भारत में जब से सिनेमा बनना शुरू हुआ तब से कहा जाता रहा है कि सिनेमा समाज का दर्पण होता है. समाज में जो कुछ घटित होता है उसे ही फिल्मकार अपने सिनेमा में पेश करता है. मगर धीरेधीरे सिनेमा समाज का प्रतिबिंब होने के बजाय कब समाज पर अपना प्रभाव डालने लगा, यह किसी की समझ में न आया.
इतिहास गवाह है कि 70 व 80 के दशकों में समाज में वही पोशाकें पहनी जाती थीं जो फिल्मों में हीरो पहनता था. यहां तक कि लोग हीरो की हेयरस्टाइल तक कौपी करने लगे थे.

70 के दशक में शुरू हुआ यह सिलसिला आज भी जारी है. यदि यह कहा जाए कि अब सिनेमा की गिरफ्त में पूरा समाज आ चुका है तो कुछ भी गलत न होगा. अब तो भारतीय सिनेमा, खासकर हिंदी सिनेमा, जिस तरह की हिंसा, जिस तरह के ऐक्शन दृश्य परोस रहा है उस के चलते कहा जा रहा है कि सिनेमा के ही चलते अब हमें अपने चारों तरफ हिंसात्मक समाज नजर आता है.

सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में सिनेमा व समाज का संबंध लगभग एकजैसा बना हुआ है. हौलीवुड फिल्में हिंसा से सराबोर रहती हैं. भारतीय बच्चे भी हौलीवुड की सुपर हीरो व ऐक्शन प्रधान फिल्में देखने के लिए लालायित रहते हैं. हौलीवुड की इन ऐक्शन फिल्मों ने पूरे विश्व के समाज पर बहुत बुरा असर डाला है.

अमेरिका का लगभग हर बच्चा हौलीवुड की ऐक्शन प्रधान फिल्मों से प्रेरित हो कर हिंसक बनता जा रहा है. यही वजह है कि पिछले दिनों अमेरिका में 6 साल के लड़के ने अपनी टीचर की हत्या करने का प्रयास किया पर टीचर की हिम्मत नहीं हुई कि वह उस बालक की शिकायत स्कूल के प्रिंसिपल से कर सके. कुछ ही दिनों बाद वही लड़का स्कूल में गन ले कर पहुंच गया और 2 बच्चों पर गोलियां बरसा दीं. फिलहाल लड़का जेल पहुंच गया.

इसी तरह पिछले कुछ वर्षों में भारत के हर शहर व गांव में लोगों के बीच हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ी है. लेकिन भारत व अमेरिका के बीच सब से बड़ा अंतर यह है कि अमेरिका में बच्चा फिल्मों के साथ ही हर दिन कम से कम तीन से चार घंटे टीवी देखता है और टीवी पर भी वह 80 प्रतिशत हिंसा प्रधान दृश्य ही देखता है. इस कारण अमेरिकी बच्चों के अंदर हिंसात्मक प्रवृत्ति उपज रही है. पर, भारत में ऐसा नहीं है.

‘धूम’ और ‘एनिमल’ का असर

अखबारों की कतरनों पर यकीन करें तो ‘धूम’ और ‘एनिमल’ जैसी फिल्मों की सिनेमाई हिंसा ने वास्तविक जीवन में अपराधों को प्रेरित किया है. फिल्म ‘धूम’ ने वास्तविक बैंक डकैतियों को प्रेरित किया जबकि ‘कबीर सिंह’ व ‘एनिमल’ जैसी फिल्मों ने आक्रामक व्यवहार और विशाक्त मर्दानगी के प्रति युवकों के दृष्टिकोण को प्रभावित करने की दिशा में काम किया है. फिर भी यह कहना कि फिल्में देख कर इंसान हिंसक बन रहा है, सही नहीं है.

भारतीय सिनेमा में ‘शोले’, ‘डौन,’ ‘गजनी,’ ‘सत्या’ और ‘वास्तव’ जैसी फिल्मों में सब से अधिक हिंसा दिखाई गई थी लेकिन इन फिल्मों के चलते समाज में हिंसात्मक प्रवृत्ति की बढ़ोतरी नहीं हुई थी. शायद इस की एक वजह यह भी थी कि इन फिल्मों में विलेन साहसी और जिन के साथ हिंसा हो रही होती है वे कमजोर या कायर दिखाए गए हैं.
सिनेमा में बढ़ती हिंसा के लिए असली दोषी समाज व दर्शक हैं या कोई और? तथा क्या बढ़ती सिनेमाई हिंसा के चलते समाज में हिंसा बढ़ रही है? इस पर विचार करने के लिए हमें कई पक्षों पर गौर करना होगा. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर इंसान सपनों में जीना चाहता है. वह अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के दुखदर्द, उपहास, अपमान को सिनेमा देख कर भुलाना चाहता है. वह निजी जिंदगी में जो कुछ नहीं कर पा रहा होता है उसे वह सिनेमा के परदे पर होते हुए देखना चाहता है.

