शाम 6 बजते ही जहां सब को घर निकलने की जल्दी होती थी, वहीं संतोष पूरी तसल्ली से अपने कंप्यूटर में सिर घुसाए बैठे रहते थे. काम भी ऐसा ज्यादा नहीं था कि औफिस टाइम में खत्म न हो, उन की पत्नी का कहना है कि वे कभी 9 बजे से पहले घर पहुंचते ही नहीं हैं.संतोष का घर जाने का जैसे मन ही नहीं करता, वे 9 बजे तक वहां क्या करते हैं, वही जानें.
संतोष का कहना है, ‘‘घर पहुंचते ही निशा दिमाग खाने लगती है. हमेशा हमारा किसी न किसी बात पर झगड़ा हो जाता है. इस से तो अच्छा है कि देर से जाओ और खाना खा कर चुपचाप सो जाओ, फिर सुबह निकल लो.’’
बीते 3 दशकों में भारतीय परिवारों में घरेलू हिंसा, दहेज और तलाक के मामलों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है. आम धारणा यह है कि पारिवारिक कलह और बिखराव का मुख्य कारण औरतें हैं, जो अपने अहं के कारण अपने पति व परिवार के दूसरे लोगों को महत्त्व नहीं देती हैं.
ऐसे बहुतेरे लोग हैं जिन का वैवाहिक जीवन गड़बड़ाया रहता है, पर वे उसे संभालने की कोशिश नहीं करते. शायद वे उसे नियति मान लेते हैं या फिर महिलाओं की अपेक्षाओं पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझते. वे गृहस्थी को ढोल की तरह गले में लटकाए चलते हैं. समाज में गृहस्थी को बोझ बताने वाले लोगों की कमी नहीं है, लेकिन इसे ऐसा मसला नहीं माना जाता जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए.
डाक्टर कहते हैं कि वैवाहिक जीवन की अशांति हमारे मन पर ही नहीं, तन पर भी गहरा असर डालती है. इस के चलते महिलाएं गंभीर रोगों, जैसे डायबिटीज, ब्लडप्रैशर, हार्ट की समस्याएं, व्यग्रता, मानसिक असंतुलन, भूलने की बीमारी, तनाव आदि की शिकार हो जाती हैं, तो पुरुष भी तनाव, हाई ब्लडप्रैशर, हार्ट व मैंटल डिजीज के शिकार बनते हैं.
अमेरिका के ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी में हुए एक अध्ययन के मुताबिक, वैवाहिक झगड़ों का स्वास्थ्य पर घातक असर पड़ता है. पतिपत्नी के रोजाना के झगड़े उन के पाचनतंत्र पर भी गहरा असर डालते हैं. लगातार मानसिक अशांति और लड़ाईझगड़ों से एसिडिटी, कब्ज और यहां तक कि आंतों में छेद तक हो जाता है, जिस से अनपचा खाना और बैक्टीरिया खून में मिल सकते हैं. नतीजतन, पेट में सूजन और दूसरी तरह की बीमारियां होती हैं.
शोधकर्ता कहते हैं कि ज्यादातर बीमारियों की शुरुआत स्ट्रैस यानी तनाव से होती है और आज के वक्त में लगभग हर घर में किसी न किसी प्रकार का तनाव पसरा हुआ है.
अगर आप का पार्टनर आप का स्ट्रैस दूर करता है तो आप स्वस्थ रहते हैं, लेकिन जब वही स्ट्रैस देने लगता है तो आप के शरीर पर कई तरह के दुष्प्रभाव पड़ने लगते हैं. 65 वर्षीय रणवीर कपूर कहते हैं कि उन से 10 साल छोटे उन के भाई की मौत सिर्फ इसलिए हो गई क्योंकि उस की अपनी पत्नी से नहीं बनती थी. वैवाहिक जीवन को सुखद बनाने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए.
सासबहू विवाद के नए ढंग
शीला कहती है, ‘‘मेरे सासससुर भले दूसरे घर में रहते हैं, मगर मेरी सास इतनी शातिर है कि फोन करकर के मेरे पति को मेरे खिलाफ भड़काती रहती है. कोई न कोई ऐसी बात कह देती है कि ये मुझ से लड़ाई कर लेते हैं. फिर हफ्तों बात नहीं करते. जब लड़ाई करते हैं तो फिर हर रोज रात को शराब पी कर आने लगते हैं और इस का सारा दोष मुझे देते हैं कि मैं उन की मां की इज्जत नहीं करती. हमारे बीच लड़ाईझगडे़ का असर मेरी बड़ी हो रही बेटी पर भी पड़ रहा हैं.’’
