‘शनिवार के एक दिन पहले यानी शुक्रवार को सवासवा किलो काले चने अलगअलग 3 बरतनों में भिगो दें. अगले दिन नहा कर, साफ वस्त्र पहन कर शनिदेव का पूजन करें और चनों को सरसों के तेल में छौंक कर उन का भोग शनिदेव को लगाएं और अपनी समस्याओं के खत्म होने के लिए प्रार्थना करें. इस के बाद पहले सवा किलो चने भैंसे को खिला दें. दूसरे सवा किलो चने कुछ रोगियों में बांट दें और तीसरे सवा किलो चने मछलियों को खिला दें. इस तरीके से शनिदेव के प्रकोप में कमी होती है.’
यह सब तिकड़म है जिस में अंधविश्वासी टाइप के महिलापुरुष उलझ जाते हैं. तिकड़में और भी हैं.
‘कई बार ऐसा होता कि शत्रु आप की सफलता व तरक्की से चिढ़ कर तांत्रिकों द्वारा जादू करा देता है. इस से व्यवसाय बाधा, गृहक्लेश होता है. सो, इस के दुष्प्रभाव से बचने के लिए सवा किलो काले उड़द, सवा किलो कोयला को सवा मीटर काले कपड़े में बांध कर अपने ऊपर से 21 बार घुमा कर शनिवार के दिन बहते जल में बहा दें व मन में हनुमान का ध्यान करें. ऐसा लगातार 7 शनिवार करें. तांत्रिकों के जादू का असर पूरी तरह खत्म हो जाएगा.’
हम भगवान को प्रसाद का लालच दे कर उन से बड़े से बड़ा काम करवाना चाहते हैं, ‘मेरे बेटे की नौकरी लग जाए, मैं 500 रुपए का प्रसाद चढ़ाऊंगा.’ ‘मुझे एक करोड़ की संपत्ति मिल जाए, सोने का छत्र चढ़ाऊंगा.’ ‘कैंसर की बीमारी ठीक हो जाए, हनुमान की मूर्ति में चांदी की आंखें लगाऊंगा.’
डर का प्रतीक है आस्था
आस्था और अंधविश्वास एक हैं. आस्था ही अंधविश्वास का रूप लेती है. पढ़ेलिखे सुशिक्षित लोग, जो देश में गरीबी दर भी जानते हैं और समाज में फैले अंधविश्वास को भी, अपना पैसा गरीबों की शिक्षा, ट्रेनिंग पर खर्च करने के बजाय पहले से संपन्न मंदिरों और धार्मिक गुरुओं को देते हैं.
एक जमाने में सवा रुपए से शुरू हुआ दान आज सवा करोड़ रुपए तक पहुंच गया है. मजे की बात है कि इस सवा की परंपरा के बारे में अभी तक कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है और न ही जो सवा के हिसाब से दान देते है, उन लोगों को इस की जानकारी है. वे सवा किलो, सवा मन, सवा लाख, सवा करोड़ और न जाने कितने रूपों में इस सवा को मानते हैं. बस, लकीर के फकीर की तरह परंपराओं को मानते रहते हैं, डर से कि कहीं भगवान रुष्ट न हो जाए. अंधविश्वास, मूर्खता और ब्रेनवाशिंग के चलते लोगों का यह मानना हो जाता है कि भगवान को चढ़ावा तो चढ़ाना ही है.
उन का मत होता है कि मेहनत मत करो, चढ़ावा, वह भी सवा मन, चढ़ा दिया, अब सब ठीक हो जाएगा, सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी.
हावी हैं कर्मकांड
लोगों में धर्म के प्रति तरहतरह के विचार पनपते या बैठाए जाते हैं जो उन के मस्तिष्क में एक ओर जहां अंधविश्वास व आस्था का भाव पैदा करते हैं तो दूसरी ओर वही अंधविश्वास व आस्था उन्हें वेबकूफी की हरकतों के शिकंजे में जकड़ लेती है.
आज जब आधुनिक विज्ञान जीव जगत के रहस्यों की परतों को एक के बाद एक कर के उघाड़ता जा रहा है और सदियों से कायम धर्म आधारित अंधविश्वासों, कर्मकांडों, पाखंडों और भ्रांतियों के झूठ को उजागर करता जा रहा है, तो लोगों के मनमस्तिष्क पर धार्मिक कर्मकांड और अंधविश्वास और अधिक हावी होते जा रहे हैं. यह आश्चर्य वाली बात है.
आज शायद ही किसी शहर का कोई महल्ला, कसबा या गांव हो जहां आएदिन भजनकीर्तनप्रवचन के आयोजन न होते हों. इन आयोजनों पर करोड़ों रुपए खर्च होते हैं. कहीं भी, कभी भी नजर उठा कर देख लें, कोई न कोई धार्मिक आयोजनअनुष्ठान होते मिल जाएगा. कहीं भगवती जागरण तो कहीं सत्संग हो रहे हैं. कहीं राम की सवारी तो कहीं शोभायात्रा और कहीं ताजिया निकल रहे हैं. कहीं मंदिर तो कहीं मसजिद और कहीं गुरुद्वारे बन रहे हैं. कहीं मंदिर के नाम पर तो कहीं मसजिद के नाम पर दंगे हो रहे हैं.
