35 सालों से इंडस्ट्री में फिल्म निर्माता रह चुके पहलाज निहलानी, फिल्म प्रमाण बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष होने के साथ-साथ साल 2009 तक पिक्चर्स एंड टीवी प्रोग्राम प्रोड्यूसर्स संघ के अध्यक्ष भी थे. उन्हें नयी-नयी फिल्में बनाने का शौक है. अगर इन फिल्मों से कुछ मेसेज चला जाय तो उन्हें अच्छा लगता है.

स्पष्टभाषी पहलाज निहलानी को फिल्म प्रमाण बोर्ड के अध्यक्ष बनने के बाद काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा. उन्हें ‘संस्कारी’ पहलाज निहलानी का नाम दिया गया, जिसे वे गलत नहीं मानते, क्योंकि जैसा वे दिखते हैं, अंदर से भी वैसे ही हैं. सेंसर बोर्ड में चीफ का पद छोड़ने के बाद एक बार फिर वे फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन और निर्माण के क्षेत्र में उतर कर बोल्ड और थ्रिलर फिल्म जुली 2 को लेकर आये हैं. उनसे हुई खरी-खरी बातचीत के अंश इस प्रकार है.

जूली 2 के टाइटल को लेकर कंट्रोवर्सी है कि आपने जूली के निर्माता से बिना पूछे अपनी फिल्म में ले लिया है, इस बारें में आपकी राय क्या है?

आजकल इंडस्ट्री में फिल्म रिलीज से पहले कुछ लोग शोर मचाने के लिए तत्पर रहते हैं. ये गाना, स्क्रिप्ट, कहानी सबके साथ होती है. असल में कार्पोरेट सेक्टर के इंडस्ट्री में आने से ये बवाल पैदा हो रहा है, क्योंकि वे लोग निर्धारित समय पर अपनी फिल्में रिलीज करना चाहते हैं. ऐसे में किसी भी कंट्रोवर्सी को वे कोर्ट में जाकर सेटल कर देते हैं, पर मैं ऐसा नहीं करूंगा. मैं जब सबकुछ ठीक हो जाए तभी फिल्म रिलीज करूंगा. फिल्म की टाइटल किसी की जागीर नहीं होती और उनके पास भी इसकी कोई प्रूफ नहीं है. मैं रिलैक्स हूं और किसी के ब्लैकमेल के ट्रैप में नहीं पड़ना चाहता. कोर्ट के न्याय का मैं इंतजार करूंगा.

पहले भी आपकी ऐसी कई फिल्मों के टाइटल को लेकर समस्या आई, ऐसा आपके साथ ही क्यों होता है?

फ्री टाइटल कोई भी ले सकता है, मैंने जी पी सिप्पी की टाइटल ‘इलजाम’ को लिया था और उन्हें थैंक्स दिया. कोई समस्या नहीं हुई. उस समय हर निर्माता का एक दूसरे से दोस्ताना रिश्ता हुआ करता था, जो अब नहीं है. ‘हथकड़ी’ के साथ भी ऐसा ही हुआ था. तब लोग एक दूसरे को लोग सपोर्ट किया करते थे, क्योंकि इंडस्ट्री को परिवार समझा जाता था, जबकि आज कमेटी में बैठकर लोग एक दूसरे की टांग खीचने पर लगे रहते हैं.

इस तरह की राजनीति से फिल्म इंडस्ट्री कितना ‘सफर’ करती है?

इंडस्ट्री ‘सफर’ करती है. आजकल बहुत सारी समस्याएं फिल्मों के साथ हो रही है. डायरेक्टली और इनडायरेक्टली बहुत सारे लोग इंडस्ट्री से जुड़ चुके हैं, जो पहले पता नहीं चलता था. पहले इंडिविजुअल निर्माता को अंडरवर्ल्ड फंडिंग करती थी, जिससे उनका इन्फ्लुएंस फिल्मों पर था. राजनेताओं की भी दखल अंदाजी थी. इसके अलावा कुछ कंस्ट्रक्शन वाले भी फिल्मों में पैसा लगाते थे. ये तरीका सहजता से चलता रहता था. इसमें जो शक्तिशाली होता था, उसका राज चलता था. इसके अलावा मनोरंजन, जो हिंदी सिनेमा में थी, जिसकी वजह से फिल्मों की छवि विश्व में उसकी डांस और संगीत की वजह से पौपुलर है, वह अब खत्म हो चुका है. पहले निर्देशक के बाद निर्माता आते थे, निर्माता को लोग अन्नदाता कहते थे, जबकि निर्देशक को सबका पालनहार मानते थे, क्योंकि उसे पूरी फिल्म पता होती थी. आज निर्माता, निर्देशक चपरासी हो गए है. वे केवल कूरियर सर्विस कर रहे हैं. एक्टर जो निर्देश देते हैं, उसी तरह से निर्देशक फिल्म बनाता रहता है. इसलिए फिल्मों के कंटेंट खत्म होते जा रहे हैं. बड़े से बड़े कलाकारों की फिल्में भी फ्लाप हो रही है. जबकि साउथ की फिल्म इंडस्ट्री आज भी अच्छी चल रही है. कला को वहां महत्व दिया जाता है, देसी कहानियों पर फिल्में बनती है. इसलिए केवल बाहुबली ही नहीं, कई अच्छी कहानी वाली फिल्में वहां बन रही है. उनकी ‘डब’ की हुई फिल्में यहां भी चलती है.

