फिल्म ‘थ्री इडियट्स,’ जो स्कूलकालेज के छात्रों के बीच कल्ट स्टेटस पा चुकी है, बैकबैंचर्स की बड़ी दिलचस्प कहानी है. फरहान कुरैशी और राजू रस्तोगी नाम के छात्र एक इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला लेते हैं और वे अपने दब्बूपन और परंपरागत एटिट्यूड के चलते बैकबैंचर बनने पर मजबूर हैं. क्लास में सरेआम उन का मजाक बनाया जाता है. वे प्रोफैसर के सामने किसी सवाल का जवाब देने से पहले हकलाने लगते हैं, जब कालेज में उन के तीसरे रूममेट रणछोड़दास श्यामल दास छाछड की ऐंट्री होती है तो नजारा ही बदल जाता है. अपने मुखर व्यवहार और हाजिरजवाबी से रणछोड़दास न सिर्फ ट्रैडिशनल सिस्टम को तोड़ कर कालेज में नंबर वन बन जाता है बल्कि फरहान और राजू जैसे बैकबैंचर्स में नया आत्मविश्वास भर कर इन्हें फ्रंटबैंचर बना देता है.

फरहान और राजू की तरह आज भी कई युवा इसी तरह के दब्बूपन और आत्मविश्वास में कमी की मार झेल रहे हैं. इस के चलते न तो वे पढ़ाई में अच्छे मार्क्स ला पाते हैं और न ही कैरियर को ले कर सही फैसला ले पाते हैं. ब्रिटेन के साउथ ऐंपटन विश्वविद्यालय के मैडिकल रिसर्च काउंसिल के कुछ डाक्टर्स ने दब्बू, अंतर्मुखी और पिछलग्गू स्वभाव के लोगों पर गंभीर अध्ययन किया, जिस के अनुसार 16 से 26 वर्ष की उम्र में बहिर्मुखी स्वभाव और नकारात्मक अवस्था में बने रहने वाले लोगों के 60 से 64 वर्ष की उम्र में पहुंचने पर उन के मानसिक स्वास्थ्य और जिंदगी से संतुष्टि पर दिलचस्प तरीके से अलगअलग असर दिखता है यानी ज्यादातर किशोर व युवाओं की जिंदादिली और आगे बढ़ने की बहिर्मुखी चाहत उन की बाद की जिंदगी में संतुष्टि और सकारात्मक प्रभाव डालती है, जबकि इस के विपरीत दब्बू, अंतर्मुखी और पिछलग्गू स्वभाव के लोगों पर नकारात्मक अवस्था में बने रहने का बुरा प्रभाव होता है और बाद में ऐसे लोगों में चिंता, अवसाद और शारीरिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं की आशंकाएं ज्यादा होती हैं.

भारतीय संदर्भ में यह अध्ययन बिलकुल खरा उतरता है. अकसर अभिभावक इस बात से परेशान दिखते हैं कि उन का बच्चा क्लास में सब से पिछली बैंच पर बैठता है, उस का लंच कोई दूसरा बच्चा खा लेता है, अध्यापकों से सवालों के जवाब आते हुए भी वह खामोश रहता है, स्कूल में होने वाली ऐक्टिविटीज में शामिल होने के नाम पर घबरा जाता है, वह सही बात तक मातापिता, मित्र,  शिक्षक या घर के अन्य लोगों के सामने नहीं रख पाता है और कई बार अपनी बात कहतेकहते हकलाने लगता है. दरअसल, ये तमाम लक्षण इस बात की ओर इशारा करते हैं कि उस की झिझक और संकोच उसे अंतर्मुखी ही नहीं बना रहे बल्कि दब्बू और कमजोर भी बना रहे हैं यह जिंदगी की भागदौड़ में पीछे रहने का सब से बड़ा कारण बन सकता है. शुरुआत में यह व्यवहार और बदलाव सामान्य मान कर दरकिनार कर दिया जाता है, लेकिन बच्चे जब युवा होते हैं तो बालपन की यही कमजोरी उन्हें दब्बू बना देती है. अगर इन कारणों को शुरुआती दौर में ही समझ लिया जाए तो काफी हद तक बच्चों को आगे बढ़ कर अपनी बात रखने और खुल कर जीने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है.