कभी नए धार्मिक टैलीविजन चैनल खुल रहे हैं. चैनलों पर पुनर्जन्म, नागनागिन और भूतप्रेत की कहानियों की बाढ़ आई हुई है. कभी किसी सरकारी कालेज या अस्पताल में मंत्र चिकित्सा विभाग खोला जा रहा है तो कभी देश का कोई केंद्रीय मंत्री गले में नाग लपेट कर आग पर चल रहा है और तांत्रिकों को सम्मानित कर रहा है और कभी कोई केंद्रीय मंत्री तंत्रसाधना व ज्योतिष को स्कूलकालेजों व विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल कराने की जुगत कर रहा है.
धार्मिक गुरुओं का है बोलबाला
धर्म का प्रचार करने के लिए कितने ही धार्मिक गुरु जगहजगह कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं जो आत्मिक शांति के नाम पर लोगों से श्रद्धास्वरूप लाखों रुपए ऐंठते हैं. कहीं जाने के लिए ये बाबा लोग बड़ीबड़ी गाडि़यों और हैलिकौप्टर का इस्तेमाल करते हैं. इतना पैसा कहां से आता है? निश्चित रूप से इस का जवाब हर व्यक्ति जानता है, श्रद्धालु आस्था के नाम पर अपने प्रिय बाबा को लाखों रुपए दान देते हैं.
हमारे देश में 50 लाख के करीब साधुसंत, इमाम, पादरी और ग्रंथी हैं जिन में से ज्यादातर को मानवता और देशदुनिया की स्थिति का क, ख, ग का भी पता नहीं है. लेकिन वे लोगों को धर्म की शिक्षा देते हैं और लोगों को मूर्ख बना कर ऐश करते हैं. देश में उत्सवोंकीर्तनोंप्रवचनों और धार्मिक स्थलों के रखरखाव और पुजारियोंपादरियों की ऐयाशी पर वर्षभर में जो रकम खर्र्च होती है, वह अगर देश के विकास पर खर्च होती तो स्कूलकालेजों और अस्पतालों का जाल बिछ जाता. हर गांव में बिजली, सड़क और पेयजल जैसी सुविधाएं उपलब्ध हो गई होतीं. न कोई निरक्षर रहता और न कोई इलाज के कमी से मरता.
महिलाएं ज्यादा फंसती हैं
परिवार में धर्म के पालन की सब से ज्यादा या सौ फीसदी जिम्मेदारी महिलाओं पर ही होती है. परिवार को बुरी नजर से बचाने के लिए, पति और बच्चों के स्वास्थ्य व लंबी उम्र के लिए, घर में सुखशांति बनाए रखने के लिए पूजापाठ, व्रतउपवास, सत्संग, साधुसंतों की सेवा करना आमतौर पर केवल महिलाओं की जिम्मेदारी है.
मीडिया की अहम भूमिका
धर्म सामाजिक नियंत्रण के एक साधन के रूप में उभरा, ताकि समाज में बेचैनी की हालत पैदा होने से रोकी जा सके और लोगों को संतुलित व्यवहार करने के लिए मजबूर किया जा सके. समाजशास्त्रीय दृष्टि से धर्म के 2 अर्थों की चर्चा की जाती है. पहला, ईश्वर के प्रति आस्था और दूसरा, मानव, समाज, देश के प्रति कर्तव्य को करना. लेकिन मीडिया निर्देशित समाज में मानो धर्म का स्थान मीडिया ने ले लिया है. अब मीडिया मानव व्यवहार को निर्देशित और उसे अपने फायदे के लिए नियंत्रित करता है.
मीडिया, बाजार और उपभोक्ता समाज के गठजोड़ ने धर्म को नया आकार देना शुरू कर दिया है. उदाहरण के लिए, टीवी पर दिखाए जाने वाले धारावाहिकों में आत्मा, जादूटोना, अंधविश्वास और रूढि़यों को उजागर कर के वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर हमले की कोशिश करना, ताकि लोगों में डर पैदा किया जा सके और धर्म संबंधी वस्तुओं के बाजार को स्थापित किया जा सके. मीडिया अंधविश्वास को फैलाने में इस समय अहम भूमिका निभा रहा है. वह भय के मनोविज्ञान को भुना रहा है.
धर्म के नाम पर अफवाहें बड़ी तेजी से जंगल में आग की तरह फैलती हैं. आज की मोबाइल व इलैक्ट्रौनिक क्रांति ने तो अफवाहों को फैलाना आसान बना दिया है. मीडिया भी इस तरह की अफवाहों को खबरों के जरिए फैलाने में मदद करती रही है. हाल के वर्षों में धर्म व चमत्कार के नाम पर अफवाहें जम कर फैलाई गई हैं. जिन में गणेश मूर्तियों का दूध पीना, आदमी का पतथर बन जाना इत्यादि ने सामान्य जनजीवन को अस्तव्यस्त कर दिया है लेकिन बाद में उन की वास्तविकता जानने के बाद ये अफवाहें मात्र छलावा साबित हुई. लेकिन हां, धर्म के कारण अफवाह फैलाने वालों की झोलियां जरूर भर गईं.