 

बढ़ते ऐक्शन व हिंसा प्रधान दृश्य

यों तो भारतीय सिनेमा, खासकर हिंदी सिनेमा, लगभग हर 10 साल बाद बदलता रहा है. भारतीय सिनेमा में आने वाले इस बदलाव के पीछे हौलीवुड फिल्मों के असर के साथ ही सामाजिक व राजनीतिक परिवेश मूल वजहें रही हैं. 70 व 80 के दशकों में आपातकाल के बाद दमन, बेरोजगारी व भ्रष्टाचार के विरोधस्वरूप देश की युवा पीढ़ी के अंदर का एक गुस्सा फूटा और हिंदी सिनेमा में एंग्री यंगमैन के रूप में अमिताभ बच्चन जैसे नायक का उदय हुआ.

 

देश की युवा पीढ़ी ने सिनेमा के परदे पर अमिताभ बच्चन अभिनीत एंग्री यंगमैन के अंदर अपना प्रतिबिंब देखा लेकिन उस वक्त का फिल्मकार राजनीति से कुछ स्तर पर ही प्रभावित हो रहा था. वह समाज में जो कुछ घटित हो रहा था फिर चाहे वह गुंडागर्दी हो या स्मगलिंग हो, देशभक्ति हो, आतंकवाद हो, भ्रष्टाचार हो आदि सभी से प्रेरित हो कर फिल्में बना रहा था. उस वक्त हर फिल्म में एक पुख्ता खलनायक भी हुआ करता था.

यही वजह है कि 2001 आतेआते राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने राजनीतिक भ्रष्टाचार से ले कर ‘मिग 21’ की खरीद में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ‘रंग दे बसंती’ जैसी फिल्म बनाई और फिल्म के अंदर युवावर्ग के हाथों देश के रक्षामंत्री तक को मरवा दिया. मगर इस फिल्म के बाद भी राजनीतिक व सामाजिक हालात इतने नहीं बदले कि देश का हर बच्चा हिंसात्मक प्रवृत्ति का हो गया हो. हर बच्चे व इंसान के अंदर इमोशन इतने हावी रहे कि उस ने गली या सड़क पर उतर कर मारधाड़ करना उचित नहीं समझा जबकि हिंसा प्रधान फिल्मों ने ही अमिताभ बच्चन को सदी का महानायक तक बनाया.

हौलीवुड की चाल पर बौलीवुड

इतना ही नहीं, जब अमेरिका के लौस एंजेंल्स शहर से हौलीवुड सिनेमा का प्रादुर्भाव हुआ तो हौलीवुड ने योजनाबद्ध तरीके से लगभग हर देश के सिनेमा का खात्मा करना शुरू किया. हौलीवुड के ही चलते पूरे यूरोप का सिनेमा खत्म हो गया और पूरे यूरोप में हौलीवुड की हिंसात्मक फिल्मों ने हर इंसान को हिंसात्मक प्रवृत्ति का बना दिया.
हौलीवुड फिल्मों में 80 प्रतिशत हिंसा परोसी जा रही है. चीन, रूस, ईरान व इराक की सरकारी नीतियों के चलते हौलीवुड सिनेमा वहां पर अपने पैर ज्यादा पसारने में असफल रहा. मगर अब परोक्ष या अपरोक्ष रूप से भारत में हौलीवुड सिनेमा ने पूरी तरह से पैर पसार दिए हैं.

2001 में एफडीआई के बाद हौलीवुड फिल्में इंग्लिश के साथ ही हिंदी, कन्नड़, मलयालम व तमिल भाषा में भी प्रदर्शित हो कर अच्छाखासा व्यापार करने लगीं लेकिन वे भारतीय सिनेमा की जड़ें नहीं हिला पाईं और न ही भारतीयों में हिंसात्मक प्रवृत्ति का बीजारोपण कर पाईं क्योंकि भारतीय सिनेमा का अहम पक्ष सदैव से भावनाएं व संवेदनाएं रहा है. जबकि, हौलीवुड फिल्मों में हिंसा, मारधाड़, खूनखराबा और तकनीक तो होती है, मगर भावनाओं व संवेदनाओं का घोर अभाव होता है. यही वजह है कि हर हौलीवुड फिल्म भारत में पैसा नहीं कमा पा रही थी.

