महिलाओं को भी शौच की स्वाभाविक जरूरत होती है. पुरुष तो अपनी इस स्वाभाविक जरूरत को दीवारों, पेड़ों, गली, नुक्कड़ या चौराहों के दबेछिपे कोनों में पूरी कर लेते हैं लेकिन महिलाओं, स्थिति कितनी ही दबावभरी हो, के पास यह विकल्प नहीं होता. महिलाओं के पास 2 ही रास्ते बचते हैं–या तो वे घंटों अपनी यूरीन पास करने की स्वाभाविक प्रक्रिया को रोक कर रखें या फिर ऐसे पब्लिक टौयलेट्स का इस्तेमाल करें जहां से वे संक्रमण ले कर बाहर निकलें.

सेहत का खतरा

यह समस्या हर उस महिला की है जो घर से बाहर निकलती है. पब्लिक टौयलेट के अभाव में वह अपनी इस स्वाभाविक जरूरत को घंटों दबा कर रखती है और अनेकानेक बीमारियों को आमंत्रण देती है. आसपास वाशरूम न होने के कारण कई बार तो वे घंटों पानी नहीं पीतीं. ऐसी स्थिति में वे डीहाइड्रेटेड भी हो जाती हैं. महानगरों में यदि मौल्स को छोड़ दिया जाए तो बड़ी दुकानों या भरे बाजारों में भी सार्वजनिक शौचालय की व्यवस्था नहीं होती. फील्ड में काम करने वाली महिलाएं इस नजर से खासी परेशान रहती हैं. डाक्टरों का मानना है कि शौचालय न होने की वजह से जो महिलाएं बहुत देर तक यूरीन पास नहीं कर पातीं उन्हें यूरीन इनफैक्शन और किडनी इनफैक्शन होने का खतरा रहता है. ज्यादा देर तक यूरीन रोकने से उन्हें पेटदर्द का सामना करना पड़ता है.

सुरक्षा का खतरा

ग्रामीण इलाकों में भारत की तकरीबन 30 करोड़ महिलाएं और लड़कियां खुले में शौच करने को मजबूर हैं. इन में अधिकांश महिलाएं गरीब परिवारों से होती हैं. हैरानी की बात है कि आजादी के 69 साल बीत जाने के बाद भी देश की महिलाएं खुले में शौच करने के लिए मजबूर हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार, देश के 53 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं हैं. ग्रामीण इलाकों में यह प्रतिशत 69.3 है. देश में शौचालय की उपलब्धता के मामले में सब से दयनीय स्थिति झारखंड व ओडिशा की है, जबकि सब से अच्छी स्थिति केरल की है. घरों में शौचालय के अभाव में जब महिलाएं खुले में शौच के लिए जाती हैं तो लड़के न केवल उन्हें घूरते हैं बल्कि अश्लील बातें भी करते हैं. और बहुत बार तो बलात्कार तक हो जाते हैं. बलात्कार के डर से शौच करने जाना तो छोड़ा नहीं जा सकता और इसलिए बलात्कारियों के लिए शौचालय का न होना सरकारी वरदान है.

पिछले साल बदायूं जिले के एक गांव में शौच के लिए घर से बाहर गई 2 युवतियों के साथ न केवल बलात्कार की घटना घटी, बल्कि बलात्कार के बाद उन की हत्या भी कर दी गई. इस घटना के बाद राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने एक बयान जारी करते हुए कहा था कि अगर देश में ज्यादा शौचालय होंगे तो बलात्कार जैसी घटनाओं में कमी आएगी. गांवों में महिलाओं की निजता की रक्षा के लिए घूंघट में रहने के आदेश दिए जाते हैं, जबकि शौच के लिए उन्हें खुले में जाना पड़ता है. इसी सोच को बदलने के लिए ‘जहां सोच वहां शौचालय’ वाली टैगलाइन से अभिनेत्री विद्या बालन ने एक विज्ञापन के जरिए ग्रामीण इलाकों में लोगों को जागरूक करने का सरकारी फर्ज निभाया. शौचालयों के अभाव में बड़ी संख्या में देश की लड़कियां माहवारी शुरू होने पर स्कूल जाना बंद कर देती हैं. एक उदाहरण ही है, जमशेदपुर से करीब 50 किलोमीटर दूर सरायकेला जिले में पर्याप्त शौचालय न होने के कारण तकरीबन 200 छात्राओं ने स्कूल जाना छोड़ दिया. कितनी हैरानी की बात है कि शौचालय की कमी की वजह से महिलाओं व लड़कियों की सुरक्षा, सम्मान और उन का विकास सबकुछ दांव पर लग जाता है.