कुछ इसी तरह धर्म व आस्था के नाम पर अफवाह उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिले में देखने को मिली. मसाला पीसने वाले सिलबट्टे पर अचानक ही छोटेछोटे काले निशान उभर आए. फिर क्या था, किसी ने इसे देवी का प्रकोप बताते हुए यह कह कर अफवाह बना डाला कि सिलबट्टे में देवी मां (चेचक) निकल आई है. देखते ही देखते यह अफवाह उत्तर प्रदेश के कई पूर्वी जिलों में आग की तरह फैल गई. लोग अपनेअपने सिलबट्टों को देखने लगे, जहां बहुत से सिलबट्टो में काले निशान पाए गए. फिर शुरू हुआ अंधविश्वास के नाम पर चढ़ावे का खेल. लोगों ने खूब दानदक्षिणा देना शुरू किया, यहां तक कि अपने घरों में सिलबट्टों पर मसाले पीसना बंद कर दिया. कहींकहीं तो पाखंडियों ने लोगों के सिल और बट्टों को नीम के नीचे रख कर पूजापाठ व चढ़ावा का खेल शुरू कर दिया. फिर क्या था, अंधविश्वास की मारी आसपास की मूर्ख जनता ने खूब चढ़ावा चढ़ाया. चढ़ाया गया चढ़ावा धर्म की दुकानदारी करने वालों की जेब में गया.
भय का मनोविज्ञान
दरअसल, हम आधुनिक तो बनना चाहते हैं लेकिन धार्मिक प्रचार के चलते पारंपरिकता को छोड़ना भी नहीं चाहते. क्योंकि अब सरकार धर्म की है, और वह भी इसे खूब बढ़ावा देती है. भय का मनोविज्ञान हमें ऐसा नहीं करने देता. अगर हम ऐसा करेंगे तो बुरा होने की आशंका का डर हमें घेर लेता है. जिस का सामना करने के लिए हम तैयार नहीं होते. हमारे इसी भय को बाजार भुनाता है और फायदा उठाता है. वह हमें यकीन दिलाता है कि अगर हम फेंगशुई या वास्तुशास्त्र का ध्यान रखेंगे तो बुरा वक्त नहीं आएगा.
ईश्वर या ग्रहों को प्रसन्न करने के लिए उन के बताए उपायों का पालन करेंगे तो बुरा नहीं होगा. विभिन्न किस्म के जाप, पूजापाठ, दानदक्षिणा देना और रंगबिरंगे रत्न या मोती पहनना कथित अनिष्टकारी शक्तियों से बचने के उपाय हैं. काश, ऐसा हो पाता तो दुनिया की सारी समस्याएं ही समाप्त हो जातीं. परिवार नहीं टूटते, अपराध नहीं होते, युद्ध नहीं होते, आत्महत्याएं, गरीबी और बेरोजगारी नहीं होती, सांप्रदायिक दंगे नहीं होते. बस, चारों ओर शांति और खुशहाली होती. ज्यादा विवाद तो धर्म के कारण ही होते हैं. भारत व पाकिस्तान का विभाजन धर्म के कारण हुआ था जिस में लाखों शिकार बने और आज भी जख्म भरे नहीं है.
भय का मनोविज्ञान व्यक्ति को अनिर्णय की स्थिति में पहुंचा देता है और वह आक्रामक, कुंठित, निराश, हिंसक प्रवृत्ति को अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बना लेता है. उस से छुटकारा पाने के लिए वह दान देता है, मंदिर में चढ़ावे चढ़ाता है और इस तरह वह बाबाओं के चक्कर व तमाम तरह के अंधविश्वासों में फंस जाता है.
देश में आधुनिकता और अंधविश्वास की आंधी एकसाथ चल रही है. समाजशास्त्रियों और चिंतकों के लिए यह बात हैरान व परेशान करने वाली है कि हम आधुनिक भी हो रहे हैं और अंधविश्वासी भी हो रहे हैं. दोनों काम एकसाथ चल रहे हैं. एक बड़े विरोधाभास के अंर्तद्वंद्व से भारतीय समाज गुजर रहा है.
जरा सोचिए, यदि एडिसन अंधविश्वास में विश्वास करते तो क्या वे दुनिया को रोशनी दे पाते, यदि न्यूटन अंधविश्वासी होते तो क्या वे गुरुत्वाकर्षण को जान पाते. जरूरत है कि अंधविश्वास की इस पट्टी को उतार कर फेंक दिया जाए और समाज, देश व पूरे विश्व में एक नई जनचेतना लाई जाए जिस में न ईर्ष्या हो, न द्वेष और न ही अंधविश्वास.