दृश्यम
दृश्यम एक सस्पैंस थ्रिलर फिल्म है, जिस में निर्देशक ने अंत तक सस्पैंस के साथसाथ रोमांच भी बनाए रखा है. यह फिल्म पहले मलयालम में बनी, फिर तमिल, तेलुगू, कन्नड़ में बनी. निर्देशक ने मूल फिल्म में कोई बदलाव न कर के इसे हिंदी में बनाया है.फिल्म का नायक अजय देवगन है और उस ने ढिशुमढिशुम वाली ऐक्ंिटग नहीं की है. उस ने अपनी ‘सिंघम’ वाली छवि को तोड़ा है और एक शांत पिता, पत्नी से प्यार करने वाले पति और एक बेचारे पुलिस की ज्यादतियों के मारे नागरिक की भूमिका निभाई है. वह चौथी कक्षा फेल है, मगर स्मार्ट है. स्मार्ट वह हिंदी फिल्में देखदेख कर हुआ है. वह केबल औपरेटर का बिजनैस करता है और रातरात भर हिंदी फिल्में, खासकर मर्डर मिस्ट्री वाली, देखता रहता है.
कहा जाता है कि फिल्में देख कर लोग अपराध करना सीख जाते हैं लेकिन ‘दृश्यम’ अपराध कर के कानून की निगाह में किस जुर्म की सजा से कैसे बचा जाए, यह बताती है, साथ ही यह भी बताती है कि अगर आदमी में परिस्थितियों को परखने की समझ हो तो वह बड़ी से बड़ी मुसीबत से खुद को बचा सकता है.‘दृश्यम’ आजकल टीवी पर दिखाए जा रहे ‘सीआईडी’ प्रोग्राम के किसी क्राइम एपिसोड जैसी लगती है, मगर यह उस प्रोग्राम से कहीं ज्यादा रोमांचक है. फिल्म दर्शकों को बांधे रखने में सक्षम है. खासकर मध्यांतर के बाद का हिस्सा, जिस में दिखाया गया है कि नायक और उस का परिवार खौफनाक पुलिस वालों की हिंसक, बर्बर, गैरकानूनी पूछताछ से कैसे निबटता है.फिल्म की कहानी एक पारिवारिक ड्रामा सी है, जिस में परिवार के प्रति हो रहे ब्लैकमेल से बचते हुए एक गुनाह को दिखाया गया है और उस गुनाह को छिपाते हुए दिखाया गया है. फिल्म में दिखाया गया है कि जो दिखता है वह हमेशा सच नहीं होता. यह हर व्यक्ति का हक है कि वह अपने परिवार की रक्षा करे और कानून की निगाह में अगर कोई काम गुनाह हो पर असल में मात्र आत्मरक्षा हो तो उस में कुछ करने को तैयार रहे.
फिल्म की कहानी काल्पनिक है. गोवा के एक गांव में विजय साल्गांवकर (अजय देवगन) अपनी पत्नी नंदिनी (श्रेया सरन) और 2 बेटियों मंजु (इशिता दत्ता) और अनु (मृणाल जाधव) के साथ रहता है. वह इंस्पैक्टर गायतौंडे (कमलेश सावंत) से पंगा ले बैठता है. एक दिन घर लौटने पर वह अपनी पत्नी व बेटियों को परेशान पाता है. पूछने पर उसे पता चलता है कि मंजू के हाथों एक 16 साल के लड़के सैम का मर्डर, जिसे असल में होमीसाइड नौट अमाउंटिंग टू मर्डर कहा जाएगा, हो जाता है और उन्होंने उस की लाश घर के बगीचे में दफना दी है. विजय इस हादसे पर परदा डाल कर अपने परिवार को बचाने की जुगत करता है क्योंकि वह जान जाता है कि जो मरा वह सैम गोवा की बेरहम, वहशी सी आईजी मीरा देशमुख (तब्बू) का बेटा था.