सासबहू का रिश्ता भारतीय परिवारों में सब से खराब रिश्ता माना जाता है. इन दोनों की आपस में कभी पटती नहीं है. सास भले उम्र में बहू से बड़ी हो मगर वह हर बात में उस का मुकाबला करने और अपना हाथ ऊपर रखने की कोशिश करती है. वहीं, शिक्षित और नौकरीपेशा बहुएं भी सास की बातों को सहने के बजाय दोटूक जवाब देती हैं. ताली दोनों हाथों से बजती है. अब ज्यादातर संयुक्त परिवार टूट चुके हैं, जेठानीदेवरानी, भाभीननद के बीच तूतूमैंमैं के मौके बहुत कम हो गए हैं.
घर बना साजिशों का अखाड़ा
भारतीय समाज में सासबहू या ननदभाभी में नोकझोंक हमेशा से होती रही है, लेकिन जब इस रिश्ते में इतनी कड़वाहट आ जाए कि उस का असर पतिपत्नी को तलाक की तरफ ढकेलने लगे तो बेहतर होगा कि संयुक्त परिवार से अलग हो जाएं. ज्यादातर संयुक्त परिवारों के टूटने का कारण भी यही है. एकल परिवारों के मुकाबले संयुक्त परिवारों में पौलिटिक्स ज्यादा होती है, क्योंकि वहां सास, बहू, ननद, जेठानी सभी अपनीअपनी सत्ता बनाना चाहती हैं. जहां उन्हें लगने लगता है कि उन का वर्चस्व कम हो रहा है, वहां वे अपनी तिकड़मों से एकदूसरे को कमतर दिखाने को तत्पर हो जाती हैं. फिर चाहे इस के लिए उन्हें कुछ भी क्यों न करना पड़े, वे हिचकती नहीं हैं.
रंजना की सास उस से इसलिए चिढ़ती थी क्योंकि रंजना बेहद खूबसूरत थी और बड़े सलीके से कपड़े पहनतीओढ़ती थी. वह पढ़ीलिखी तो थी ही, उस का बात करने का लहजा भी काफी मधुर था. लिहाजा, ससुराल आते ही सब का स्नेह उसे मिलने लगा, खासतौर पर बाबूजी और उस के जेठ का. पति तो पहले ही रंजना का गुलाम था. बस, यही बातें सास के लिए जलन का सबब बन गईं और उस ने छोटीछोटी बातों पर उसे टोकनाडांटना शुरू कर दिया.
मजबूरी में रंजना ने हमेशाहमेशा के लिए अपनी ससुराल छोड़ दी. शुरूशुरू में बाहर से आई लड़की पर अपना वर्चस्व दिखाने की चाहत में सास उस के कामों में कमियां निकाल कर टोकाटाकी करती है, वहीं बहू भी अपनी प्रतिभा दर्शाने की इच्छुक होती है. छोटीछोटी बातों को ले कर दोनों के बीच मतभेद शुरू होता है.
जैसे, अगर नई बहू ने सास की मरजी के बिना रसोई में कोई बदलाव कर दिया तो यह सास को नागवार गुजरता है या बेटे ने किसी बात में अपनी पत्नी का साथ दे दिया तो सास को यह लगने लगता है कि बहू ने उन का बेटा छीन लिया.
सारी बातें धीरेधीरे दोनों के रिश्ते में कड़वाहट घोलने लगती हैं और फिर घर, घर न रह कर राजनीति का अखाड़ा बन जाता है, जिस में सासबहू अपनीअपनी चालों से एकदूसरे को शिकस्त देने की नापाक कोशिशों में जुट जाती हैं.
घरेलू राजनीति के संबंध में गुरुग्राम के एक कौल सैंटर में कार्यरत शालिनी अरोड़ा कहती हैं, ‘‘मेरी शादी को 12 साल हो चुके हैं. मेरे 2 बच्चे हैं, 10 साल की बेटी और 8 साल का बेटा. जब तक मैं सासससुर के साथ थी, आएदिन मेरा घरेलू राजनीति से सामना होता रहता था. अब उन से दूर हूं तब भी उन की पौलिटिक्स मेरा पीछा नहीं छोड़ रही है.’’
ससुराल में असुरक्षा
रिश्तों में वर्चस्व की सनक घरघर में देखने को मिलती है. कई बार तो सास और ननदें इस कवायद में लगी रहती हैं कि बेटेबहू में ज्यादा नजदीकियां न बढ़ें, वरना उन का बेटा या भाई उन से दूर हो जाएगा.
महजबीन के निकाह के हफ्तेभर बाद ही उस का पति सऊदी अरब वापस चला गया. वहां वह एक मोटर कंपनी में 2 साल के कौंट्रैक्ट पर गया था. उस की सासननद अकसर महजबीन के सांवले रंग को ले कर उसे ताने मारतीं और कहतीं कि देखना, जमाल एक दिन तुम को तुम्हारे रंग की वजह से छोड़ देगा.
