हवाई यात्रियों को ऊंची कैंसलेशन फीस से जल्द राहत मिल सकती है. डायरेक्टरेट जनरल ऑफ सिविल एविएशन (डीजीसीए) ने एयरलाइंस से कहा है कि कैंसलेशन चार्ज बेस फेयर से ज्यादा नहीं होना चाहिए.

सिविल एविएशन मिनिस्ट्री के एक सीनियर अधिकारी ने बताया, 'ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहां कैंसलेशन फीस कुल किराए से ज्यादा हो जाती है और टिकट रद्द होने पर पैसेंजर्स को कुछ नहीं मिलता है. पैसेंजर जो किराया देते हैं, उसमें सर्विस टैक्स और एयरपोर्ट से जुड़े चार्जेज भी शामिल होते हैं. टिकट कैंसल होने पर अगर इन्हें नहीं लौटाया जाता है तो इससे कानूनी मुद्दे खड़े हो सकते हैं.' उनका यह भी कहना था कि डीजीसीए नए नियमों पर पहले ही एयरलाइंस के साथ बात कर चुका है. इस बारे में जल्द ऐलान किया जाएगा.

उन्होंने बताया, 'यह पाया गया है कि कैंसलेशन फीस का एक हिस्सा ऑनलाइन ट्रैवल एजेंसियों को भी जाता है, बशर्ते टिकट की बुकिंग उनकी तरफ से हुई हो. एयरलाइंस से कहा गया है कि एजेंट की फीस समेत कैंसलेशन फीस बेस फेयर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.' एक ऑनलाइन ट्रैवल पोर्टल पर 7 जून को बुक किए गए और 7 जुलाई की यात्रा वाले दिल्ली-मुंबई का टिकट 2,419 रुपये का था, जबकि इसका बेस फेयर 1,559 रुपये था.

अगर यही टिकट कैंसल कराया जाता है, तो पैसेंजर को सिर्फ 404 रुपये मिलेंगे, क्योंकि बाकी रकम कैंसलेशन फीस के तौर पर काट ली जाती है. एविएशन इंडस्ट्री के जानकारों के मुताबिक, एयरलाइन कंपनियां किराया नहीं बढ़ा सकतीं. ऐसे में अधिक रेवेन्यू के लिए वे कैंसलेशन चार्ज में बढ़ोतरी जैसे उपायों का सहारा लेती हैं.

एसटीआईसी ट्रैवल ग्रुप ऑफ कंपनीज के चेयरमैन और इंडियन असोसिएशन ऑफ टूर ऑपरेटर्स (आईएटीओ) के अधिकारी ने बताया, 'मेरे हिसाब से कैंसलेशन चार्ज बेस फेयर के 10% से ज्यादा नहीं होना चाहिए. मैं भी मानता हूं कि सरकार को हवाई किराए और कैंसलेशन चार्ज को रेग्युलेट करना चाहिए. अगर सरकार टैक्सी किराए को रेग्युलेट कर सकती है, तो हवाई किराए को रेग्युलेट नहीं करने की कोई वजह नहीं बनती है.'

इस बीच, सिविल एविएशन मिनिस्ट्री इमरजेंसी या किसी प्राकृतिक आपदा की हालत में हवाई किराए की सीमा तय करने या इसके रेग्युलेशन का मॉडल तैयार करने पर काम कर रही है. चेन्नैई में आई बाढ़ और हरियाणा में जाट आंदोलन के कारण फ्लाइट्स की डिमांड और सप्लाई में गड़बड़ी से टिकटों की कीमत आसमान छूने के कारण इसकी जरूरत महसूस हुई है.

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