2014 के बाद बदले हालात

2014 के बाद देश की सरकार बदली तो इसी के साथ सिनेमा में भी बदलाव का एक नया दौर शुरू हुआ. देश की कट्टरवादी सरकार के परोक्ष या अपरोक्ष रुख व इशारे के चलते समाज व सिनेमा दोनों जगह हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ गई. लोगों ने गौहत्या व बीफ की स्मगलिंग व धर्म की आड़ में सड़क पर झुंड बना कर मारकाट करनी शुरू कर दी. तो वहीं सिनेमा में कहानी, परिवार, विलेन नदारद होते गए.

हौलीवुड की फिल्मों की ही तरह भारतीय सिनेमा में भी नईनई तकनीक व हिंसा के दृश्य बढ़ते गए. हौलीवुड की हिंसा प्रधान फिल्में भी भारत में करोड़ों रुपए का व्यापार करने लगीं. भारतीय फिल्मकारों के बीच भी कई सौ करोड़ की अति महंगे बजट की फिल्में बनाने की होड़ मच गई. इस में स्टूडियो सिस्टम ने आग में घी डालने का काम किया. इस होड़ के चलते फिल्मों में ऐसे मारधाड़ के दृष्य बढ़ते गए कि दर्शक की भी समझ में नहीं आया कि आखिर यह हिंसा क्यों हो रही है. भारतीय दर्शक आज भी औचित्यपूर्ण हिंसा ही फिल्म में देखना चाहता है.

नेता और फिल्मकारों की कार्यशैली एकसमान

2019 के बाद तो भारतीय सिनेमा का एक तबका पूर्णरूपेण एक खास राजनीतिक दल की तरह काम करने लगा. सत्तापरस्त सिनेमा बनाने वाले फिल्मकार अपनी फिल्मों में जबरन हिंसा परोसने के साथ ही दर्शक व फिल्म इंडस्ट्री को बंद करवाने की धमकी तक देने लगे. फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री के इस फिल्म की रिलीज के बाद के बयान किसी भी सभ्य समाज के लिए उचित नहीं कहे जा सकते.

विवेक अग्निहोत्री ने अपनी इस फिल्म में सचाई परोसने के नाम पर जम कर इस तरह से हिंसा परोसी कि दर्शक के अंदर हिंसा की प्रवृत्ति पैदा हो. हालिया प्रदर्शित रणदीप हुडा की फिल्म ‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ में उन्होंने कई जगह बहुत गलत तरीके से हिंसात्मक दृश्य चित्रित कर दर्शकों के मन में हिंसा की प्रवृत्ति को ही जगाने का काम किया.

मसलन, जब वीर सावरकर को काला पानी की सजा हुई तो वे राजनीतिक कैदी थे. मगर फिल्मकार ने अपनी फिल्म में जानबूझ कर सावरकर को एक मुसलिम सिपाही के हाथों जुल्म के फुटेज दिखाए, ताकि कम्युनल एंगल दिया जाए. मजेदार बात तो यह है कि सरकारपरस्त फिल्मकार व अभिनेता रणदीप हुडा खुद हिंसा की बात करते हैं.
अपनी फिल्म की रिलीज से पहले उन्होंने अपने हर इंटरव्यू में कहा, ‘‘मैं वीर सावरकर को ‘माफी वीर’ कहने वालों की कनपटी पर कंटाप लगाना चाहता हूं.’’ क्या रणदीप हुडा ने अपनी बातों से हर बच्चे के अंदर हिंसा की प्रवृत्ति को जगाने का काम नहीं किया.

