भारत में कई ऐसी कलाएं हैं, जो पौराणिक युद्धकलाओं पर आधारित हैं. कहींकहीं खासकर दक्षिण भारत में इन्हीं कलाओं को नृत्य में भी शामिल किया गया है. कलारिपयट्टू  एक ऐसी ही कला है.भारत में ऐसी तमाम कलाएं और कलाकौशल हैं, जिन के बारे में ज्यादातर लोग नहीं जानते. ऐसी ही एक कला है कलारिपयट्टू, जो दक्षिण भारत के केरल की पुरानी कला है. यह कला केरल के अलावा तमिलनाडु, कर्नाटक से सटे इलाकों, पूर्वोत्तर में श्रीलंका और मलेशिया के मलयाली समुदाय में प्रचलित है.

वैसे कलारिपयट्टू मूलत: मलयालम का शब्द है. युद्धकला कलारिपयट्टू लगभग 3 हजार साल पुरानी कला है. मुख्य रूप से केरल की योद्धा जातियां इस का प्रशिक्षण देती हैं. इस कला में पैर से मारना, मल्लयुद्ध और पूर्व निर्धारित तरीकों का इस्तेमाल होता है. इस का क्षेत्रीय स्वरूप केरल की भौगोलिक स्थिति के अनुसार वर्गों में बंटा हुआ है. यानी मलयालियों की उत्तरी शैली, तमिलों की दक्षिणी शैली और अंदरूनी केरल की केंद्रीय शैली हैं.

उत्तरी कलारिपयट्टू कठिन प्रविधि के सिद्धांत पर आधारित है. जबकि दक्षिणी शैली मुख्यत: आसान तरीकों का अनुसरण करती है. कलारिपयट्टू के कुछ युद्ध प्रशिक्षणों को कलाकारों ने नृत्य के रूप में ढाला है. कथकली नृत्य इसी पर आधारित है. कुछ पारंपरिक भारतीय नृत्य स्कूल अभी भी कलारिपयट्टू को अपने यहां वर्जिश में शामिल करते हैं.

केरल और तमिलनाडु में फूलीफली यह कला आज भी भारत की युद्धकलाओं की तरह आत्मरक्षा के काम आती है. यह कला व्यायाम के लिए भी उत्तम है. साथ ही यह नृत्यकला का भी अभिन्न अंग है.

सच यह है कि कलारिपयट्टू ने दक्षिण भारत के इतिहास में लंबे समय तक अपना वर्चस्व बनाए रखा है. भारतीय युद्धकला के महान आत्मज्ञानी बौद्ध धर्म ने भी इस कला का काफी प्रचारप्रसार किया और इसे चीन, जापान तक पहुंचाया. प्राचीन धर्मग्रंथों के अनुसार इस कला के प्रणेता मुनि अगस्त्य और परशुराम थे.

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