असल में जिस कहानी को आप ‘फील’ कर सकते हैं, वह चलती है. जिससे दर्शक अपने आप को जोड़ सकते हैं, वही हिट होती है. इसके अलावा जल्दी-जल्दी फिल्म बनाने की होड़ में भी सारे इमोशन आज खत्म होते जा रहे हैं. व्यक्ति की जो सोच होती है, उसी के आधार पर वह फिल्में बनाता है. किसी निर्माता निर्देशक को एक्शन, तो किसी को रोमांटिक फिल्में बनाने की इच्छा होती है. संगीत के साथ भी वैसा ही कुछ हो रहा है. पहले गाने, सिचुएशन के आधार पर होते थे, जिसे निर्माता निर्देशक बैठकर फिर उसे फिल्मों में प्रयोग करते थे. आज प्रीतम और ए.आर. रहमान जैसे संगीतकार अगर गाना बनाते हैं, तो कोई उन्हें पूछने के बजाय उन्हें भगवान मान अपनी फिल्मों में उनके गाने को ले लेते हैं, क्योंकि उनके पास तो आज वौइस ही नहीं है कि कुछ चर्चा वे कर सकें. अभी अच्छे संगीत केवल सोशल मीडिया पर ही आप सुन सकते हैं. इस रैकेट को खत्म करना जरुरी है. प्रोपोजल भी आज एजेंसी बनाती है. एक्टर से भी अधिक स्ट्रोंग कहानी है. वही फिल्म का हीरो होता है.

करेक्टर के आधार पर आज औडिशन नहीं लिए जाते, जो गलत हो रहा है. रियल कास्टिंग के लिए कलाकार को उनका चरित्र पहले देना चाहिए.

आपको फिल्म प्रमाण बोर्ड की अध्यक्ष होते हुए कई सारी आलोचनाओं से गुजरना पड़ा, इस बारें में क्या कहना चाहते हैं?

मैंने वहां कई सारी ऐसी चीजें देखी जो सही नहीं थी, मैंने उसका विरोध किया तो मुझे निकाल दिया. न तो मुझसे पूछकर मुझे रखा गया था न ही मुझसे पूछकर मुझे निकाला गया. अभी भी वैसी ही गाइड लाइन को लोग फौलो कर रहे हैं और निर्माता भी खुश हैं. जबकि मुझे बहुत कुछ कहा गया. सभी फिल्मों के लिए गाइड लाइन एक ही होते है, लेकिन आजकल कुछ फिल्में ट्रिब्यूनल से भी पास होती है. ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ भी इसी वजह से सबकी नजर में आई, नहीं तो इसे देखने वाला कोई नहीं था. ये सब पब्लिसिटी के फंडे हैं. सरकार फिल्म इंडस्ट्री से डर गयी है, इसलिए चेयरमैन बदल दिया. इंडस्ट्री ऐसी ही है, थैंकलेस जौब है और मैं इसका आदि हो चुका हूं.

क्या जिंदगी में कोई मलाल रह गया है?

व्यक्ति जब तक जिन्दा रहता है, उसकी इच्छाएं कम नहीं होती, पर मैं अपने काम से बहुत संतुष्ट हूं. मैंने इंडस्ट्री और समाज के लिए बहुत काम किया है. बचपन से ही मैंने ‘फण्ड रेजिंग’ का काम किया है. जहां भी मेरी जरूरत पड़ी, मैं वहां गया. आज मेरा परिवार है, मेरे तीन बेटे है, मैं अब दादा भी बन चुका हूं. जिसका माइंड स्ट्रोंग होता है, वह अपनी यात्रा जारी रखता है. मेरा उठना, बैठना, खाना सब फिल्म है और इसी में मैं आगे और कई अच्छी फिल्में बनाने की इच्छा रखता हूं.

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