‘गांधीगीरी’ और ‘काशी टू कश्मीर’ सहित अपनी हर फिल्म में हिंसा परोसते आ रहे फिल्म लेखक व निर्देशक सनोज मिश्रा इन दिनों अपनी नई सत्तापरस्त फिल्म ‘द डायरी औफ वेस्ट बंगाल’ को प्रमोट करते हुए खुलेआम लोगों को जूते से पीटने की धमकी दे रहे हैं. वे कहते हैं, ‘‘हमारी फिल्म को प्रोपगंडा फिल्म कहने वालों को जूते से मारना चाहिए. सच बोलने वाले को आप प्रोपगंडा कहेंगे. यदि ऐसा है तो मैं प्रपोगंडा फिल्मों का सब से बड़ा निर्देशक हूं. ‘द कश्मीर फाइल’ से पहले मैं ने कश्मीर पर ‘काशी टू कश्मीर’ बनाई थी. मैं ने ही राम जन्मभूमि मुद्दे पर फिल्म बनाई और अब मैं ने बंगाल के मुद्दे पर ‘द डायरी औफ पश्चिम बंगाल’ बनाई है. यह देश की सचाई है. यह सस्ती पब्लिसिटी नहीं है. सस्ती पब्लिसिटी तो तुम लोगों को चाहिए. तुम तो वामपंथियों के तलवे चाटते हो, इसी वजह से हमारी फिल्मों को प्रोपगंडा कह रहे हो. सचाई तुम्हारे अंदर नहीं उतर रही है.

“सच को जितनी जल्दी समझ लो, उतना ही तुम्हारे लिए बेहतर होगा. सच तो जनता की आवाज है. जिस दिन जनता उतारू हो जाएगी, तुम्हारी फिल्म इंडस्ट्री भी बंद हो जाएगी. जिस तरह की तुम फिल्में बनाते हो, उस तरह की फिल्में भी खत्म हो जाएंगी. यह हमारा स्पष्ट संदेश है उन लोगों के लिए जो सच बयां करने वाली फिल्मों को प्रोपगंडा फिल्मों की संज्ञा देते हैं, खासकर, मेरी फिल्म को तो प्रोपगंडा बोलना भी मत. यह मैं आप सभी को हिदायत दे रहा हूं.’’ क्या इस तरह फिल्म निर्देशक सनोज मिश्रा आम लोगों को हिंसा के लिए उकसाने वाला काम नहीं कर रहे हैं? और अगर उन्होंने पब्लिक के लिए फिल्म बनाई है तो पब्लिक से रिऐक्शंस तो आएंगे ही, उस के लिए उन्हें तैयार भी होना चाहिए.

एक तरफ बौलीवुड में धड़ल्ले से हिंसा प्रधान फिल्में बन रही हैं तो वहीं बौलीवुड में हिंसा परोसने के आरोप भी लग रहे हैं. मगर हर फिल्मकार एक ही बात कह रहा है कि ‘लोग जिस तरह का सिनेमा देखना चाहते हैं, हम वैसा ही सिनेमा बना रहे हैं. हम सभी फिल्म निर्माता फिल्म बना कर धन कमाना चाहते हैं. यदि दर्शक हमारी फिल्में देखना बंद कर दें तो हम इस तरह की फिल्में नहीं बनाएंगे. हम हिंसा प्रधान फिल्में जरूर बना रहे हैं मगर समाज में बढ़ती हिंसा व सैक्स अपराध के लिए फिल्मों को दोष देना गलत है क्योंकि फिल्मों का समाज पर कोई असर नहीं पड़ता.’

फिल्मकार सनोज मिश्रा भी दर्शकों पर ही दोष मढ़ते हुए कहते हैं, ‘‘मैं तो इस के लिए दर्शक को दोषी मानता हूं. यदि कोई निर्माता घटिया फिल्म बनाएगा, उस फिल्म को दर्शक नहीं देखेगा तो निर्माता दूसरी बार उस तरह की फिल्म बनाने से तोबा कर लेगा क्योंकि वह फिल्म बना कर लाभ कमाना चाहता है, नुकसान नहीं. मगर दर्शक ऐसी घटिया फिल्मों को ही देख कर हर फिल्म को सफल बना रहे हैं तो निर्माता उन की मांग को पूरा करता जा रहा है. निर्माता तो 10 रुपया कमाने के लिए सबकुछ करता है. दर्शक अच्छी फ़िल्में देखना शुरू करें तो घटिया फिल्में बननी बंद होंगी और तभी सिनेमा में बदलाव आएगा. दर्शक बदल जाए, फिल्मकार अपनेआप बदल जाएगा.’’
मगर कानपुर के सिंगल थिएटर ‘श्याम पैलेस’ के मालिक अजय गुप्ता दर्शकों के बजाय फिल्मकारों को दोषी मानते हैं. वे कहते हैं, ‘‘हर फिल्मकार तकनीक का गुलाम हो गया है. वह बेवजह का ऐक्शन व सैक्स अपनी फिल्मों में परोस रहा है जिसे आम दर्शक नहीं देखना चाहता, इसीलिए हिंदी फिल्में लगातार असफल हो रही हैं. हिंदी सिनेमा बनाने वालों को कम से कम दक्षिण के सिनेमा व दक्षिण के फिल्मकारों से सबक लेना चाहिए. दक्षिण की फिल्मों में हिंसा भी जमीन से जुड़ी हुई और कहानी का हिस्सा होती है. यदि बौलीवुड अभी भी नहीं सुधरेगा तो इस का खात्मा तय है.’’

