नहीं…जब मैंने अपने पिता से अपने मन की बात कही तो वही हुआ,जो अमूमन छोटे शहरों के परिवार में प्रतिक्रिया होती है. मेरे दादा जी या मेरे पिता जी ने यह नहीं कहा कि अभिनय में कैरियर मत बना. बल्कि उन्होंने पटवारी की मेरी सरकारी नौकरी लगवा दी थी. मैं उसे दो दिन में छोड़कर आ गया. तब उन्होंने दूसरी नौकरी ‘रीडर’ की लगवा दी.यह भी सरकारी नौकरी थी.इसे भी मैंने दो दिन में छोड़ दिया था.फिर एक ‘टैक्समैन’ कंपनी है, जहां कानून की किताबें छपती हैं.वहां मुझे इंटरव्यू देने के लिए भेजा गया.अब तक मेरी समझ में आ गया था कि मुझे अपने परिवार की मर्जी अनुसार ही चलना पड़ेगा. मुझे पर फैशन पसंद था. मुझमें लेटर टाइप करने की स्पीड नहीं थी.

पर मुझे लेटर डिजाइन करना आता था,वह करके मैंने दिया. जो कि उन्हें पसंद आया. पर उन्होंने कहा- ‘बेटा आपकी स्पीड नहीं है. चालिस शब्द पर मिनट चाहिए. ’मैने कहा कि मैं कोशिश करुंगा. उन दिनों घर पर कम्प्यूटर तो घर में नहीं थे.पर घर में लोहे वाली टाइपिंग मशीन थी. मैंने प्रैक्टिस शुरू की और दो दिन के अंदर मेरी स्पीड चालिस शब्द पर मिनट हो गयी थी. उन दिनों रात में मैं ‘जी सिनेमा’ पर फिल्म ‘सिलसिला’ देख रहा था. रात के साढ़े तीन बज चुके थे.उसमें अमिताभ बच्चन का एक सीन है,जिसमें वह कहते हैं- ‘तुम होती तो ऐसा होता,…’ बच्चन साहब की लाइनो से मेरे अंदर ख्याल आया कि ‘मैं एक्टर  होता,तो ऐसा होता..’तो सुबह सुबह चार बजे ही मैंने अपने पापा को उठाया कि मुझे बात करनी है. उन्होंने कह दिया कि सुबह होगी तो बात करुंगा.मैं नीचे उतर कर बैठ गया. सुबह पापा ने पूछा बताओ क्या हुआ..तो मैंने उनसे कहा कि मैं आज मरुंगा, तो मेरे पीछे मुश्किल से तीस चालिस लोग होंगे. कुछ परिवार के सदस्य,कुछ आपके आफिस के लोग या मोहल्ले के लोग. पर मुझे तो मेरे पीछे तीस चालिस हजार लोग चाहिए. इसके लिए या तो मैं खानदानी राजनीति का धंधा अपनाउं,जो मुझे पसंद नहीं अथवा अभिनेता बनूं.पर अभिनेता अच्छे होते हैं, तो मैं अच्छा अभिनेता बनना चाहता हॅूं. इसके बाद एक दिन मेरी स्टेज परफार्मेंस को मेरे पिता जी छिपकर देखने गए थे. जब मैं घर पहुंचा,तो उन्होंने कहा कि मैं अच्छा अभिनय करता हॅूं. फिर उन्होंने इजाजत दे दी और मैं अभिनेता बनने मुंबई आ गया. जब मैं मुंबई में अभिनय करने लगा, तो उन्हें गर्व का अहसास हुआ.

मगर मेरे दादा जी ने मुझसे कहा था कि ‘यह क्षेत्र तूने चुना है. तो इसके सुख व दुःख भी तूने ही चुने हैं. तू अपने दम पर जाना चाहता है तो जा सकता है. आप यकीन नही करेंगें मैं मुंबई आने के लिए खुद कमाकर पैसे जमा करके आया था.आज तक मैंने घर से एक भी पैसा नहीं लिया.

पिता व दादा से इजाजत मिलने के बाद किस तरह की योजना बनायी थी?