दिनभर घर के कामों में खपती महजबीन रातरातभर बिस्तर पर पड़ी सुबकती रहती थी. जब कईकई दिन जमाल का फोन नहीं आता तो वह घबरा जाती थी. वह बड़ी असुरक्षित सी जिंदगी जी रही थी. पति का फोन आने पर वह शक जाहिर करती कि जमाल को जरूर वहां कोई हूर मिल गई है, इसलिए वह उसे फोन तक नहीं करता. जमाल उसे लाख समझाता कि ऐसा कुछ नहीं है, वह बस बिजी रहता है. मगर महजबीन के भोलेमन में सासननद की बातें घर कर गई थीं, लिहाजा वह पूरे वक्त तनाव में रहती थी.
शादी के बाद 2 साल उस ने ससुराल में डरडर कर जीवन जिया. हर वक्त बड़ों की सेवा और छोटों की देखभाल में लगी रही कि कहीं उस की कोई गलती उसे इस घर से दूर न कर दे. मगर 2 साल का कौंट्रैक्ट खत्म होने पर जब जमाल वापस आया तो उस की अपनी पत्नी से मोहब्बत कहीं भी कम न थी. उस ने महजबीन पर भरपूर प्यार लुटाया. उस का प्यार देख कर उस की सासननद जलभुन कर रह जाती थीं.
धीरेधीरे बहू के साथ उन के संबंधों में इतनी कड़वाहट आ गई कि महजबीन और जमाल को अपने 2 बच्चों के साथ अलग घर में शिफ्ट होना पड़ा.
जहर बोती बाबागीरी
वैसे तो आम धारणा ठूंसी जा चुकी है कि औरतों को धर्म का पालन करना चाहिए, धर्मगुरुओं की सेवा करनी चाहिए, उन के प्रवचन सुनने चाहिए, उन की कही बातों को मानना चाहिए. लेकिन जिस तरह के प्रवचन सत्संगों में होते हैं, उस तरह के प्रवचनों को सुनने के बजाय यदि महिलाएं घर में रह कर अच्छी किताबें, अखबार, पत्रिकाएं पढ़ें तो शायद उन के परिवार में ज्यादा शांति और सुख फैलेगा.
प्रपंच रचने में वही महिलाएं ज्यादा तेज होती हैं जो प्रवचनों को सुनने में अपना ज्यादा समय देती हैं. घर के सदस्यों के बीच दरार डालने और घर को तोड़ने में धर्मगुरु और पुजारी भी हमेशा बड़े दोषी साबित होते हैं.
पौराणिक युग से आज तक धार्मिक प्रवचनों की ओर ज्यादातर महिलाओं का झुकाव देखने को मिल रहा है, वह फायदे से ज्यादा नुकसान का सबब बन रहा है. पोंगापंडित और धर्मगुरु औरतों को बांधे रखने के लिए अपने प्रवचनों में सासबहू के रिश्तों की बातें, कैसे सास को छकाया जाए या कैसे बहू को अपनी मुट्ठी में रखा जाए, आदि हमेशा खूब करते रहे हैं.
ये बातें अकसर औरतों के मन की होती हैं, इसलिए धर्मगुरुओं के आश्रम आबाद रहते हैं. धर्मगुरु इस के लिए तावीज, भभूत तक बांटते हैं. तंत्रविद्या, जप, अनुष्ठान आदि भी बताते हैं. बहू के आने से असुरक्षित महसूस करने वाली सास अकसर इस तरह के उपायों की तलाश में ही धर्मगुरुओं के चक्कर काटती हैं.
इन सत्संगों में ज्यादातर महिलाएं अपनी बहुओं की शिकायतें ले कर ही पहुंचती हैं. बहू के प्रति मन में शंका, जलन और मैल ले कर धर्मगुरुओं की सलाह पर चलने वाली महिलाएं ही अकसर अपने घर को तोड़ने की दोषी होती हैं.
यह उसी तरह का विषबीज है जैसा धर्मगुरु पराए धर्मवाले के समाज में सदियों से बोते रहे हैं. यूरोप में यहूदियों के प्रति घृणा और भारत में मुसलमानों के प्रति विद्वेष की जड़ वही धर्मगुरु हैं जो घरों में सासबहू के बीच वैमनस्य पैदा करते हैं.
बुद्धू बक्से का बवाल
परिवारों को तोड़ने, औरतों को उकसाने और भ्रांति फैलाने में टैलीविजन पर आने वाले पारिवारिक व सासबहू स्पैशल धारावाहिक भी अपनी भूमिका बखूबी अपनी तथाकथित धार्मिक जिम्मेदारी के तहत निभाते हैं. भारतीय समाज में पारिवारिक संबंधों में लगातार गिरावट के दोषी ये अर्धधार्मिक धारावाहिक ही हैं. कम पढ़ीलिखी औरतों के दिमाग पर इन धारावाहिकों का व्यापक असर पड़ता है और वे अपने घर के सदस्यों के साथ वैसी ही हरकतें करने लगती हैं, जैसा कि वे सीरियल की औरतों को करते हुए देखती हैं.
आजकल जो धारावाहिक चल रहे हैं उन में ज्यादातर ऐसी औरतें दिखाई जा रही हैं जो परिवार में राजनीतिक चालें चलती दिखाई देती हैं.