सिनेमा मालिक अजय गुप्ता की बातों में काफी सचाई नजर आती है क्योंकि पिछले चारपांच सालों में जितनी भी ऐक्शन व हिंसा प्रधान फिल्में बनी हैं, उन्हें दर्शक सिरे से नकारता आया है.हालिया प्रदर्शित अक्षय कुमार व टाइगर श्रौफ की ‘बड़े मियां छोटे मियां’, ‘बंगाल 1947’, विद्युत जामवाल की ‘जीतेगा तो जिएगा’, टाइगर श्रौफ की ‘गणपत’, रितिक रोशन की ‘फाइटर’, सिद्धार्थ मल्होत्रा की ‘योद्धा’ जैसी ऐक्शन प्रधान फिल्मों को जबरदस्त नुकसान हुआ है.

जहां तक इन असफल फिल्मों को मिलने वाले 10 प्रतिशत दर्शकों का सवाल है तो यदि इस पर गौर किया जाए तो पता चलेगा कि ये सभी एक खास राजनीतिक दल के नेताओं की कार्यशैली से परिचित हैं, जो कि बातबात पर हिंसा को बढ़ावा देने की ही बात करते हैं. अन्यथा, कटु सत्य यह है कि भारत और अमेरिका में अभी भी जमीनआसमान का फर्क है?

तो फिर हिंसा प्रधान फिल्में बन क्यों रही हैं?

अब सवाल उठता है कि कोई भी निर्माता फिल्म धन कमाने के लिए बनाता है, नुकसान उठाने के लिए नहीं. यह सच है. इस के बावजूद फिल्मकार कई सौ करोड़ का नुकसान उठाने के बावजूद लगातार फिल्में बनाता जा रहा है और नुकसान उठाता जा रहा है. इस पर शोध करने की जरूरत है.

उदाहरण के तौर पर हम सिर्फ एक निर्माता यानी कि फिल्म निर्माता बसु भगनानी की चर्चा कर लेते हैं जिन्होंने ‘बड़े मियां छोटे मियां’ का निर्माण किया है, जिसे एक अनुमान के अनुसार बौक्सऔफिस पर 300 करोड़ का नुकसान हो चुका है. यह वही फिल्म निर्माता हैं जो अब तक एकदो नहीं, बल्कि लगातार 30 असफल फिल्में बना चुके हैं. पर इन के फिल्म निर्माण करने के पीछे कई वजहें हैं. सब से पहली बात तो इस फिल्म के नायक अक्षय कुमार हैं. दूसरी बात, फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ की शूटिंग जौर्डन में की गई है. जौर्डन की सरकार ने इस फिल्म को करोड़ों रुपए की सब्सिडी दी है. सब्सिडी के आंकड़े अभी सामने नहीं आए हैं.

फिल्म की शूटिंग के दौरान जौर्डन सरकार की स्पौंसरशिप पर 40 पत्रकार मुंबई से जौर्डन भी गए थे. इस के अलावा वासु भगनानी बिल्डर हैं. उन के दूसरे कई अन्य व्यवसाय हैं. वर्तमान सरकार से भी उन के अच्छे संबंध हैं. वहीं, उन का दामाद कांग्रेस पार्टी से महाराष्ट्र में विधायक है.

हिंसा प्रधान फिल्मों को नकारता दर्शक

हर इंसान अपनी जिंदगी के गमों और अपने आसपास घट रही घटनाओं को भुलाने व मनोरंजन पाने के लिए फिल्में देखने सिनेमाघर के अंदर जाता है. वह सिनेमाघर के अंधेरे में फिल्में देखते हुए सपनों की दुनिया में जीना चाहता है. वह फिल्म के परदे पर वह सब देखना पसंद करता है जिसे वह करना चाहता है, पर कर नहीं सकता. वह विलेन को हीरो के हाथों पिटते हुए देखना चाहता है.

