उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के सम्बन्ध में एक पत्रकार ने मजाकिया अंदाज में सोशल मीडिया पर एक अदद टिप्पणी क्या कर दी, साहब का दिमाग ही भन्ना गया. आनन-फानन में पत्रकार को उठा कर कालकोठरी में डलवा दिया. यह तो शुक्र है कि देश में अभी भी कानून का राज कायम है, तो सुप्रीम कोर्ट की फटकार खाकर यूपी पुलिस ने उसको छोड़ दिया, वरना 14 दिन में तो सत्ता के इशारे पर बेचारे का भुरकस निकल जाता. इस घटना के बाद से ही सोशल मीडिया के नफे-नुकसान पर बहस का दौर जारी है.

यह सोशल मीडिया का कमाल है कि उसने रातों-रात एक अनाम से पत्रकार को मशहूर कर दिया, और यह सोशल मीडिया का भय है जिसने यूपी की सत्ता के सबसे ताकतवर इंसान को ऐसा डरा दिया कि बेचारे गफलत में नियम-कानून ही भुला बैठे. जैसी टिप्पणी उक्त पत्रकार ने की थी, ऐसी, और इससे भी भद्दी टिप्पणियां सार्वजनिक जीवन में आये लोगों पर आये-दिन होती रहती हैं. उन पर अखबारों-पत्रिकाओं में कार्टून बनते हैं. टीका-टिप्पणियां होती हैं. कभी-कभी तो कार्टून के साथ की गयी टिप्पणियां काफी तीखी भी होती हैं, मगर यह बातें आयी-गयी हो जाती हैं. जनता भी जानती है कि हकीकत क्या है, और हंसी-मजाक क्या, इसलिए ऐसी टिप्पणियों पर कोई ज्यादा ध्यान भी नहीं देता है. मगर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जी तो इतना घबरा गये कि उन्होंने टिप्पणी करने वाले के पीछे पुलिस छोड़ दी. दरअसल सारा मामला एक महिला के वीडियो से जुड़ा हुआ था. इसी वीडियो को देखने के बाद पत्रकार महाशय ने मुख्यमंत्री पर मजाकिया टिप्पणी की थी. सोशल मीडिया पर उनकी टिप्पणी पर दो-चार लोगों ने कमेंट भी दे मारे थे. बस, मुख्यमंत्री साहब तो डर गये. बात जहां एकाध दिन में आयी-गयी हो जाती, वहीं पत्रकार की गिरफ्तारी और फिर सरकार को सुप्रीम कोर्ट की फटकार पड़ने के बाद यह घटना राष्ट्रीय स्तर के मीडिया में छा गयी. बस फिर क्या था, कौतूहलवश देश के लगभग शत-प्रतिशत जागरूक लोगों ने उस महिला का वीडिया देखा और जो लोग हिन्दी बोलना-समझना नहीं जानते थे, उनके लिए वीडियो को अनूदित भी किया गया. इस घटनाक्रम के बाद जहां एक गुमनाम से पत्रकार साहब रातों-रात फेमस हो गये, वहीं मुख्यमंत्री साहब को क्या मिला सिवाय नुकसान के?

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अब सोशल मीडिया के डर का दूसरा उदाहरण देखिए. छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले के डोंगरगढ़ थाना अंतर्गत ग्राम मुसरा निवासी मांगेलाल अग्रवाल ने अपने क्षेत्र में बिजली कटौती को लेकर सोशल मीडिया पर एक वीडियो पोस्ट किया. बेचारे उमस भरी गर्मी में बिजली कटौती से परेशान थे, तो दिल का दर्द सोशल मीडिया पर जाहिर कर दिया. वहीं महासमुंद के दिलीप शर्मा ने अपने वेब मोर्चा पोर्टल पर 50 गांवों में 48 घंटे बिजली बंद होने की खबर चला दी. इस पर बिजली के मुद्दे पर नाकाम सरकार ने बौखलाहट में भर कर घोर अलोकतांत्रिक कदम उठा लिया. इन दोनों के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हो गया. बिजली कम्पनी के डीई एसके साहू की शिकायत पर 12 जून की रात 11 बजे पुलिस ने दिलीप शर्मा को उनके घर से बनियान-टॉवेल में ही उठा लिया. बेचारे को कपड़े तक नहीं पहनने दिये. सत्ता में बैठे लोगों पर सोशल मीडिया का भय इस तरह तारी है कि आम जनता का इस पर अपनी परेशानियां शेयर करना ही गुनाह हो गया है और चैनलों पर सच दिखाना तो कब का बंद हो चुका है. कोई गलती से सच दिखा देता है तो उसका वही हाल होता है जो दिलीप शर्मा का हुआ. खैर, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल उठा तो यहां भी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल बैकफुट पर आ गये. मजबूरीवश उन्हें दोनों मामले वापस लेने पड़े. उनको यह भी कहना पड़ा कि उनकी सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की प्रबल पक्षधर है. खैर दोनों गिरफ्तार प्राणियों को जमानत मिली, मगर मुकदमा अभी जारी है. विद्वेष फैलाने का आरोप अभी दोनों पर है, पुलिस ने सिर्फ राजद्रोह की धारा हटायी है.