तू डालडाल…
ऐसा नहीं है कि सिर्फ घर की महिलाएं ही राजनीति करती हैं. इस मामले में कभीकभी पुरुष भी कम नहीं होते. पुरुष का दिमाग कुचक्र रचने में औरतों से चारकदम आगे ही चलता है.
अंकुर का सपना था कि वह विदेश जाए और वहां सैटल हो, मगर संयुक्त परिवार के दबाव में उस का यह सपना पूरा नहीं हो पा रहा था. पढ़ाई पूरी होने के बाद उसे बेमन से परिवार के व्यापार में खुद को झोंकना पड़ा. पिता और बड़े भाई के साथ उसे दुकान के काम में जुटना पड़ा.
शादी के बाद जब रजनी उस के जीवन में आई तो उस ने रजनी को हथियार बना कर खुद को परिवार से अलग कर लिया. इस के लिए उस ने बड़ी शातिराना चालें चलीं. एक ओर उस ने रजनी के दिल में अपनी मां, भाभी और बहन के लिए कड़वाहट बोई, तो वहीं उन के दिलों में रजनी के प्रति.
इस से पहले घर में महिलाओं के बीच झगड़े शुरू हुए और उस के बाद पुरुषों में भी तूतूमैंमैं शुरू हो गई. 2 साल के अंदर ही अंकुर घर और दुकान में अपना हिस्सा ले कर रजनी के साथ अलग हो गया और 6 महीने के भीतरही उस ने कनाडा जाने की योजना बना डाली.
पैसों का पेच आखिर वे क्या कारण हैं कि घर के सदस्य एकदूसरे के खिलाफ नफरत उगलने लगते हैं. मनोचिकित्सक डा. राजेंद्र सरकार कहते हैं, ‘‘जब किसी को ऐसा लगता है कि घर में किसी नए सदस्य के आने से उस का वजूद खतरे में पड़ने वाला है, या उस के अधिकार सीमित होने वाले हैं, या उस को ज्यादा तवज्जुह मिलनी बंद होने वाली है तो उस के अंदर असुरक्षा की भावना पनपने लगती है. ऐसा अधिकतर घर की बड़ी उम्र की औरतों के साथ होता है, यानी लड़के की मां या बहन के साथ.’’
निम्न और मध्यवर्गीय परिवारों में पैसे की तंगी भी घर के बिखराव का अहम कारण होती है.
पैसे की तंगी के चलते बेटे अपने बीवीबच्चों को ले कर मातापिता और भाईबहनों से अलग हो जाते हैं. ऐसे हालात से आज ज्यादातर भारतीय परिवार जूझ रहे हैं.
बीवी हूं, कामवाली नहीं
ज्यादातर भारतीय घरों में बहू के आने के बाद सास रसोई और घर के दूसरे कामों से अपना हाथ खींच लेती हैं. वे सेठानी की तरह पलंग पर बैठ कर हुक्म चलाना चाहती हैं. सास को लगता है कि बेटा अपने लिए बीवी नहीं, बल्कि उन के लिए नौकरानी ब्याह कर लाया है.
वहीं, कुछ महिलाओं का मानना है कि जीवनभर तो उन्होंने काम किया, अब बहू आ गई है तो अब वही सबकुछ संभालेगी और वे आराम करेंगी. इसी सोच के तहत वे सारी जिम्मेदारी बहू के कंधे पर डाल कर काम से तो हाथ खींच लेती हैं, लेकिन परिवार पर से अपना वर्चस्व नहीं त्यागना चाहतीं. यानी उन के अनुसार ही बहू काम करे, उन की ही पसंद की चीजें बनाए, उन के ही अनुरूप घर को सजाएसंवारे.
एक समय ऐसा भी आता है जब बहू नाजुकता और शालीनता का नाटक करतेकरते ऊब जाती है और अपनी वही सामान्य जिंदगी जीना चाहती है, जो अपने मायके में जीती आई है.
लेकिन उस के व्यवहार में जैसे ही अंतर आना शुरू होता है, सास की भृकुटी तन जाती है. बुरे बोल और ताने शुरू हो जाते हैं. क्रिया की प्रतिक्रिया होती है और घर जंग का मैदान बन जाता है.
जिस तरह एक हाथ से ताली नहीं बजती, ठीक उसी तरह पारिवारिक संबंधों में प्यार और सौहार्द लाने के लिए सास और बहू दोनों को एकदूसरे को सहयोग देने की जरूरत होती है.
इन दोनों का रिश्ता ठीक रहे, इस के लिए घर के मर्दों को भी रिश्तों में पूरी ईमानदारी व समझदारी दिखाने की जरूरत है.