2010 तक तो ऐसा उसे फिल्मों में मिल रहा था. अब फिल्मों में जिस तरह का ऐक्शन दिखाया जा रहा है, उस से आम इंसान खुद रिलेट नहीं कर पाता. दूसरी बात, दर्शक को हिंसा या ऐक्शन की वजह भी चाहिए होती है, जिस का घोर अभाव होता है. अब अमेरिका व लंदन से फिल्ममेकिंग सीख कर आ रहे फिल्मकार पूरी तरह से हौलीवुड से प्रभावित हैं. वे वीएफएक्स की मदद से परदे पर शानदार ऐक्शन उकेर रहे हैं. इन में से ज्यादातर ऐक्शन इंसान टीवी या मोबाइल पर वीडियो गेम में देख चुका होता है.
दूसरी बात, हौलीवुड फिल्मों में इमोशन के लिए कोई जगह नहीं है, उसी तरह अब भारतीय फिल्मकार की ऐक्शन प्रधान फिल्मों में भी इमोशन के लिए जगह नहीं रह गई है. जबकि ऐक्शन दृश्यों में भी इमोशन चाहिए. इस के अलावा ऐक्शन फिल्मों में कहानी नहीं नजर आती. हर फिल्म में दोहराव नजर आता है. इंसान अपनो सें नहीं लड़ना चाहता. मगर आप शाहरुख खान व जौन अब्राहम वाली फिल्म ‘पठान’ को ले लें या अक्षय कुमार व टाइगर श्रौफ की फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ को ले लें. दोनों ही फिल्मों में विलेन कोई बाहरी नहीं है, बल्कि ये अपनों से ही लड़ रहे हैं.

फिल्म ‘पठान’ में जौन अब्राहम का किरदार पूर्व रौ औफिसर का है जिसे जबरन रिटायर कर दिया गया था और उसे सम्मान नहीं मिला था. इसलिए वह अब अपने ही देश के खिलाफ विलेन हो गया है. इसी तरह ‘बड़े मियां छोटे मियां’ में भी पृथ्वीराज सुकुमारन अपनी संस्था से नाराज हो कर अब अपने ही देश का दुश्मन बना हुआ है. इस तरह की दोहराव वाली कहानी के साथ दर्शक रिलेट नहीं करता. इन के ऐक्शन दृश्यों के साथ भी कोई रिलेट नहीं कर पाता. हर लड़ाई या ऐक्शन के पीछे औचित्य होना चाहिएजो कि बौलीवुड फिल्मों में नजर नहीं आता. जबकि, दक्षिण के फिल्मकार अपनी फिल्म में मारधाड़ के औचित्य को बताते हैं, इसलिए भी बौलीवुड ऐक्शन फिल्में असफल हो रही हैं.
‘केजीएफ 2’ के ऐक्शन निर्देशक आरिव कहते हैं, ‘‘पहले सारे ऐक्शन दृश्य हम ऐक्शन डायरैक्टर ही कंसीव व कोरियोग्राफ करते थे पर अब निर्देशक अपने सुझाव देता रहता है. उस के सारे सुझाव किसी न किसी हौलीवुड फिल्म से प्रभावित होते हैं. आजकल हर दर्शक किसी भी हौलीवुड फिल्म को टीवी या ओटीटी प्लेटफौर्म पर आसानी से देखता रहता है. इस कारण भी हमारी फिल्मों के ऐक्शन दृश्य चोरी के नजर आते हैं, जिस के चलते वह हमारी फिल्मों से दूर रहता है.

“हम यह नहीं कहते कि समाज में हिंसा कम है. समाज में हिंसा काफी बढ़ी हुई है पर उस के लिए राजनीतिक, सामाजिक व पारिवारिक वजहें होती हैं जिन्हें कोई भी फिल्मकार अपनी फिल्म का हिस्सा नहीं बनाता और हम भी ऐक्शन दृश्यों को यथार्थ के धरातल पर फिल्माने के बजाय वीएफएक्स के सहारे क्रिएट करने लगे हैं जो कि अपना प्रभाव नहीं छोड़ता है.’’

अभिनेता व अभिनयगुरु आनंद मिश्रा कहते हैं, ‘‘सच यह है कि सबकुछ नकली परोसा जा रहा है. मसलन, एक इंसान 10 दिन से या 2 माह से कोमा में था तो जब उसे होश आएगा तो वह अंदर से डरा हुआ रहेगा और बहुत घबराते हुए धीरेधीरे बात करने का प्रयास करेगा. मगर यहां तो कुछ भी दिखा रहे हैं. यही हाल हिंसा के दृष्यों का है. यही वजह है कि फिल्में असफल हो रही हैं.’’

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