महिलाओं के प्रति भेदभाव

अगर राजधानी दिल्ली की बात की जाए तो दिल्ली में एमसीडी के अधिकांश पुरुष शौचालय आप को खुले मिलेंगे लेकिन महिला शौचालय बंद ताला लगे मिलेंगे. अगर खुले मिल भी गए तो वे प्रयोग करने लायक नहीं होंगे. या तो वे बेहद गंदे होंगे या उन के दरवाजे टूटे होंगे या फिर लाइट व पानी की उचित व्यवस्था नहीं होगी. इस के अतिरिक्त आप को यह जान कर हैरानी होगी कि जहां पुरुषों के लिए सार्वजनिक शौचालय का प्रयोग करने के लिए कोई फीस नहीं ली जाती वहीं महिलाओं को इस काम के लिए फीस चुकानी पड़ती है. अगर इस का कारण पूछा जाए तो जवाब मिलता है, ‘महिलाओं को अधिक पानी व सफाई के सामान की आवश्यकता होती है. महिलाओं की प्राइवेसी की खातिर दरवाजा, पानी व बैठने के लिए अधिक जगह की भी जरूरत होती है,’ पीरियड के समय तो महिलाओं को डस्टबिन व अधिक पानी की जरूरत होती है. है न हैरानी की बात.

प्राकृतिक जरूरत के नाम पर भी महिलाओं को भेदभाव का सामना करना पड़ता है. यही कारण है कि घर से बाहर निकलने वाली पढ़ीलिखी शहरी महिलाएं अपनी इस प्राकृतिक जरूरत से निवृत होने के लिए मौल्स, रेस्टोरैंट व कैफे का सहारा लेती हैं. जरूरत है कि शहरों में हर 500 मीटर पर साफ व सुरक्षित सार्वजनिक शौचालय हों जहां पर्याप्त सुविधाएं हों. पर यह भी कौन करे?

मुंबई के कई गैर सरकारी संगठन महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालय की बेहतर व्यवस्था की मांग कर रहे हैं. यह मांग 33 गैर सरकारी संगठनों द्वारा की जा रही है. ऐसा इसलिए है क्योंकि 2.2 करोड़ की आबादी वाले मुंबई शहर में भुगतान कर के प्रयोग किए जाने वाले 11 हजार शौचालयों में से केवल एकतिहाई शौचालय महिलाओं के लिए हैं. जो शौचालय मौजूद हैं वे भी खस्ता हालत में हैं. टूटे दरवाजे, गंदगी, लाइट व पानी का अभाव, महिलाओं को इन के प्रयोग से भी रोक देता है. स्लम एरिया में रहने वाली महिलाओं को तो अकसर सुनसान जगह का सहारा लेना पड़ता है जहां उन के यौन उत्पीड़न की आशंका बनी रहती है.

सार्वजनिक शौचालय महिलाओं की स्वाभाविक व मानवीय जरूरत है. यह बात समझना जरूरी है कि घरों के भीतर शौचालय जहां किसी की व्यक्तिगत जिम्मेदारी है वहीं सार्वजनिक क्षेत्र, चाहे वह बाजार हो या औफिस में इस सुविधा को उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है. संयुक्त राष्ट्र की 2014 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में प्रति 100 व्यक्ति मोबाइल फोन की संख्या अधिक है और शौचालय की कम. ऐसे में यह सवाल उठता है कि सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं की इस आधारभूत जरूरत की तरफ नीतिनिर्माताओं का ध्यान क्यों नहीं जाता? अब जबकि महिलाएं घर से बाहर हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं, ऐसे में स्वच्छ व सुरक्षित सार्वजनिक शौचालय की सुविधा का मिलना हर महिला का बुनियादी अधिकार है. कहीं यह महिलाओं को घर की चारदीवारी में रखने की साजिश तो नहीं.