जिसे हम प्यार करते हैं और जिस पर हमें पूरा यकीन होता है, उस के द्वारा बेवफाई किए जाने की बात सोच कर ही इंसान अंदर से टूट जाता है. हकीकत जो भी हो, मगर शक का कीड़ा रिश्ते की दीवार कमजोर करने लगता है और परिवार टूटने लगता है. बेहतर है कि समय रहते मन में चल रहे ऊहापोह को जीवनसाथी के आगे जाहिर कर दें और शादी के समय एकदूसरे के प्रति वफादार रहने के किए वादे को निभाएं.
रिश्तों की डोर नाजुक होती है, खासकर जब रिश्ता पतिपत्नी का हो. छोटीछोटी बातें रिश्तों में शक पैदा करती हैं. कई दफा हम गलतफहमी के शिकार भी हो जाते हैं. इसलिए, जल्दबाजी न करें. आवेश में आ कर फैसला न लें. जब तक हकीकत पता न चल जाए तब तक शांत रहें और ठंडे दिमाग से सोचें.
सच जाने बगैर…
जीवनसाथी जब बातें छिपाने लगे, आप से छोटीछोटी बातों में झगड़ने लगे, उस के बरताव में अचानक खासी तबदीली आने लगे और वह जरूरत से बहुत कम या बहुत ज्यादा रोमांटिक होने लगे, तो समझें कि मामला गड़बड़ है.
जीवनसाथी अपने मोबाइल और कंप्यूटर के पासवर्ड सीक्रेट रखें ताकि आप उन के मैसेजेस, कौल्स व मेल्स आदि चैक न कर सकें तो आप को गंभीरता से विचार करना चाहिए.
जीवनसाथी किसी से मीठे स्वर में घंटों बातें करता रहता है और आप को आसपास देख कर असहज हो जाता है, तो समझें कि आप का शक वाजिब है. कोशिश करें कि आप उस नंबर को नोट कर लें. हमारे आसपास ऐसी बहुत सी एजेंसियां और इंटरनैट पर विकल्प उपलब्ध हैं जिन के जरिए फोन ट्रेस कर के सचाई का पता लगाया जा सकता है.
चीटर हो पार्टनर
जब पता चलता है कि पार्टनर धोखा दे रहा है तब जो दुख, पीड़ा और चोट पहुंचती है वह शब्दों में बयां करना मुश्किल है. पर हिम्मत हारने से काम नहीं चलता. आप उस रिश्ते को वापस मजबूत भी बना सकती हैं.
सब से पहले तो अपने पार्टनर पर चीखनेचिल्लाने से बचें. आप को शांत और ठंडे दिमाग से इस परिस्थिति से निबटना होगा. तार्किकरूप से जिंदगी के हालात पर विचार करना होगा.
पार्टनर से बात करें. यदि मन में जीवनसाथी को ले कर शक के भाव गहरा रहे हैं तो इन्हें मन में दबाए रखने से बेहतर है कि जीवनसाथी से खुल कर बात करें. उन्हें बताएं कि कौन सी बात है जो आप को परेशान कर रही है.
सही समय देख कर शांति से इस बारे में बात करें और देखें कि आप दोनों अब इस रिश्ते को बचाने के लिए क्या कर सकते हैं. पार्टनर को समझने का प्रयास करें कि क्या वे अपनी गलती मान रहे हैं? वे अपने किए पर शर्मिंदा है और हमारे रिश्ते को बचाना चाहते हैं? यदि ऐसा है तो आप भी अपने दिमाग से सारी पुरानी बातें और कड़वाहट साफ कर रिश्ते को संभालने का प्रयास करें.
अपने जीवनसाथी को पुराने दिन याद दिलाएं. दिल में मौजूद गहरे प्यार के जज्बे को जीवनसाथी के आगे जाहिर करें. पुराने दिन याद दिलाएं जब दोनों प्यार के बंधन में बंधे थे. जीवनसाथी के रिऐक्शन पर गौर करते हुए अपने रिश्ते का भविष्य तय करें.
सचाई को स्वीकारें और इस समस्या से निकलने के लिए अपने मन की आवाज सुन कर कोई फैसला लें. रिकवर होने के लिए खुद को पूरा समय दें. नकारात्मक सोच को दूर भगाएं. काउंसलर की मदद भी ले सकती हैं.
टूटे हुए रिश्तों की चुभन न सिर्फ आप के लिए, बल्कि बच्चों के भविष्य के लिए भी खतरनाक साबित हो सकती है. मांबाप के रिश्ते में आई कड़वाहट का असर बच्चों के व्यक्तित्व पर साफ तौर से देखा जा सकता है. टूटे और बिखरे परिवार के बच्चे अकसर डिप्रैशन में आ जाते हैं या जरूरत से ज्यादा आवेश में रहने लगते हैं.
बेवफाई केवल मौडर्न युग की देन नहीं है. आज से सैकड़ों साल पहले भी ऐसा होता था. आज के समय में आप के पास काफी विकल्प मौजूद हैं. जबरदस्ती रिश्ते को ढोने की जरूरत नहीं.