मजेदार बात यह है कि सोशल मीडिया से डरे राजनेता अपनी पार्टी के लोगों को भी नहीं बख्श रहे हैं. असम के मोरीगांव जिले में भाजपा आईटी सेल के सदस्य नीतू बोरा को उनके ही मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने गिरफ्तार करवा दिया. नीतू बोरा पर आरोप है कि उन्होंने अपने निजी सोशल मीडिया हैंडल से एक पोस्ट किया, जिसमें उन्होंने लिखा कि भाजपा सरकार प्रवासी मुस्लिम से स्थानीय असमियों की रक्षा करने में नाकाम रही है. उन्होंने यह भी लिखा कि इस स्थिति के लिए मुख्यमंत्री सोनोवाल जिम्मेदार हैं. बस फिर क्या था. नीतू बोरा को साम्प्रदायिकता फैलाने की कोशिश और मुख्यमंत्री के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. हालांकि बाद में बोरा को भी जमानत मिली, मगर मुकदमा कायम है.

पिछले कुछ समय से देशभर में सोशल मीडिया पर राजनेताओं के खिलाफ टिप्पणी करने वालों की गिरफ्तारी के मामले बढ़े हैं. सत्ता के इशारे पर पुलिस ऐसे लोगों से अपराधियों जैसा सलूक करने लगी है जबकि सोशल मीडिया पर विवादित टिप्पणी के लिए आईपीसी व अन्य कानूनों के तहत प्रावधान मौजूद हैं. सुप्रीम कोर्ट वर्ष 2015 में ही आईटी एक्ट की धारा 66-ए को असंवैधानिक करार देकर रद्द कर चुका है. यह धारा सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक पोस्ट करने वालों को गिरफ्तार करने की शक्ति देती थी. जाहिर है, अब इस मामले में सामान्यत: किसी को अरेस्ट नहीं किया जा सकता है. मगर सत्ता मद में चूर लोग संविधान और कानून की धज्जियां उड़ाने से बाज नहीं आते. अब आलोचना को सुनने-सहने और उस पर चिन्तन करने का दौर नहीं है. आलोचना करने वाले की जुबां काट लेने का दौर है. अपना दर्द कहने वाले को मौत की नींद सुला देने का दौर है. सोशल मीडिया पर ‘मी टू कैम्पेन’ चलने के बाद से तो हर रसूखदार और तथाकथित ‘क्लीन कौलर आदमी’ दहशत में है.

भारत में सोशल मीडिया का अनुभव ज्यादा पुराना नहीं है. अन्य देशों के समाज ने जहां इसके साथ स्वाभाविक सम्बन्ध बना लिये हैं और इसके लिए जरूरी सहिष्णुता भी विकसित कर ली है, वहीं भारत में सोशल मीडिया वाक्-युद्ध के अखाड़े के रूप में विकसित हुआ है. इस क्रम में यहां तमाम शिष्टता और शालीनता की धज्जियां उड़ रही हैं. सोशल मीडिया पर विरोधियों को गंदी गालियां देना, उनकी इमेज या उनके धर्म को टारगेट करना, उनके निजी जीवन पर हमला करना और यहां तक कि उनके चेहरे, शरीर, पहनावे, हेयर स्टाइल तक पर कमेंट करना आम चलन हो गया है. सोशल मीडिया पर खुद को अभिव्यक्त करने की आजादी का संयमित इस्तेमाल लोगों को नहीं आता है. उन्हें नहीं पता कि विरोध की भी एक गरिमा होती है. हाल के दिनों में जिस तरह पॉलिटिकल पार्टियों और नेताओं पर अपमानजनक टिप्पणियां देखने को मिल रही हैं, उसके जिम्मेदार खुद राजनेता ही हैं, जिन्होंने पहले अपने फायदे के लिए सोशल मीडिया को राजनीति का मैदान बनाया और अब जब क्रिया की प्रतिक्रिया हो रही है तो वे उस प्रतिक्रिया को दबाने के लिए गैरकानूनी रास्ते इख्तियार कर रहे हैं. पिछले कुछ समय से सियासी कटुता बहुत बढ़ी है. इस माहौल का दबाव पुलिस-प्रशासन पर भी काफी है. वह सत्ता पक्ष से जुड़ी किसी भी तरह की आलोचना के खिलाफ सख्त कदम उठाकर अपनी तत्परता दिखाना चाहता है. उपरोक्त सभी घटनाएं इसी का उदाहरण हैं. आज सोशल मीडिया पर अपने विरोध को सहजता से लेने के बजाय राजनेता ही नहीं, उनके तमाम समर्थक भी विरोधी पक्ष को मुंहतोड़ जवाब देने पर आमादा हुए जाते हैं.

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