(दो स्टार)

फिल्म ‘हिचकी’ फेम निर्देशक सिद्धार्थ पी मल्होत्रा इस बार सौरभ शाह लिखित उपन्यास ‘‘महाराज’’ पर इसी नाम से एक पीरियाडिक फिल्म ले कर आए हैं, जो कि अदालती झंझटों का सामना करने के बाद 21 जून से ओटीटी प्लेटफौर्म ‘नेटफ्लिक्स’ पर स्ट्रीम हो रही है. सौरभ शाह ने 1862 के चर्चित ‘महाराजा लाइबल केस’ को आधार बना कर इस उपन्यास को लिखा.

इस उपन्यास में एक समाज सुधारक व पत्रकार करसनदास मूलजी के खिलाफ वैष्णव पुष्टिमार्ग संप्रदाय के धार्मिक नेता यदुनाथ द्वारा मानहानि का केस करने व अदालत में हारने की कहानी है. हकीकत में यह फिल्म धर्म के नाम पर नारी शोषण की गाथा है. निर्माता व निर्देशक ने फिल्म की शुरुआत में ही घोषित किया है कि यह सत्य घटनाक्रम पर आधारित है, मगर वह इस की सत्यता को प्रमाणित नहीं करते.

सौरभ शाह की किताब ‘महाराज’ पर किसी भी धर्मावलंबी ने विरोध नहीं जताया था, बल्कि इस पुस्तक को 2013 में पुरस्कृत किया गया था. मगर देश में जिस तरह की सरकार है, उसी के चलते कुछ हिंदू संगठनों ने इस का प्रदर्शन रूकवाने के लिए अदालत की शरण ली थी, पर अदालत ने फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति दे दी. मेरी राय में इस फिल्म में विरोध जताने वाला कोई मसला नहीं है. यह फिल्म तो 1862 के समय की ‘‘चरण सेवा’’ की कुप्रथा के खिलाफ बात करती है. ‘आश्रम’ जैसी वेब सीरीज का विरोध न करने वाले अब ‘महाराज’ के विरोध में उतरे थे.

कहानी

1862 के सर्वाधिक चर्चित अदालती केस ‘महाराजा लाइबल’ पर सौरभ शाह लिखित किताब ‘महाराज’ पर आधारित इस फिल्म की कहानी के केंद्र में पत्रकार व समाज सुधारक करसनदास मूलजी (जुनैद खान) और वैष्णव संप्रदाय की सब से बड़ी हवेली के पुजारी (मंदिर) यदुनाथ हैं. यदुनाथ हिंदू धर्म के वैष्णव पुष्टिमार्ग संप्रदाय के धार्मिक नेता थे. पुष्टिमार्ग की स्थापना 16वीं शताब्दी में वल्लभ द्वारा की गई थी और यह कृष्ण को सर्वोच्च मान कर पूजा करता है. संप्रदाय का नेतृत्व वल्लभ के प्रत्यक्ष पुरुष वंशजों के पास रहा, जिन के पास महाराजा की उपाधियां थीं.

धार्मिक रूप से वल्लभ और उन के वंशजों को कृष्ण की कृपा के लिए मध्यस्थ व्यक्ति के रूप में आंशिक देवत्व प्रदान किया गया है जो भक्त को तुरंत कृष्ण की उपस्थिति प्रदान करने में सक्षम हैं. फिल्म की शुरुआत 1840 में गुजरात के एक गांव में मूलजी भाई (संदीप मेहता) के बेटे के रूप में करसनदास मूलजी के जन्म से होती है. जो कि बचपन से ही ‘महिलाएं घूंघट क्यों ओढ़ती हैं?’ या ‘क्या देवता उन की भाषा बोल सकते हैं?’ जैसे सवाल पूछना शुरू करता है. करसन की मां की मौत के बाद उस के पिता करसनदास को बौम्बे (वर्तमान मुंबई) में उस के मामा और विधवा मासी (स्नेहा देसाई) के पास छोड़ जाते हैं. जहां पढ़लिख कर करसनदास पत्रकार के रूप में दादाभाई नौरोजी (सुनील गुप्ता) जैसे प्रगतिशील पुरुषों के साथ काम करते हुए दादाभाई नौरोजी के अखबार में समाज सुधारक लेख लिखते हैं. मसलन वह अपने लेख में विधवा विवाह की वकालत करते हैं. धार्मिक व्यक्ति होते हुए भी अंधविश्वास में विश्वास नहीं करते हैं.