यह तीसरा मौका था जब प्रियंका का नाम प्रमोशन लिस्ट में था. लेकिन इस बार भी उसे पीओ से ब्रांच मैनेजर बन जाने की कोई खुशी न थी. देश के सब से बड़े बैंक में कार्यरत प्रियंका ने बुझे मन से यह अच्छी खबर सुनी और फिर फाइलों में सिर छिपाए कुछ सोचने लगी.
सोचना क्या था, अपनी खीझ और असंतुष्टि से सामना करना था जिस का निष्कर्ष यही निकलना था कि इस बार भी उसे पदोन्नति का यह मौका छोड़ना पड़ेगा क्योंकि प्रमोशन लेने का मतलब था कुछ सालों न सही, तो कुछ महीनों के लिए दूर किसी ब्रांच में जाना जिस पर गौरव कभी सहमत न होगा. हर बार की तरह वह अपनी मम्मी का हवाला दे कर कहेगा ‘यार, क्या दोचार हजार रुपयों के लिए मम्मी को नौकरों के भरोसे छोड़ दें जिन का कोई ठिकाना नहीं, न ढंग से देखभाल करते हैं और न ही वक्त पर दवा देते हैं.’
प्रियंका के पति गौरव इंजीनियरिंग कालेज में प्रोफैसर हैं और उन की तनख्वाह उस से लगभग डेढ़ गुनी है. लिहाजा, उन के लिए पत्नी को प्रमोशन मिलने का मतलब सिर्फ वेतनवृद्धि होता है. लेकिन प्रियंका का सपना और खुशी पैसों के साथसाथ पोस्ट का भी बढ़ना है. आज 30 साल की उम्र में ब्रांच मैनेजर बन जाएगी तो 45 की होते होते राज्य स्तरीय या प्रशासनिक पद पर होगी जिस का अपनी अलग शान और रुतबा होता है.
अपाहिज सास की सेहत पर प्रियंका तर्क करेगी, कैरियर का हवाला देगी तो पाला बदलते गौरव कहेगा, चलो मान लिया मम्मी जैसेतैसे मैनेज हो जाएंगी लेकिन बिट्टू का क्या होगा. वह रह पाएगा तुम्हारे बगैर, अभी पूरे 7 साल का भी नहीं हुआ है. कहांकहां लादे फिरोगी उसे, अकेले कैसे रहोगी. मेरी मानो तो चूल्हे में जाने दो ऐसे प्रमोशन को जिस के लिए पति, बच्चे, सास और घर को छोड़ना पड़े. फिर कभी देखेंगे, अभी कहां का पहाड़ टूटा पड़ रहा है.
बात सही है, कड़वाहट से प्रियंका ने सोचा, उस का कैरियर कैरियर नहीं है. उस का प्रमोशन, प्रमोशन नहीं, आफत है. बड़ी मुश्किलों के बाद भी वह यह खयाल मन में आने से नहीं रोक पाई कि गौरव अव्वल दर्जे का खुदगर्ज इंसान है और वह खुद पहले दर्जे की बेवकूफ है जिस की आमदनी तो माने रखती है लेकिन शर्तें ये हैं कि तरक्की छोड़, सास और बेटे की देखभाल में लगी रहो. यही एक अच्छी समझदार पत्नी और गृहिणी होने के माने हैं.
कैरियर की तूतूमैंमैं
बैंक से घर के लिए निकलतेनिकलते वह इस खयाल को भी मन में आने से नहीं रोक पाई कि जब जिंदगीभर क्लर्की ही करनी थी तो नौकरी का मतलब ही क्या रहा. क्या वह एक पेडनौकरानी है जो बहू बन कर सास की सेवा किया करती है. बिट्टू क्या जाने कि भोपाल और होशंगाबाद में क्या फर्क है, उसे तो मां चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे गौरव को चाहिए. फर्क उम्र, सेहत और समझ का है.
कई बातें प्रियंका के मन ही में आ कर रह गईं जैसे यह कि तड़ाक से गौरव को जवाब दे दे कि बिट्टू को तो मैं संभाल लूंगी, तुम अपनी मम्मी को मैनेज कर लो, फिर चाहे 2 नौकरानियां और रख लो. मेरे रास्ते में तुम रिश्तेनातों और जिम्मेदारियों के बैरियर मत अड़ाओ.
शादी के 3 साल बाद तक यानी बिट्टू के होने तक सबकुछ ठीकठाक था. फिर अचानक सास को लकवा मार गया तो प्रियंका को लगा वे अपाहिज हो गई है. गोद में 3 साल का बेटा था और पलंग से लगी सास थीं, जिन्हें ले कर गौरव कोई समझौता नहीं करता था. प्रियंका को इस पर एतराज भी नहीं था. सास की सेवा की जिम्मेदारी उस ने साझा कर ली थी जिन के बारे में डाक्टर्स ने साफ कह दिया था कि अब वे बाकी जिंदगी बिस्तर पर ही रहेंगी, आप, बस इन की सेवा करिए.