युवाओं में दब्बूपन क्यों

ग्लोबल पैमाने पर बेहद पौपुलर अमेरिकन टीवी सीरीज ‘रे डोनोवन’ में बंची डोनोवन नाम का किरदार अपने फैसले खुद नहीं ले पाता. अपने भाई पर आश्रित बंची न तो किसी के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बना पाता है और न ही घर पर अकेले रहने की हिम्मत जुटा पाता है. बातबात पर घबराना और बच्चों के पास जाने से डरना. पढ़ाईलिखाई और नौकरी में भी उस में आत्मविश्वास की कमी नजर आती है. कहानी की अगली कडि़यों में जब बंची के इस जटिल किरदार की गांठें खुलती हैं तो पता चलता है कि बचपन में उस के अकेलेपन का फायदा उठा कर चर्च का पादरी उस का जबरन यौन शोषण करता था.

उस घटना ने उस के बालमन पर ऐसा प्रभाव डाला कि किशोरावस्था से ले कर युवा होने तक वह मानसिक तौर पर कभी उभर नहीं सका. कहने का अर्थ है कि अतीत की ज्यादातर घटनाएं बालमन को दब्बू बना देती हैं. तब अभिभावक इन घटनाओं को अनदेखा कर देते हैं, लेकिन जब दिक्कत समझ आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. अच्छे नंबर लाने का दबाव, शक्लसूरत को ले कर पैदा हुई कुंठा, घरपरिवार के विवाद, यौन हिंसा या फिर स्नेहदुलार की कमी के कारण बड़े हो क र भी किशोर के स्वभाव में वही कमियां घर कर जाती हैं. इस विकार से ग्रसित किशोर कई बार हिंसा, मादक द्रव्यों का सेवन, असुरक्षित यौन संबंध और अन्य जोखिम भरे कार्यों में लिप्त हो जाते हैं. मातापिता और शिक्षक यह सोच कर शांत रह जाते हैं कि उन के बच्चे दब्बू हैं और यह व्यावहारिक समस्या है, जबकि इन को सही से पहचानना और इन के लक्षणों को समझना बेहद जरूरी है.

ह्यूमन न्यूरोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध की मानें तो कुछ लोगों के शरीर में डोपामाइन नामक फील गुड कैमिकल की आवश्यकता अपेक्षाकृत तेजी से पड़ती है, वे आत्मविश्वास से जीते हैं. रिसर्च बताती है कि बहिर्मुखी और अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाले लोगों के मस्तिष्क की क्रियाएं अलगअलग होती हैं. शोध के दौरान बहिर्मुखी व अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाले 70 लोगों का व्यक्तित्व परीक्षण किया गया और पाया गया कि अलगअलग मानसिक क्रियाओं के लिए डोपामाइन जैसे फीलगुड कैमिकल की जरूरत के लिए उन का मस्तिष्क अलगअलग तरह की क्रियाएं करता है. मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि अकसर बच्चे किसी भयावह घटना या हादसे के चलते ऐसे हो जाते हैं. कई बार उन्हें भूतप्रेत या अंधविश्वास भरी बातें सुना कर भयग्रस्त कर दिया जाता है. अकसर बच्चों को डराने के लिए उन्हें अंधेरे या अकेले होने का भय दिखा कर दब्बू बनने पर मजबूर कर दिया जाता है. कई बार निरुत्साहित करने पर भी वे भीरु प्रवृत्ति के बन जाते हैं. आमतौर पर बचपन में यौन हिंसा या बाल शोषण के शिकार किशोर भी आजीवन दब्बू प्रवृत्ति के हो जाते हैं और कभी भी खुल कर अपनी बात सामने नहीं रख पाते. कई बार सफलता को ले कर बना दबाव और अव्वल आने की अपने बड़ों की जिद भी उन में तनाव पैदा करती है. इन सब बातों का प्रभाव उन के स्वभाव पर इस कदर पड़ता है कि स्कूल से निकल कर कालेज और आगे की जिंदगी में भी वे सहमे रहते हैं और जिंदगी के कई निर्णायक क्षणों में सही फैसला न लेने के कारण पिछड़ जाते हैं.

