संसद में सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का बिल पारित करा कर वर्णव्यवस्था की समर्थक भाजपा सनातनी जाति व्यवस्था के रूप को कायम रखने में कामयाब रही है.
‘आरक्षण हटाओ, देश बचाओ’ का नारा लगाने वाले सवर्ण अचानक इस निर्णय से खुशी से झूम उठे हैं पर असल में यह फैसला पहले से विभाजित समाज में एक और सामाजिक वर्गीकरण है. अब सवर्णों में गरीबों की एक दलित जाति बना दी गई है. तय है कि सवर्णों में भेदभाव की एक और दीवार खड़ी दिखाई देगी.
बिना किसी होहल्ले के सरकार अचानक गरीब अगड़ों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव ले कर आई और अगले 3 दिनों में उसे लोकसभा व राज्यसभा से बिना किसी विरोध के पारित करवा लिया. बिल भारी बहुमत से पास हुआ. लोकसभा में बिल के पक्ष में 323 वोट और विपक्ष में मात्र 3 वोट पड़े जबकि राज्यसभा में पक्ष में 165 और विपक्ष में 7 वोट ही पड़े. जाहिर है, लगभग सभी विपक्षी दलों ने इस बिल का समर्थन करने का फैसला किया ताकि कल उन पर कोई आरोप न लगे.
लोकसभा चुनावों से 3 महीने पहले आए सरकार के इस फैसले को कहने को सवर्ण वोटों को खुश करने के रूप में देखा जा रहा है पर यह उस का सनातनी एजेंडा है जो सवर्णों को खुश करने के लिए भी लौलीपौप का काम करेगा.
इस आरक्षण से सामाजिक भेदभाव की खाई पटने के बजाय और चौड़ी हो जाएगी. गरीब अगड़ों के आंकड़ों के बिना संसद में पारित किया गया यह बिल पहले से जारी जातिव्यवस्था के शिकार वर्गों के आरक्षण को खत्म करने और जातियों की खाई को और बढ़ाने के लिए काफी है.
इस आरक्षण के मसौदे में गरीबों के लिए आय की सीमा निर्धारित की गई है. इस में सालाना 8 लाख रुपए से कम वार्षिक आय, 5 एकड़ से कम जमीन का मापदंड रखा गया है. पहली ही नजर में आरक्षण के दायरे में लाए गए सभी लोगों को गरीब बताना धोखा है.
इस पर विवाद शुरू हो गया है. सवर्णों के लिए 8 लाख रुपए आय की सीमा अधिक है. एक तरफ 4 लाख सालाना आय वाला शख्स आयकर देता है और आयकर देने वाला वर्ग मलाईदार श्रेणी में माना जाता है तो फिर 8 लाख कमाने वाला सवर्ण गरीब कैसे कहलाएगा.
सरकार के पास इस बात के आंकड़े नहीं हैं कि कितने लोग इस आरक्षण के दायरे में आएंगे. सालाना 8 लाख रुपए की कमाई वाले कितने लोग हैं? अनुमान है कि अगड़ी जातियों का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा इस आरक्षण के दायरे में होगा.
यह आरक्षण जातियों में प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या को और बढ़ाना शुरू कर देगा. अब सब जातियां अपनीअपनी आबादी के हिसाब से आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने की मांग करने लगेंगी. केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने ओबीसी के लिए 54 प्रतिशत और कुल आरक्षण 90 प्रतिशत करने की मांग की है.
दरअसल, आरक्षण देश में हमेशा से एक संवेदनशील राजनीतिक मुद्दा रहा है. खासतौर से, 1991 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से आरक्षण की राजनीति खूब चलने लगी. गरीबों को आरक्षण देने की मांग उठने लगी और कई बार इस के प्रयास भी हुए.
पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव ने अपने कार्यकाल में मंडल आयोग की रिपोर्ट के प्रावधानों को लागू करते हुए अगड़ी जातियों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की थी पर सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने इसे खारिज कर दिया था.
सवर्णों को आरक्षण देने के पीछे अभी कई सवाल हैं. इस आरक्षण से क्या पहले से आरक्षित दलित, पिछड़ी जातियां नाराज हो कर सामाजिक विद्रोह नहीं छेड़ देंगी? वे भाजपा के खिलाफ नहीं उठ खड़ी होंगी? अगर अगड़ी जातियां इस लौलीपौप से भाजपा के पास आ भी गईं तो क्या वह उन के बूते 2019 की चुनावी वैतरणी पार कर सकेगी? सरकार केवल 2019 की सोच रही है. उसे उस के अगले 20-30 वर्षों में पड़ने वाले असर की कोई चिंता नहीं है.
पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में संघ की नीति का रूप सामने आया जब दलित जातियां एट्रोसिटी के चलते भाजपा सरकार से खासी नाराज हुईं. अदालत के फैसले के खिलाफ दलितों ने भारत बंद भी किया था. पिछले साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने एससी, एसटी एक्ट में बदलाव करते हुए कहा था कि मामलों में तुरंत गिरफ्तारी नहीं की जाएगी. शिकायत मिलने पर तुरंत मुकदमा भी दर्र्ज नहीं होगा. पहले एसपी स्तर का पुलिस अधिकारी मामले की जांच करेगा.
विरोध के चलते केंद्र सरकार इस के खिलाफ अगस्त में बिल ले कर आई. इस के जरिए पुराने कानून को बाहर कर दिया गया. दलितों की नाराजगी दूर करने की कोशिश की गई तो इस एक्ट से सवर्ण नाराज हो गए थे.
कहने को मोदी सरकार का गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण उन के आर्थिक उत्थान के लिए है लेकिन दरअसल, यह भाजपा की नीतियों के अनुसार धर्मजनित जन्मजात जातिव्यवस्था को बनाए रखने के लिए है. संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बात नहीं है.
सदियों से जातिव्यवस्था के चलते वंचित तबके के शैक्षिक और सामाजिक उत्थान के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई. इस आरक्षण से संविधान की मूल भावना खत्म होने के खतरे बढ़ गए हैं. पहले से ही सदियों की जातिवादी संकीर्ण सोच से समाज उबर नहीं पाया है.
सरकार 5 साल में ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं बना पाई कि सवर्ण गरीबों की सहीसही संख्या का पता चल सके. पिछड़ा वर्र्ग को आरक्षण देने के लिए पहले से मंडल कमीशन बना था, उस की रिपोर्ट सरकार के पास थी.
भाजपा ने इस बिल से अपने परंपरागत अगड़ी जातियों खासतौर से ब्राह्मणों को खुश करने की कोशिश की है जो एससी, एसएटी एक्ट पर अध्यादेश लाने को ले कर पार्टी से नाराज बताए जा रहे थे. 3 हिंदीभाषी राज्यों में यह ब्राह्मणों का विद्रोह था जिस ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तख्ता पलट दिया. इन के झूठे, खोखले विकास के प्रचार के सहारे जनता भ्रमित थी. एससी, एसटी एक्ट से अगड़ों की नाराजगी ने भाजपा को जमीन पर ला दिया. दरअसल यह हार दलितों व पिछड़ों के कांग्रेस में लौट जाने की वजह से हुई है. ऊंची जातियां शोर मचा रही हैं पर वे वोट भाजपा को ही देंगी.
सुप्रीम कोर्ट ने एमआर बालाजी बनाम स्टेट औफ मैसूर मामले में सितंबर 1962 में फैसला दिया था कि किसी भी स्थिति में आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए. इस फैसले का आधार कोर्ट ने मैरिट को कुंठित न होने देना बताया था. तब से ले कर आज तक लगभग हर फैसले में यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट की 9 सदस्यीय संविधान पीठ ने इंद्रा साहनी मामले में भी इसे बहाल रखा.
सभी वर्गों के युवाओं को आज नौकरियों की सख्त जरूरत है. सरकार ने संसद में बताया भी है कि 24 लाख पद आज भी खाली पड़े हैं. पर सवाल वही है कि आरक्षण कानून के बाद भी इन पदों को भरने की कोई मंशा नहीं दिखाई देती.
भाजपा सरकार जाति, धर्म के दायरे से बाहर निकल ही नहीं पाई है. उस के हर फैसले में कहीं न कहीं हिंदुत्व का साया चिपका हुआ है. संविधान में आरक्षण का मूल उद्देश्य खो गया है. आरक्षण का मकसद जातीय भेदभाव खत्म कर बराबरी स्थापित करना था. पर सरकार के इस ताजा कदम से जातीय विभाजन और बढे़गा.
दरअसल, इस कदम से मोदी सरकार ने मैरिट के तर्क को ही खत्म कर दिया है. आज आरक्षण ही सब को चलाएगा तो मैरिट के आधार पर यानी योग्यता की बदौलत नौकरी की बात नहीं होगी. सब आरक्षण की बैसाखी पर सवार रहेंगे. यह देश के लिए भी नुकसानदायक कदम होगा. जो अगड़ी जातियां अब तक मैरिट को महत्त्व देने की बात कह आरक्षण का विरोध करती आई थीं वे भी अब आरक्षण का लौलीपौप देख चुप हो गई हैं.