सुबह की पारी गौरव ने संभाल ली थी और शाम की प्रियंका ने ले ली थी. दोनों ने एक नौकरानी भी रख ली थी जो दिनभर घर में रहती थी और 10 हजार रुपए महीने के एवज में बिट्टू को खिलाती थी व सास की देखभाल करती थी.
काहे पैसे पे…
यह सौदा हालांकि महंगा नहीं था लेकिन गारंटेड भी नहीं था. गौरव को दिनभर कालेज में रहना पड़ता था और प्रियंका को बैंक में सिर खपाना पड़ता था. अभी तक जो आमदनी जरूरत से ज्यादा लगती थी, वह तेजी से ठिकाने लगने लगी थी. नौकरानी का खर्च बढ़ा था, सास की दवाओं और डाक्टरों पर 12-15 हजार रुपए खर्च हो जाते थे. अब बिट्टू के खर्च भी बढ़ने लगे थे. और ज्यादा चिंता की बात यह थी कि बिट्टू चिड़चिड़ा व जिद्दी हो चला था.
गौरव की एक लाख और उस की 65 हजार रुपए की तनख्वाह पर लगा कर उड़ने लगी थी. यह भी बहुत ज्यादा हर्ज की बात नहीं थी, हर्ज की बात थी सुखचैन का छिनते जाना. प्रियंका महसूस कर रही थी कि वह मशीन हो कर रह गई है. सुबह बेटे को रोता हुआ छोड़ कर जाती थी और आती थी तब भी वह सुबकता हुआ मिलता, उस के सीने से लिपट जाता था. वह बेटे को ढंग से प्यार भी नहीं कर पाती थी कि सास की कराहें शुरू हो जाती थीं.
सास स्वभाव से क्रूर या ललिता पवार छाप नहीं थीं लेकिन उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं रहता था कि बहू दिनभर बैंक में सिर खपा कर आई है. कमरे में दीपक रख दो, फलां दवा दे दो, आज घबराहट हो रही है जैसी बातें प्रियंका की खीझ और थकान को बढ़ा देती थीं.
गौरव भी खीझाखीझा रहने लगा था. पतिपत्नी दोनों में अब पहले जैसे सुकून से बैठ कर बातचीत नहीं हो पाती थी. रात को जैसेतैसे खापी कर बिस्तर पर जाते थे. गौरव को तो 2-3 बार उठ कर मम्मी के पास जाना पड़ता था. कभी वे बुला लेती थीं तो कभी वह खुद चला जाता था.
ऐसे में प्रियंका को याद आता था कि शादी के बाद दोनों कितने हसीन ख्वाब देखा करते थे कि एक सैलरी से घरखर्च आराम से चल जाएगा और दूसरी सेविंग में डालते रहेंगे जिस से अच्छा, बड़ा सा घर ले सकें और बेटे को बड़े स्कूल में पढ़ा सकें. साल में एक बार दूर कहीं जा करघूमने का सिलसिला या शौक भी 2 साल ही पूरा हो पाया. इस के बाद तो खुद के लिए भी वक्त निकालना दूभर हो गया था.
जिस डबल इनकम को प्रियंका सुख और सुविधा का जरिया मान रही थी, वही अब उसे काटने दौड़ने लगी थी. उस की नजर में न तो वह हाउसवाइफ रह गई थी और न ही अच्छी वर्किंग वूमेन.
इस साल फिर प्रमोशन की खबर ने उसे बजाय उत्साह के हताशा से भर दिया था. कुछ सहकर्मी मैनेजर बन कर ठाठ से जिंदगी गुजार रही थीं क्योंकि उन के यहां न बीमार सास थी और न ही उन्होंने बच्चे के मामले में जल्दबाजी दिखाई थी.
घर आ कर बत्ती जला कर उस ने गौरव को प्रमोशन की सूचना भर दी. जिस पर वह उम्मीद के मुताबिक खामोश रहा. यही खामोशी उस का जवाब भी थी और प्रतिक्रिया भी जिसे प्रियंका पहले से जानती थी.
रात में बिट्टू को सुला कर उस ने भी सोने की असफल कोशिश की. बारबार एक खयाल उसे कचोटे जा रहा था कि क्या वह जिंदगीभर पिछड़ी रहेगी. तमाम खर्चे पैसे से पूरे हो जाते हैं लेकिन एवज में जो तनाव मिलता है उस की भरपाई पैसों से नहीं हो पाती. पोर्च में खड़ीखड़ी 2 कारें मानो मुंह चिढ़ाती थीं और घर के तीनों कमरे में लगेएसी बजाय ठंडक देने के, झुलसाते थे. जिस के सिर चिंताओं और तनावों की गठरी लदी हो, वह क्या सो पाएगा.
प्रियंका ने नौकरी की थी एक बेहतर और सुखद भविष्य के लिए. लेकिन यह खयाल गलत साबित हो रहा था कि पैसे से ही सुख मिलता है. पति नजदीक है या महल जैसा घर,कहनेभर की बातें रह गई थीं.