मीरा देशमुख पूरे पुलिस महकमे को हिला कर रख देती है. तब भी जब उसे पता चल जाता है कि उस का बेटा ब्लैकमेलर है. लेकिन चौथी फेल विजय पुलिस महकमे को हर मोड़ पर चकमा देता है और अंत तक पुलिस को पता नहीं चल पाता कि सैम की लाश कहां है. मध्यांतर से पहले का भाग इतना प्रभावशाली नहीं है जितना मध्यांतर के बाद का भाग. इस भाग में विजय और पुलिस के बीच चूहेबिल्ली का खेल चलता रहता है. फिल्म का क्लाइमैक्स दर्शकों को चौंकाता है. लगता है जैसे विजय पुलिस के फंदे में फंस जाएगा लेकिन वह पूरी बाजी ही पलट देता है. पूरी फिल्म अजय देवगन ने अपने कंधों पर संभाली हुई है. आईजी की भूमिका में तब्बू ने अच्छा काम किया. श्रेया सरन पर निर्देशक ने कम ध्यान दिया है. इंस्पैक्टर गायतौंडे की भूमिका में कमलेश सावंत का काम भी अच्छा है. फिल्म का निर्देशन अच्छा और कसा है. फिल्म का गीतसंगीत साधारण है. फोटोग्राफी अच्छी है. छायाकार ने गोवा के ग्रामीण इलाकों को एक्सप्लोर किया है. संवाद और बेहतर होते तो अच्छा होता. दर्शकों के लिए यही सलाह है कि अपराध न करें पर अगर कर दिया तो पुलिस हर हथकंडा अपनाएगी जिस में खोज कम मारपीट से कनफैशन कराना ज्यादा है. भारतीय पुलिस की असल पोलपट्टी इस फिल्म में खोली गई है और पुलिस वाले कितने पौवर ब्लाइंड होते हैं, दिखाया गया है. महिलाएं पुरुषों से कहीं कम नहीं हैं और क्रूरता उन में भी पुरुष पुलिस वालों की तरह रगरग में भर जाती है.
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बैंगिस्तान
खासकर युवाओं के लिए एक बात. इस फिल्म को ‘यंगिस्तान’ जैसी न समझना, न ही यह ‘बंगिस्तान’ है. यह ‘बैंगिस्तान’ है. आप कहेंगे, यह भी कोई नाम है. जनाब, यह निर्देशक की कल्पना है. इस का मतलबवतलब कुछ नहीं. इस फिल्म में 2 युवा नायक हैं. दोनों ही फिदायीन हैं. दोनों ही धर्मगुरुओं के बहकावे में आ कर जिहाद की राह पर चल पड़ते हैं और धर्मगुरु हैं कि हंसतेमुसकराते, एकदूसरे की हां में हां मिलाते ‘धर्म नहीं सिखाता आपस में वैर रखना’ जैसी धारणा पर बातें करते नजर आते हैं. जहां ‘यंगिस्तान’ में मौजमस्ती थी, म्यूजिक था, डांस थे, सैक्सी बालाएं थीं, इस ‘बैंगिस्तान’ में ऐसा कुछ भी नहीं है. फिल्म में इतनी ज्यादा ऊलजलूल बकवास भरी पड़ी है कि फिल्म मुख्य मुद्दे से हट कर रह गई है और इसे झेल पाना मुश्किल हो गया है. फिल्म की कहानी में एक काल्पनिक देश बैंगिस्तान है जिस के उत्तर में हिंदू रहते हैं और दक्षिण में मुसलमान. प्रवीण (पुलकित सम्राट) हिंदू है. उस पर एक धर्मगुरु का प्रभाव है. हफीज (रितेश देशमुख) मुसलमान है. उस का दर्द यह है कि हर कोई उसे आतंकवादी समझता है. एक दिन धर्मगुरु की बातों में आ कर प्रवीण आत्मघाती हमला करने के लिए पोलैंड जाने को तैयार हो जाता है. किसी तरह हफीज को भी इस काम के लिए तैयार कर लिया जाता है. वहां जा कर प्रवीण अल्लारखा खान बन जाता है और हफीज ईश्वरचंद शर्मा. दोनों की मुलाकात एक बारगर्ल रोजी (जैकलीन फर्नांडीस) से होती है. दोनों एक ही मकान में ऊपरनीचे रहते हैं और बम बनाने की कोशिश करते हैं. दोनों को एकदूसरे का मकसद पता चल जाता है. लेकिन दोनों को पुलिस पकड़ लेती है. उधर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे धर्म सम्मेलन में दुनियाभर से धर्मगुरु पहुंचते हैं लेकिन वहां आतंकवादियों द्वारा बम पहले ही पहुंचाया जा चुका होता है. प्रवीण और हफीज दोनों मिल कर उस बम को सम्मेलन में फटने से रोकते हैं. उन्हें वाहवाही मिलती है और धर्मगुरुओं की किरकिरी होती है.