करसन की सगाई किशोरी (शालिनी पांडे) से हुई है और वह जल्द शादी करने वाले हैं. किशोरी यदुनाथजी (जयदीप अहलावत) की भक्त है. होली के त्योहार वाले दिन यदुनाथजी, किशोरी को ‘चरण स्पर्श’ समारोह के लिए चुनते हैं. ‘चरण स्पर्श’ प्रथा के तहत पुजारी यदुनाथ जी हमेशा अविवाहित महिला के साथ शारीरिक संपर्क बनाते हैं, ज्यादातर उन से जिन का विवाह होने वाला होता है. ‘चरण स्पर्श’ की प्रक्रिया को आम लोग पैसा दे कर ‘हवेली’ की खिड़कियों से देख सकते हैं.

करसनदास, किशोरी को महाराज के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देख कर हर बाधा को पार कर यदुनाथ व किशोरी तक पहुंच जाता है. मगर उस वक्त किशोरी, करसन के साथ चलने से इंकार कर देती है और यदुनाथजी कहते हैं कि वह किसी भी लड़की के साथ जबरन कुछ नहीं करते. यदुनाथ, गीता के एक श्लोक को संस्कृत में पढ़ कर हिंदी में उस की गलत ढंग से व्याख्या करते हुए कहते हैं कि मोक्ष पाने के लिए भगवान को तन मन धन सब कुछ समर्पित करना होता है. तन का समर्पण ही ‘चरण सेवा’ है.
करसन, किशोरी संग विवाह करने से इंकार करने के साथ ही ‘चरण सेवा’ प्रथा पर भी सवाल उठाता है. करसन की राय में यह तो नारी का शोषण है. फिर वह आवाज उठाने का निर्णय लेता है. यदुनाथ महाराज की ‘चरण सेवा’ के खिलाफ करसन लेख लिखता है, जिसे दादाभाई नौरोजी अपने अखबार में छापने से मना कर देते हैं. उन की राय में वह ‘बड़ी हवेली’ के पुजारी यदुनाथ के खिलाफ कुछ भी नहीं छापेंगे. तब करसन अपना अखबार ‘सत्य प्रकाश’ निकाल कर उस में पुजारी यदुनाथ व ‘चरण सेवा’ प्रथा के विरोध में लेख छापता है.

करसन अपनी तरफ से समाज को शिक्षित करने की कोशिश करता है, लेकिन उस के समुदाय के लोग महाराज को अपने परिवार की महिलाओं के साथ शारीरिक संबंध बनाने में कोई बुराई देखने की बजाय उस दिन घर पर खुशी में मिठाई बनाते हैं. यदुनाथ दबाव बनाते हैं, जिस के चलते करसन के पिता भी उसे त्याग देते हैं. सभी दबाव असफल होने के बाद यदुनाथ, अदालत में करसन के खिलाफ 50 हजार रुपए का मानहानि का मुकदमा करते हैं. बौम्बे सुप्रीम कोर्ट 5 अप्रैल 1862 को करसनदास मूलजी के पक्ष में निर्णय देता है.

समीक्षा:

बतौर निर्देशक सिद्धार्थ पी मल्होत्रा ने 1862 के मुंबई को सही ढंग से चित्रित करने में सफलता पाई है. मगर पूरी फिल्म करसनदास मूलजी और पुजारी यदुनाथ महाराज के ही इर्द गिर्द सीमित है. फिल्म उस वक्त के माहौल, राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियों, वैष्णव संप्रदाय, यदुनाथ महाराज की हरकतों व करसनदास द्वारा उठाए गए कदम का समाज पर क्या असर हो रहा था, किस तरह बड़ी हवेली की छवि धूमिल हो रही थी, आदि पर यह फिल्म कुछ नहीं कहती. शायद लेखक व निर्देशक भूल गए कि 1850 से 1870 का वह कालखंड है, जब नारी की मुक्ति के बारे में बातचीत शुरू हो रही थी (मुख्य रूप से, विधवा पुनर्विवाह के आसपास की बातचीत). लेकिन यह सब पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था के दायरे में ही हो रही थी. पर फिल्म इस पर कुछ नहीं कहती.