अकेलापन, उलझन और हीनभावना

अधिकतर युवा इंटरव्यू या स्टेज पर बोलने के दौरान हकलाने लगते हैं या फिर नर्वस हो जाते हैं. आमतौर पर हर किशोर का व्यवहार अलग होता है. कोई मिलनसार होता है तो कोई एकांत को तरजीह देता है. कोई ज्यादा बोलना पसंद करता है तो कोई खामोशी पसंद होता है. कोई हंसी-मजाक का आदी तो कोई आदतन गंभीर स्वभाव का होता है. ऐसे में बड़ी बारीकी से समझाने की जरूरत है कि कौन दब्बू, अंतर्मुखी, पिछलग्गू स्वभाव का है और कौन बहिर्मुखी.

अकसर अकेले रहना पसंद करने वाले लोग अंतर्मुखी और शर्मीले हो जाते हैं. ये घंटों अकेले बैठे रह सकते हैं. ज्यादा बोलने वालों से दूर रह कर संक्षिप्त बातें करना और अपनी पसंद के विषय पर जरूरत से ज्यादा डूब कर शोध करना संकेत है कि इन का नेचर ऐसा होगा. इस के अलावा ये बहुत सोचसमझ कर बोलते हैं या फिर बोलते ही नहीं. ये लोग जरूरी विषयों पर वादविवाद से बचते हुए पलायनवादी नजरिया अपनाएंगे. टीमवर्क या फिर समूह से बच कर अकेले ही काम करेंगे. 

मस्तमौला बनें, झिझक छोडें

एक बार समस्या की जड़ पता हो जाए तो उस का समाधान आसान हो जाता है. मनोवैज्ञानिक और मनोचिकत्सक दोनों ही इस विषय पर अपनीअपनी राय रखते हैं. कोई इसे रोग और ट्रीटमैंट का विषय मानता है जबकि कोई इसे व्यावहारिक दोष मानते हुए प्यार, स्नेह और अपनेपन से हल करने की बात कहता है. लेकिन दोनों ही विशेषज्ञों की राय में जो बात कौमन है वह यह है कि इस स्वभाव के लोगों के मन को समझ कर उन के साथ तालमेल बना कर ही उन्हें दब्बू, अंतर्मुखी और पिछलग्गू जैसे स्वभाव से मुक्त किया जा सकता है. इस में जरूरी भूमिका अभिभावकों, अध्यापकों और करीबी रिश्तेदारों की होती है. गार्जियन बच्चों को आत्मविश्वास से भरपूर, साहसिक और प्रेरक कहानियां बचपन से ही सुनाएं. उन्हें स्टेज फियर से मुक्त करें. हर चीज में आगे बढ़चढ़ कर भाग लेने के लिए प्रोसाहित करें. छोटेछोटे कार्यों की जिम्मेदारी दे कर उन्हें लीडर की भूमिका का एहसास कराएं. उन में आत्मविश्वास की भावना पैदा करने के लिए किसी प्रकार के दबाव और हतोत्साहित करने वाली बातों से बचें. अगर फिर भी हीनभावना से न उबरें तो आप उन की काउंसिलिंग का विकल्प भी आजमा सकते हैं.                          

ऐसे वापस लाएं आत्मविश्वास

–       हर समय गंभीर रहने के बजाय मनोरंजन और खेलकूद में भी सक्रिय रहें.  

–       कंपीटिशन में जम कर भाग लें और हारने पर हतोत्साहित न हों.

–       रिश्तेदारों और दोस्तों के घर जाने में बिलकुल न हिचकिचाएं.

–       रचनात्मक गतिविधियों को बढ़ावा दें ताकि व्यक्तित्व का विकास हो.

–       दब्बू, अंतर्मुखी और पिछलग्गू स्वभाव के लोगों को अकेलेपन से दूर रहना चाहिए.

–       कम्युनिकेशन स्किल मजबूत करें ताकि आप का मजाक न बने.

–       टीम वर्क में काम करना सीखें.

–       समूह की लीडरशिप करने से पीछे न हटें.

–       मन में पैदा हुई कुंठा को बाहर निकालें.  

–       असफलता से घबरा कर दोबारा प्रयास करना न छोडें.

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