फिल्म का मध्यांतर से पहले का भाग बचकाना लगता है. दूसरे भाग में फिल्म रफ्तार पकड़ती है, क्लाइमैक्स कुछ अच्छा बन पड़ा है. अभिनय की दृष्टि से न तो रितेश देशमुख प्रभावित कर पाता है, न ही पुलकित सम्राट. दर्शकों को रितेश देशमुख की ऐसी भूमिका शायद ही पसंद आए. जैकलीन फर्नांडीस के काम में दम है. फिल्म की लंबाई ज्यादा है. निर्देशक ने पूरा ध्यान संदेश देने में ही लगाया है. लेकिन संदेश भी वह असरदायक तरीके से नहीं दे सका है. फिल्म में मनोरंजन का अभाव है. फिल्म का गीतसंगीत निराश करता है. छायांकन अच्छा है.
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आई लव न्यूयौर्क
सनी देओल अपने मुक्के के लिए मशहूर है. जब तक वह फिल्म में अपना भारीभरकम मुक्का नहीं चलाता, दर्शकों को मजा नहीं आता. यकीन मानिए इस फिल्म में सनी देओल आप को एक शरीफ इंसान की तरह कपड़े पहने एग्जीक्यूटिव के रूप में दिखेगा. और अगर आप ने कंगना राणावत की ‘क्वीन’, ‘तनु वैड्स मनु रिटर्न्स’ फिल्में देखी होंगी तो इस फिल्म में उसे एक टीचर की भूमिका में देख कर हैरान ही होंगे. इन दोनों पसंदीदा कलाकारों को इस रूप में देख कर आप को बिलकुल भी मजा नहीं आएगा. दरअसल, यह फिल्म कई साल पुरानी है और डब्बे में बंद पड़ी थी, अब जा कर रिलीज हो पाई है. फिल्म की कहानी शिकागो में रहने वाले युवक रणधीर सिंह (सनी देओल) और न्यूयौर्क में रह रही स्कूल टीचर टिक्कू (कंगना राणावत) की है. नए साल की पूर्व संध्या पर रणधीर सिंह की प्रेमिका रिया (तनीषा चटर्जी) उस के घर पर पार्टी मनाने आती है, मगर रणधीर उसे नहीं मिलता. वह घंटों उस का इंतजार करती है. नशे में धुत रणधीर न्यूयौर्क पहुंच चुका होता है. उसे दोस्तों ने खूब शराब पिला दी थी. वह नशे की हालत में टिक्कू के घर पहुंच जाता है. वहां टिक्कू अपने प्रेमी इशान (नवीन चौधरी) का इंतजार कर रही है. इशान वहां आता है, रणधीर को देख कर उसे गलतफहमी हो जाती है. वह टिक्कू से बे्रकअप कर चला जाता है. अब धीरेधीरे टिक्कू और रणधीर में आपस में प्यार पैदा होता है और टिक्कू रणधीर का हाथ थाम लेती है.
फिल्म की यह कहानी बहुत ही धीमी गति से चलती है. फिल्म में मनोरंजन का अभाव है. निर्देशन भी ढीलाढाला है. संवाद बोलते वक्त डबिंग की खराबी महसूस होती है. सनी देओल को इस तरह की भूमिका में दर्शक पचा नहीं पाएंगे. कंगना राणावत का चुलबुलापन और मस्ती गायब है. फिल्म का गीतसंगीत थोड़ाबहुत अच्छा है. छायांकन अच्छा है. शिकागो और न्यूयौर्क की लोकेशनें सुंदर बन पड़ी हैं.