कोई योजना नहीं थी.सबसे पहले दिल्ली गया.वहां पर ‘इंडियाज मोस्ट वांटेड’ में अभिनय करने लगा था. दिल्ली में रहकर मैंने साठ सत्तर सीरियलों में अभिनय किया. ‘दिल्ली काशीर, ईटीवी, ईटीवी उत्तर प्रदेश सहित कई छोटे टीवी चैनलों के सीरियलों में अभिनय किया. दो साल तक अभिनय छोड़कर सोनीपत के अपने होटल पर बैठने लगा.होटल पर काम करते हुए अहसास हुआ कि मैं बिल बनाने के लिए पैदा नहीं हुआ. वहां पर हरियाणवी फिल्में बनती थी. तो मैंने छह लघु फिल्में निर्देशित कीं. इनमें से पहली फिल्म है-ंउचय‘हक बहन का’, जो कि हरियाणा की पहली सेंसर बोर्ड से पारित फिल्म है.फिर इससे भी मन भर गया. मुंबई में कोई जान पहचान नही थी. मेरी पत्नी उन दिनों मेरी गर्लफ्रेंड थी और मेरी जिंदगी का पहला वेलेनटाइन डे पर उसने मुझसे कहा कि मुझे वेलेनटाइन डे गिफ्ट के तौर पर आप मुंबई चले जाएं. तो मैं मुंबई आ गया. मेरी फिलौसफी कहती है कि आप इतनी बड़ी दुनिया में ईश्वर को बाय बोलकर धरती पर जन्म ले लेते हो, तो आप बिना किसी योजना के आते हैं.इसलिए किसी बात की योजना क्यों बनानी? चलते चलो,सब राह बन जाएगी.’’

आपकी पत्नी क्या करती हैं?

मेरी पत्नी डाक्टर यानी कि स्पीच थेरेपिस्ट हैं.उसने संगीत से एमए किया है. हमारे रिश्ते की शुरूआत कला के ही चलते हुई. बाद में उसने स्पीच थेरेपिस्ट की पढ़ाई की. फिर हमारी शादी हो गयी. हरियाणा में प्रेम विवाह करना आसान नहीं था. उनके परिवार में सभी वकालत के पेशे से जुड़े हुए हैं.कुछ जज भी हैं. मेरे साढू भाई भी जज हैं.मेरे ससुर क्रिमिनल लॉयर रहे हैं. मेरी सालियां भी वकील हैं.पर ईश्वर की कृपा से हमारी शादी हो गयी. मुंबई में संघर्ष बहुत हैं.हम दोनों के सपने थे. मुझे अभिनेता और उसे गायक बनना था. मुंबई आने पर उसने तीन वर्षों तक क्लीनिक चलाया.फिर हम कान्हा नामक बेटे के माता पिता बन गए.जिसके चलते उन्हें क्लीनिक छोड़ना पड़ा.दूसरा उसका त्याग रहा.उसने सिंगिंग के लिए संघर्ष नहीं किया. उसका मानना था कि घर के दोनों सदस्य संघर्ष करेंगे,तो घर कैसे चलेगा? मोरल सपोर्ट की जरुरत होती है.एक कलाकार के तौर पर संघर्ष कर घर पहुंचने पर टूट चुके होते हैं.उस वक्त मोरल सपोर्ट देने वाला कोई तो होना ही चाहिए.यहां हर दिन कामयाबी नही मिलती.हर दिन हम हताश ज्यादा होते हैं.पूरे माह में दो तीन दिन ही चेहरे पर मुस्कान आती है.

मुंबई पहुंचने के बाद आपका किस तरह का संघर्ष रहा?

संघर्ष नहीं रहा. मैं जैसे ही मुंबई आया मुझे एक माह के ही अंदर दिलीप कुमार साहब ने अपने सीरियल में अभिनय करने का अवसर दे दिया.मैं यह सोचकर आया था कि यदि एक माह के अंदर काम नहीं मिला, तो मुंबई में नहीं रूकूंगा. 29वें दिन मैं पश्चिम एक्सप्रेस पकड़कर अपने घर लौट गया.