फिल्म कहीं न कहीं करसन की यदुनाथ महाराज के साथ निजी दुश्मनी को भी दर्शाती है. अगर करसन की मंगेतर किशोरी के साथ घटना न घटती, तब भी करसन, यदुनाथ व ‘चरण सेवा’ के खिलाफ जनजागृति फैलाने का काम करते? इस सवाल का जवाब फिल्म में नहीं है. जब कभी किसी कुप्रथा पर कुठाराघात किया जाता है, तो उस का समाज पर काफी गहरा असर होता है, जिस का चित्रण फिल्म में नहीं है. इतना ही नहीं समाज सुधारक करसनदास का अपनी मंगेतर किशोरी से शादी तोड़ने की बात करना, उन के समाज सुधारक वाली छवि पर प्रश्नचिन्ह लगाता है. पर फिल्म इस तरह से कुछ नहीं कहती.

1862 तो वह काल था, जब ब्रिटिश शासन था. पर फिल्मकार इस बात को भी रेखांकित करने में विफल रहे हैं. खैर, फिल्म देख कर अहसास होता है कि निर्देशक को कथानक की संवेदनशीलता की समझ है, जिस का उन्होंने इस में पूरा ख्याल रखा है. परिणामतः किसी धर्म पर हमला न करते हुए भी फिल्म कई सवाल उठाती है. तो वहीं वैद्य भाई दाजी लाड के किरदार को अचानक जिस तरह से बिना किसी स्पष्टीकरण के साथ पर्दे पर लाया जाता है, वह लेखक व निर्देशक की कमजोरी की निशानी है.
यह निर्देशक की कुशलता ही है कि जब करसनदास अपनी मंगेतर किशोरी को यदुनाथ महाराज के साथ देखता है, तो वह परेशान होता है, मगर यह दृश्य उत्तेजक नहीं है. इंटरवल से पहले फिल्म की गति काफी धीमी है. मूल कहानी यानी कि मानहानि केस का ट्रैक देर से शुरू होता है. अदालती कार्रवाई के दौरान कोई तनाव नहीं पैदा होता. अदालती दृश्य कुछ शुष्क हैं. अदालत के बाहर जिस तरह से यदुनाथ महाराज के समर्थकों का जमावड़ा दिखाया गया है, वह गलत लगता है. इतना ही नहीं फिल्म देख कर अहसास होता है जैसे कि ब्रिटिश हुकूमत के वक्त के न्यायाधीश भी यदुनाथ महाराज से प्रभावित थे. क्या वास्तव में ऐसा था, हमें पता नहीं.

फिल्म के गीतसंगीत से 19वीं सदी का अहसास होने की बजाय लगता है कि हम वर्तमान समय के बौलीवुड में जी रहे हैं.

अभिनय:

करसनदास मूलजी जैसे सशक्त किरदार में जुनैद खान का चयन गलत ही कहा जाएगा. इस किरदार में जुनैद खान फिट नहीं बैठते. कई दृश्यों में उन का सपाट चेहरा निराश करता है. भावनात्मक दृश्यों में वह काफी निराश करते हैं. जुनैद खान को अपनी संवाद अदायगी पर काफी मेहनत करने की जरुरत है.
करसनदास के किरदार में जुनैद खान को देख कर अभिनय में उन के उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद कम ही नजर आती है. क्रोध आने पर भी क्रोध को दबा कर मुसकराने वाले अति विनम्र यदुनाथ महाराज के किरदार में जयदीप अहलावत जरुर प्रभावित करते हैं. धर्मभीरू गुजराती लहजे वाली किशोरी के छोटे किरदार में शालिनी पांडे ठीकठाक हैं. दर्शक उन्हें इस से पहले फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज’ में भी देख चुके हैं. जय उपाध्याय, संजय गोराडिया, स्नेहा देसाई, संदीप मेहता, कमलेश ओझा, प्रियल गोर, सुनील गुप्ता, उत्कर्ष मजूमदार, जेमी आल्टर, मार्क बेनिंगटन, एडवर्ड सोनेंब्लिक और वैभव तत्ववादी का अभिनय ठीकठाक है. विराज के किरदार में शरवरी वाघ खास प्रभाव नहीं डाल पाईं.

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