यह फिल्म एकता कपूर और विशाल भारद्वाज ने कोंकणा सेन शर्मा के पिता मुकुल शर्मा द्वारा 36 साल पहले लिखी एक लघु कहानी पर बनाई है. आज से 50 साल पहले डायन का मिथ गांवों में बहुत प्रचलित था. यदाकदा आज भी कुछ गांवों में डायन के नाम पर कुछ महिलाओं को मार डाला जाता है.

‘एक थी डायन’ में उस वक्त मुकुल शर्मा ने डायन के बारे में जो मिथ प्रचलित थे, अपनी कहानी में उन का जिक्र किया?था. मसलन, डायन के?घने काले बाल होते हैं, उस की लंबी चोटी होती है, उस चोटी में उस की जादुई शक्तियां समाई होती हैं, डायन के पैर उलटे होते हैं, वह बच्चों को खा जाती है. एकता कपूर और विशाल भारद्वाज दोनों ने मिल कर इन सुनीसुनाई बातों के आधार पर इस फिल्म को बना कर दर्शकों को अंधविश्वासों की खाई में ही धकेला है.

फिल्म की कहानी एकदम बकवास है. बोबो (इमरान हाशमी) एक जादूगर है. तमारा (हुमा कुरैशी) उस की प्रेमिका है. बचपन में डायना (कोंकणा सेन शर्मा) नाम की एक डायन ने उस के पिता और बहन को मार डाला था. उस वक्त बोबो ने उस डायन की चोटी काट डाली?थी, जिस से वह मर गई थी.

अब कई वर्ष बाद वह डायन बोबो की जिंदगी में फिर से आ जाती है. बोबो उस का फ्लैट खरीदने आई युवती लिजा दत्त (कल्कि कोचलिन) को डायन समझने लगता है जबकि डायन तो तमारा निकलती है जो बोबो को वापस अपनी दुनिया में ले जाने आई है, क्योंकि बोबो खुद एक पिशाच है. बोबो तमारा की भी चोटी काट कर उसे मार डालता है.

मध्यांतर से पहले फिल्म की यह कहानी कुछ रफ्तार लिए है लेकिन मध्यांतर के बाद फिल्म मटियामेट हो जाती है. न तो फिल्म कोई हौरर का प्रभाव छोड़ पाती है, न ही कहानी में कोई रहस्य रह पाता है. बचते हैं तो सिर्फ घिसेपिटे फार्मूले. सिर्फ कोंकणा का काम अच्छा है.

निर्देशक ने दर्शकों को ‘हैल’ यानी नरक की सैर करा दी है. क्लाइमैक्स में उस ने  एक लिफ्ट द्वारा डायन और उस के बहुत से प्रेत साथियों को एक गटरनुमा जगह पर इकट्ठा किया है जिसे नरक बताया गया है. यहीं बोबो डायन को मारता है.

फिल्म का निर्देशन साधारण है, गीतसंगीत में भी दम नहीं है. छायांकन कुछ ठीक है. आज के जमाने में भूतपिशाचों की बातें करना डायन के फिर से लौट आने की कल्पना करना एकदम बेमानी है. इसलिए ऐसी डायन से तौबा भली.

 

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