सोनीपत पहुंचा कि तभी दिलीप कुमार के बंगले से फोन आया कि सायरा बानो जी मिलना चाहती हैं.मैं तीन बजे की वापसी की ट्रेन पकड़ कर मुंबई वापस आता हूं और दिलीप साहब के साथ सीरियल ‘स्त्री’ में पहला काम करता हूं.इसमें निगेटिव किरदार था. मां बाबा ने मुझे वापस बुलाया. फिर मुझे राम गोपाल वर्मा की फिल्म ‘‘गो’’ मिली. यहां आपकी प्रतिभा का आकलन आपकी उपलब्धियों से की जाती है. धीरे धीरे बाजार में खबर फैलने लग गयी कि अनुज शर्मा तो राम गोपाल वर्मा की फिल्म कर रहा है. फिर मेरे लिए काम मिलना आसान हो गया. मैंने ‘जस्सी जैसी कोई नहीं’,‘छोटी बहू’सहित कई सीरियलों में छोटे या बड़े किरदार भी निभाए.साल भर बाद मुझे लगा कि हम इन सब के लिए नहीं बने हैं.फिर फिल्मों के लिए कोशिश की. तो ‘लक बाय चांस’,एक चालिस की लास्ट लोकल’,तिग्मांशु धुलिया की ‘शागिर्द’, दिबाकर बनर्जी की फिल्म ‘एलएसडी’ सहित कई बड़ी फिल्मों में छोटे किरदार निभाए. इतना करते हुए समझ में आ चुका था कि मुझे काम करते रहना है. बड़ा काम तो किस्मत से ही मिलेगा.फिर ‘स्पेशल ऑप्स’ जैसी वेब सीरीज की. फिर अरबिंद बब्बल जी ने मुझे अपने सीरियल ‘माधुरी टॉकीज’ में मुख्य नगेटिव किरदार निभाने का अवसर दिया.फिर स्कॉटलेंड’,‘स्टेट आफ सीज 26/11’, ‘कारंटीनो’ सहित कई वेब सीरीज की. मुझे रानी मुखर्जी व उसके भाई राजा मुखर्जी निर्मित सीरियल ‘‘किसी की नजर न लगे’ में हीरो बनने का अवसर मिला था.मैंने सीरियल ‘सूर्यपुत्र कर्ण’ में विदुर का किरदार निभाया था.

2010 के आस पास आए सीरियल ‘‘क्राइम पेट्रोल’ से मु-हजये सर्वाधिक पहचान व सफलता मिली.वास्तव में ‘जस्सी जैसी कोई नही’ में सहायक निर्देशक रहे सतीश

शुक्ला ने मेरे अभिनय की तारीफ करते हुए कहा था कि जब वह स्वतंत्र निर्देशक

बनेंगे, तो मुझे काम देंगे. जैसे ही वह ‘क्राइम पेट्रोल’ के निर्देशक बने. उन्होंने मुझे इससे जोड़ लिया. इसके साथ मैं दस वर्षों तक जुड़ा रहा.इसे करने में मजा आया. इसके हर एपीसोड में मुझे एक नए किरदार को निभाने का अवसर मिलता रहा. फिर एक दिन इससे आगे बढ़ने के लिए मैने वेब सीरीज करनी षुरू की.

फिर ‘क्राइम पेट्रोल’ के ही निर्देशक सतीश शुक्ला ने विक्रम भट्ट की दो वेब सीरीज की, तो वहां भी मुझे याद किया. जब लॉक डाउन आया तो उन्होंने कहा कि मैं एक सीरीज निर्देशित कर रहा हॅूं और तू हीरो होगा. वह थी ‘जौनपुर’.

आपने संजय लीला भंसाली के साथ ‘‘पद्मावतके अलावा कई अन्य बड़े निर्देशकों के साथ काम किया.पर किसी ने आपको रिपीट क्यों नहीं किया?

सच कहॅूं तो आपको ऐसा किरदार मिला हो कि आपकी परफार्मेंस निर्देशक को आपकी बार बार याद दिला दे.पहले एक सीन देखकर निर्देशक कह देता था कि यह बंदा कमाल का है,इसे बुलाया जाए.अब ऐसा नहीं होता.अब लाॅबी बदल गयी हैं.तरीके बदल गए हैं.अब स्टार बन जाने के बाद भी संघर्ष खत्म नहीं होता.कुछ

निर्देशकों ने रिपीट किया. मैंने संजय लीला भंसाली के साथ ‘पद्मावत’ के बाद ‘गंगूबाई काठियवाड़ी’ की. मेरी राय में मसला छोटा या बड़े किरदार का है ही नहीं.संजय लीला भंसाली बहुत बड़े निर्देशक हैं.मैं उनसे चाहूं तो नही मिल सकता.लेकिन छोटा किरदार निभाकर मैं उन तक पहुंच गया.‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ की शूटिंग करने के बाद मैं संजय लीला भंसाली सर से कह कर आया था कि ‘सर, यह मेरा दूसरा ऑडीशन’ है.