एक बिट्टू ही था जिस का मुंह देख कर जीने की चाह बरकरार रहती थी पर उस पर भी प्रियंका को दया आने लगी थी जो दिनभर बिना मांबाप के नौकरानी के पास रहता था. वह कैसे उसे रखती है, इस की कोई निगरानी करने वाला था. और फिर नौकरानी, मां तो हो नहीं सकती.
हर कोई कहता है कि तुम तो दोनों खासा कमाते हो, फिर क्या कमी. अब कमियां कितनी हैं, यह प्रियंका कैसे उन्हें बताए कि दूर के ढोल सुहावने लगते हैं और इस कहावत को चरितार्थ भी करते हैं कि पैसे सेबिस्तर खरीदा जा सकता है, नींद नहीं, सुविधाएं खरीदी जा सकती हैं सुख नहीं.
हल क्या 90 के दशक में एक नया चलन, ‘डिंक’ (ष्ठढ्ढहृ्य) शब्द और शैली की शक्ल में तेजी से चर्चा में आया था जिस के माने हैं ‘डबल इनकम नो किड्स.’ अब तेजी से पनपती समस्या है डबल इनकम, डबल बर्डन जिस की बड़ी वजह खासतौर से पति के पेरैंट्स होते हैं, खुद अपने बच्चे भी इसी दायरे में आते हैं. लेकिन दोनों में थोड़ाबहुत फर्क तो है.
ऐसे में डबल इनकम काटने दौड़ने लगे तो बात कतई हैरानी की नहीं. लेकिन दिक्कत यह है कि अब दोनों में से कोई नौकरी भी छोड़ेगा तो वह घर का रह जाएगा न घाट का, क्योंकि खर्चे इतने बढ़ गए हैं कि सिंगल इनकम से पूरे नहीं हो सकते. बूढ़े सासससुर की नजरअंदाजी होने पर मियांबीवी के बीच खटपट शुरू हो जाती है. डबल इनकम का मतलब डबल बर्डन इसलिए भी है कि खर्च अनापशनाप बढ़ रहे हैं.
बेंगलुरु की एक कंपनी में 2 लाख रुपए महीने की सैलरी पर काम कर रही अपूर्वा बताती है, ‘‘पैसा कमाने की शर्त पर वह अपनी नन्ही बेटी को किराए पर पाल रही है. वह खासे पैसे बेटी पर ही खर्च करती है. लेकिन भूख लगने पर उसे फीडिंग नहीं करा सकती क्योंकि बारबार क्रैच जाना असंभव और अव्यावहारिक बात है.’’
एक नामी सौफ्टवेयर कंपनी की अधिकारी अपूर्वा कहती है, ‘‘अब नौकरी दिनोंदिन कठिन होती जा रही है. कंपनियां आप की व्यक्तिगत जिंदगी और जरूरतें नहीं देखतीं, उन्हें अपने मुनाफे से ही मतलब होता है.’’
अपूर्वा के पति राजेश को भी एक लाख रुपए के लगभग सैलरी मिलती है. इस के बाद भी खर्च पूरा नहीं पड़ता. हजारों रुपए का खिलौना अपूर्वा और राजेश उसे दिला देते हैं लेकिन बेटी को जीभर कर खिलाने के लिए तरस जाते हैं. यह खीझ या बेबसी उन्हें और पैसा कमाने व काम करने के लिए उकसाती है. ये चीजें आमदनी के साथसाथ और बढ़ती जाती हैं, कम नहीं होतीं.
तो क्या डबल इनकम अभिशाप है, इस पर कपल्स को ही सोच कर फैसला लेना पड़ेगा कि उन की प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए. यह डबल इनकम उन्हें लग्जरी लाइफ तो मुहैया कराती है पर आत्मीयता और सुकून छीन लेती है. इस पर भी घर में कोई बुजुर्ग हो तो सिरदर्दी और बढ़ जाती है, खासतौर से पत्नी की जो दोहरीतिहरी जिम्मेदारियां निभाती, वक्त से पहले ही, जिंदगी और जंग दोनों प्रियंका की तरह हार रही है. इस दौर की इन पत्नियों को यह भी याद नहीं कि आखिरी बार पूर्ण संतुष्टि देने वाला सैक्स उन्होंने कब किया था.
मजा या सजा
डबल इनकम मजा नहीं, सजा साबित होने लगी है. सोचना लाजिमी है कि इस से अच्छी वह पहले सिर्फ बच्चा पैदा करने की मशीन ही क्या बुरी थी. कम से कम उस के पास बच्चे की बेहतर परवरिश का मौका और सुख तो थे, सासससुर की देखभाल करने का पारंपरिक भारतीय जज्बा तो था. पर अब उस का अस्तित्व और पहचान डबल इनकम के चक्कर में सैंडविच बन गए हैं, तो उसे हासिल क्या हुआ.