रेटिंग:तीन स्टार
कागर का हिंदी में अर्थ हुआ अंकुरित/पल्लवित होता प्यार.पर यह प्रेम अंकुरित होता है राज्य में राजनीतिक बदलाव के लिए रक्तरंजित क्रांति के बीच, जिसमें प्रेमिका के पिता की राजनीतिक महत्वाकांक्षा, राजनीतिक व शतरंजी चालों की भेंट चढ़ता है प्रेमी को.
मराठी फिल्म‘‘रिंगणे’’के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्मकार मकरंद माने इस बार देश की कुल्सित राजनीति के चेहरे और रक्तरंजित राजनीति के चेहेरे को बेनकाब करती फिल्म ‘‘कागर’’ लेकर आए हैं. इसमें चुनाव के चलते राजनीतिक प्रचार, कार्यकर्ताओं द्वारा किया जा रहा प्रचार, राजनीतिक उठापटक, राजनीतिक शत्रुता, शतरंजी चालें और गुरू जी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते बहते रक्त के बीच रानी व युवराज की प्रेम कहानी भी है. मगर गुरूजी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते अंततः युवराज का भी रक्त बहता है.
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कहानीः
फिल्म की कहानी का केंद्र महाराष्ट्र का ग्रामीण इलाका वीराई नगर है. जहां वर्तमन विधायक भावदया के राजनीतिक गुरू प्रभाकर देशमुख उर्फ गुरूजी (शशांक शिंदेे) पिछले 15 साल से भावदया के साथ हैं, पर किसी को नहीं पता कि राजनीतिक शतरंज के माहिर खिलाड़ी प्रभाकर देशमुख उर्फ गुरूजी (शशांक शिंदे) की अपनी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा है. फिल्म की कहानी ज्यों ज्यों आगे बढ़ती है. त्यों त्यों पता चलता है कि गुरू जी इस बार भावदया की बजाय अपनी बेटी प्रियदर्शनी देशमुख उर्फ रानी (रिंकू राज गुरू) को अपनी पार्टी से विधायक बनाना चाहते हैं. इसके लिए वह साफ्ट वेअर इंजीनियर और गन्ना किसानों के प्रति हमदर्दी रखने वाले युवक युवराज (शुभंकर तावड़े) को अपना मोहरा बनाते हैं. युवराज के मन में भावदा के प्रति नफरत यह बताकर करते हैं कि उनके पिता के वह हत्यारे हैं. युवराज और रानी एक दूसरे से सच्चा प्यार करते हैं. रानी तो युवराज के प्यार में मरने को भी तैयार है. शातिर राजनीतिज्ञ की तरह गुरू जी पार्टी के नेतृत्व को बता देते है कि इस बार वह अपनी बेटी प्रियदर्शनी देशमुख उर्फ रानी को विधायक का चुनाव लड़वाना चाहते हैं. मगर भावदया व लोगों के सामने अपने मोहरे के रूप में भैयाजी (शांतनु गांगने) में उतारते हैं. भैयाजी के चुनाव प्रचार शुरू करते ही भावदया और गुरूजी दुश्मन बन जाते हैं. फिर दोनों के बीच शीतयुद्ध शुरू हो जाता है. जिस दिन गुरू जी को पता चलता है कि रानी और युवराज मंदिर में देशादी करने जा रहे हैं, उसी दिन गुरूजी अपनी शतंरजी चाल में युवराज को ऐसा फंसाते हैं कि युवराज शादी भूलकर गुरूजी की मदद के लिए दौड़ता है, उधर मंदिर में रानी इंतजार करती रह जाती है. इसके बाद गुरूजी की चाल के अनुसार ही युवराज भैयाजी की हत्या कर देता हैं, भैयाजी की हत्या के जुर्म में विधायक भावदया जेल चले जाते हैं और गुरूजी नाटकीय तरीके से अपनी बेटी रानी को विधायक के चुनाव में खड़ा कर देते हैं. चुनाव प्रचार के दौरान रानी को अपने पिता की असलियत पता चल जाती है. रानी, युवराज मिलकर उसे जुर्म कबूल करने के लिए कहती है. रानी कहती है कि वह सजा काटकर आने तक युवराज का इंतजार करेगी, पर तभी गुरूजी अपने दलबल के साथ पहुंच जाते हैं. फिर कई लोग मौत के घाट उतारे जाते हैं. अंततः रानी के विरोध के बावजूद युवराज को भी गुरूजी मौत दे देते हैं. रानी को गुरूजी समझाते हैं कि वह जो खुद नहीं बन सके. वह उसे बनाना चाहते हैं. रानी अपनी कलाई काटकर आत्महत्या करने का असफल प्रयास करती है. अंततः चुनाव के दिन वोट देने के लिए जाते समय रानी अपने पिता से कहती है कि वह इस बात को कभी नहीं भूलेगी कि उसके पिता हत्यारे हैं. बेटी की बातों से आहत गुरूजी आत्महत्या कर लेते हैं. रानी विधायक बन जाती है. पर वह अपने प्यार व युवराज को भुला नही पायी हैं.