पिछले चार पांच वर्षों के अंदर काफी कुछ बदला है.पर उससे पहले टीवी कलाकारों के साथ फिल्म वाले दूर रहना पसंद करते थे.बीच में आप टीवी पर काफी काम कर रहे थे.क्या उसका भी खामियाजा भुगतना पड़ा?

बिलकुल नही…पहली बात तो क्राइम पेट्रोल ऐसा रियालिस्टिक शो है,जिसे फिल्म वाले फिल्म नहीं मानते और टीवी वाले इसे टीवी शो नहीं मानते. यह शो हर घर में जरुर देखा जाता था. इस शो ने तो टीआरपी में ‘केबीसी’ को भी मात

दे दिया था.टीवी पर काम करने का तरीका और फिल्मों में काम करने का तरीका अलग है. मुझे टीवी,वेब सीरीज या फिल्म सहित हर माध्यम में अच्छा काम करते रहना चाहता हॅूं.मैं अपने घर से अभिनेता बनने निकला था.

1996 में निर्देशक की नजर से कलाकार चुने जाते थे.मगर माहौल बदला है.अब बीच में कास्टिंग डायरेक्टर आ गए हैं.इससे फर्क पड़ा है?

इससे फायदे भी हुए हैं.हर चीज को देखने का अपना नजरिया है.पहले जब निर्देशक या एसोसिएट निर्देशक कलाकार का चयन करता था,तब निर्देशक की अपनी एक लौबी थी.यह लौबी सिस्टम हर इंडस्ट्ी में है.हर इंसान पहले अपनी जान पहचान वाले को काम देता है. कास्टिंग डायरेक्टर को लेकर आप कह देते है कि उसकी यह लौबी है. तो मैं कहता हूं कि भाई उसकी लौबी के बनो. मेहनत करो.गलत कुछ नही है.पहले भी निर्देशक तक सभी नही पहुंच पाते थे और आज भी नहीं पहुॅच पाते थे.पर कास्टिंग डायरेक्टर से लोग आसानी से मिल सकते हैं.भारत में टीवी सीरियल के लोग कास्टिंग डायरेक्टर को महत्व

नही देते.कास्टिंग डायरेक्टर आपका ऑडीशन लेकर चैनल तक पहुंचा देता है और चैनल में बैठे नॉन क्रिएटिब लोग निर्णय लेते हैं.यानी कि भारत

में नॉन क्रिएटिब लोग ही क्रिएटिब धंधे को संभाल रहे हैं. यह शिकायत

नहीं सच्चाई है. तो टीवी में कास्टिंग डायरेक्टर की अहमियत ही नहीं है. सिनेमा में जरुर कास्टिंग डायरेक्टर की अहमियत समझी है, जो कि होना भी चाहिए. चैनल के क्रिएटिव की दखलंदाजी बढ़ाने के बाद टीवी के निर्देशकों की अहमियत कम हो गयी है.

हरियाणा को लेकर जो ईमेज है.उस माहौल से निकलकर अभिनेता बनना कितना आसान या कितना कठिन है?

मुझे लगता है कि अगर आपके पास शिद्दत, जज्बा हो, तो सोनीपत ही नहीं कहीं भी पैदा होकर आप कुछ भी बन सकते हो.जब एक किसान का बेटा अब्राहम लिंकन हो सकता है. मछुआरे परिवार का बेटा ए पी जे अब्दुल कलाम देश के राष्ट्रपति हो सकते है, तो कोई भी इंसान कुछ भीबन सकता है.जो लोग परवरिश या परिवार के हालात को दो वर्षो देते हैं,वह सब उनके बहाने हैं.मेरे आदर्श कलाम साहब और अब्राहम लिंकन हैं. मैं इन्हें सलाम करता हॅूं.इन लोगों के पास इनके सपने थे, जिन्हें इन लोगों ने पूरी इमानदारी के साथ जिया. भाषा के असर की भी बात की जाती है? आप जिस भाषा में पारंगत हैं,उसमें सोचना और जिस भाषा से ज्यादा सहज नहीं है, उसमें सोचने में अंतर पड़ता है.

आज की तारीख में लोगो की राय में अंग्रेजी ही सब कुछ है.ऐसे में हिंदी भाषा और हरियाणा से आने वालों को किस तरह की समस्याएं आती हैं?