शिक्षा पर असर

नैशनल इंस्टिट्यूट औफ एजुकेशन प्लानिंग ऐंड ऐडमिनिस्ट्रेशन के द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, देशभर में सिर्फ 32 प्रतिशत स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था है जबकि ग्रामीण इलाकों में यह प्रतिशत 29.41 प्रतिशत ही है. नियमानुसार स्कूलों में हर 40 बच्चों पर एक शौचालय होना चाहिए, जबकि बालिकाओं के लिए 25 बालिकाओं पर एक शौचालय का नियम है. लेकिन वास्तविकता के धरातल पर ऐसा कुछ भी नहीं है. अधिकांश सरकारी विद्यालयों में यह नियम लागू नहीं होता है. अधिकांश सरकारी विद्यालयों में कुल 2 शौचालय होते हैं वह भी खराब व खस्ता हालत में. इस वजह से मासिकधर्म के समय अधिकांश छात्राएं स्कूल नहीं आतीं.

लव्बोलुआब यह है कि देश व राज्य की सरकारों के साथसाथ स्थानीय नागरिक प्रशासन को जगहजगह शौचालय बनवाने पर ध्यान देना चाहिए. सरकारी स्तर के अलावा समाजसेवी संगठनों को भी इस अहम सामाजिक कार्य में सक्रिय भागीदारी निभानी चाहिए. यह महिलाओं की ही नहीं, सभ्य समाज की भी जरूरत है. महिलाओं का सम्मान बाकी रहेगा तो विश्व की नजर में देश का सम्मान बढ़ेगा.

पोर्टेबल शौचालय- पी बडी

आज की आधुनिक महिलाएं घर की चारदीवारी को लांघ कर औफिसों में काम कर रही हैं. इस बाबत उन्हें कई बार ट्रेन व हवाई सफर भी तय करना पड़ता है. ऐसे में सार्वजनिक शौचालय के प्रयोग से यूरिनरी ट्रैक्ट इनफैक्शन (यूटीआई) होने का खतरा रहता है. इस के अलावा कई बार इंडियन पद्धति के शौचालय में बुजुर्ग महिलाएं जोड़ों के दर्द की वजह से नहीं जा पातीं. इन सभी परेशानियों से बचने के लिए पोर्टेबल शौचालय यानी पी बडी बाजार में आ गया है. यह एक नली जैसी किट है, जिस का प्रयोग महिलाएं खड़े हो कर कर सकती हैं. इसे आसानी से बैग में रखा जा सकता है व प्रयोग के बाद फेंका जा सकता है. भारत में यह किट औनलाइन और कुछ स्टोर्स में उपलब्ध है. पी बडी 5, 10 या 20 के पैक में विभिन्न औनलाइन शौपिंग साइट्स पर क्रमश: 120, 200 और 350 रुपए में उपलब्ध हैं.

महिलाएं हो रही हैं मुखर

–       शौचालय का न होना इतनी बड़ी कमी है कि महिलाएं अब अपने इस अधिकार के लिए स्वयं लड़ रही हैं.

–       पटना के एक गांव की महिला ने 4 साल की लंबी लड़ाई लड़ कर घर में शौचालय बनवाने की जंग जीती.

–       उत्तर प्रदेश के खेसिया गांव की 6 बहुओं ने इस मांग के साथ अपना ससुराल छोड़ दिया कि जब घर में शौचालय बनेगा, तभी वे ससुराल लौटेंगी.

–       हरियाणा के भिवानी जिले की एक महिला ने शौचालय के निर्माण की खातिर अपनी भैंस को बेच दिया.

VIDEO : मैटेलिक कलर स्मोकी आईज मेकअप

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