पहली बात तो यह सवाल कई लोग मुझसे पूछते हैं.पहली बात हम हिंदी सिनेमा करने आए हैं.इसलिए अच्छी हिंदी होना आवष्यक है. लेकिन आप शिक्षित संसार में रहते हैं,आपको स्क्रिप्ट पढ़नी होती है.लोगों से विचार विमर्ष करना होता है,तो आपको अंग्रेजी आनी चाहिए.मेरी राय हर इंसान जितना सीख सके, उसे उतना सीखना चाहिए.फिर चाहे हिंदी हो या मराठी हो या अंग्रेजी हो.मेरा मानना है कि अभिनेता से ज्यादा प-सजय़ा लिखा कोई इंसान नहीं होता है. क्योकि अभिनेता को हर किरदार को पढ़ना व समझना तथा उसे आत्मसात कर अपने अभिनय से संवारना होता है. डाक्टर को हर दवा व इंजेक्शन के बारे में जानकारी होनी चाहिए. मुश्किल कुछ भी नही है. हर चीज सीखने के लिए तत्पर रहना चाहिए.

कोई ऐसा किरदार जिसे आप निभाना चाहते हों?

टॉम एंस की अंग्रेजी फिल्म ‘‘कास्ट अवे’ आयी थी.पूरी फिल्म में वह अकेले होते हैं. तो इस तरह की फिल्म ‘चिड़िया’ मैं कर चुका हॅूं.एक फिल्म आयी थी ‘परफ्यूम’.उस तरह का किरदार निभाना चाहता हॅूं. मुझे कोई भी किरदार निभाना असंभव नहीं लगता. मैं कभी ईसा मसीह को जरुर निभाना चाहता हॅूं. वह सहनषीलता की मूर्ति थे. जहां तक मेरी पढ़ाई कहती है क्राइस्ट का बहुत गहरा संबंध रहा है.

नया क्या कर रहे हैं?

सोलो हीरो के तौर पर फिल्म ‘चिड़िया’ आने वाली है.एक फिल्म ‘आजमग-सजय़’ में पंकज त्रिपाठी के साथ काम कर रहा हॅूं,जिसका निर्देशन कमलेश मिश्रा ने किया है.एक फिल्म ‘कर्मसूत्र’ है.‘चिड़िया’ पारिवारिक फिल्म है. इस फिल्म में मैंने जो किरदार निभाया है, वैसा किरदार निभाना हर कलाकार का एक सपना होता है.इस किरदार को निभाने के लिए मु-हजये काफी तैयारी करनी पड़ी थी.इसमें साठ मिनट की मेरी सोलो परफार्मेंस हैं. सिनेमा के स्क्रीन पर साठ मिनट सोलो परफार्मेंस का होना बड़ी बात है.फिल्म पूरे डेढ़ घंटे की है. इस फिल्म के लिए मैं दो दिन भूखा रहा हॅूं.बिना नहाए धोए रहा. शूटिंग के बाद कमरे में जाकर बंद हो जाता था. मेडीटेशन किया करता था. दोनों दिन अंतिम सीन से पहले मैं बेहोश होकर गिर भी पड़ा था. पर अब जब मैं उस दृश्य को देखा, तो मैं 26 साल के कैरियर में पहली बार मां सरस्वती को धन्यवाद देने पर मजबूर हुआ. ‘चिड़िया’ मेरे लिए व मेरे कैरियर के लिए अति महत्वपूर्ण फिल्म है. दूसरी फिल्म ‘‘कर्मसूत्र’’ पूरी तरह से कमर्षियल फिल्म है. बंटी निर्देशित इस फिल्म की कहानी चंडीग-सजय़ की एक पुलिस अफसर व एक अपराधी की है.अपराधी एक लड़की है.बहुत जबरदस्त कहानी है.इसमें मैं एक पुलिस अफसर का किरदार निभा रहा हॅूं.इसमें इस बात को रेखंाकित किया गया है कि जैसा आप कर्म करोगे,वैसा ही फल मिलेगा.

तीसरी फिल्म साहित्यकार कमलेश मिश्रा ने निर्देशित ‘‘आजमग-सजय़’’ है.इसमें दो किरदार है. एक मैं और दूसरा पंकज त्रिपाठी निभा रहे हैं. यह फिल्म पैरावीजन पर है. एक यात्रा है. स्कूल के बच्चे और उसके माहौल की कहानी है. इंसान अपने माहौल के ही चलते कुछ बनता है.तो इंसान किस तरह के माहौल में पला बढ़ा है, उसी की कहानी है.

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