स्पौंडीलोसिस बीमारी मुख्यतया रीढ़ की हड्डी में अकड़न और डीजैनरेशन से होती है. यह बीमारी वर्टिब्रा या कशेरुका के बीच के कुशन यानी इंटरवर्टिबल डिस्क में कैल्शियम के डीजैनरेशन या किसी चोट के कारण होती है. कशेरुका डिस्क के आकार की 33 हड्डियों से बनी होती है. यह बहुत मजबूत होने के साथसाथ लचीली भी होती है जो सिर से ले कर पेड़ू तक काम करती है. यह न सिर्फ कमर को सहारा देती है, बल्कि पूरे शरीर को भी आधार प्रदान करती है. रीढ़ की हड्डी मेरुदंड को लपेटे रहती है जिस में तंत्रिका टिश्यू और दिमाग को आधार देने वाली कोशिकाएं मौजूद होती हैं. हालांकि लगातार कमर पर वजन पड़ने, गलत मुद्रा में बैठने और डाइट में कैल्शियम की कमी के कारण कमर से जुड़े कई विकार हो सकते हैं, जिन में स्पौंडिलोसिस प्रमुख विकार है.

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कितने तरह के स्पौंडीलोसिस

स्पौंडीलोसिस  को 3 रूपों में बांटा गया है :

सर्वाइकल स्पौंडीलोसिस  : इस विकार में गरदन प्रभावित होती है. गरदन के निचले हिस्से, कंधे और कौलरबोन में दर्द होता है. हालांकि यह बीमारी उम्रदराज लोगों को प्रभावित करती है लेकिन आजकल की अस्वस्थ जीवनशैली, बैठने व कंप्यूटर पर ज्यादा समय तक काम करने की वजह से युवाओं में भी सर्वाइकल स्पौंडीलोसिस  के मामलों में वृद्धि हो रही है. गरदन की स्पाइन में हड्डियों के घिसाव व कार्टिलेज की कमी के चलते सर्वाइकल की समस्या उत्पन्न होने लगती है. इस की वजहें मुख्यतया दुर्घटना में गरदन में चोट आना, लगातार बहुत झुक कर पढ़ना या काम करना, लेट कर पढ़ना या टीवी देखना, व्यायाम न करना, चिंता व संतुलित आहार न लेना हैं. काफी लोग इस बात से अनजान होते हैं कि अधिक समय सिर झुका कर मोबाइल पर बात करने या चैट करने से भी गरदन में दर्द होने लगता है.

लगातार सिर झुकाने से रीढ़ की हड्डी, कर्व और बोनी खंड में बदलाव होने से मुद्रा में बदलाव, मांसपेशियों में अकड़न और दर्द हो सकता है. इस के अलावा सर्दी के मौसम में रीढ़ की हड्डी में दर्द ज्यादा बढ़ जाता है और ज्यादा ठंड में गरदन पर ज्यादा दबाव पड़ता है. अगर समय रहते गरदन के दर्द का पता चल जाए तो दवाओं और फिजियोथैरेपी की मदद से उसे मैनेज किया जा सकता है लेकिन गंभीर स्थिति में सर्जरी की जरूरत पड़ती है.

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लंबर स्पौंडीलोसिस  : इस बीमारी में पीठ का निचला हिस्सा प्रभावित होता है. यह विकार भी युवाओं व अधेड़ लोगों को बहुत ज्यादा प्रभावित कर रहा है. निचला लंबर एरिया ज्यादा भारी यांत्रिक बलों को सहन करता है, इसलिए अन्य क्षेत्रों के मुकाबले इस डिस्क के फेल होने के मामले ज्यादा होते हैं. यह रीढ़ की हड्डी का विकार है. इस स्थिति में अकड़न या झुनझुनाहट, मांसपेशियों में कमजोरी, गंभीर दर्द और दर्द पैरों की ओर जाता है.

गौरतलब है कि सर्वाइकल स्पौंडीलोसिस की तरह इस विकार में भी ज्यादा समय तक डैस्क जौब, तनावपूर्ण जीवनशैली के कारण रीढ़ की हड्डी पर दबाव बढ़ने लगता है और यह विकृति होने लगती है. इस के अलावा डाइट में कैल्शियम की कमी, धूम्रपान, शराब के सेवन और सही मुद्रा में न बैठनेउठने से खासतौर पर युवाओं में रीढ़ की हड्डी से जुड़ी समस्याएं बढ़ रही हैं.

थोराएसिस स्पौंडीलोसिस  : इस बीमारी में पीठ का ऊपरी व मध्य भाग प्रभावित होता है.

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किसे है ज्यादा जोखिम

आमतौर पर ज्यादातर मामले सर्वाइकल और लंबर स्पौंडीलोसिस  के पाए जाते हैं. थोराएसिस स्पौंडीलोसिस  में लक्षण उभर कर सामने नहीं आते हैं. इस बीमारी के 40 पार पुरुष व महिलाओं में होने का जोखिम होता है. लेकिन आजकल की अस्वस्थ जीवनशैली के चलते युवा भी इस बीमारी की चपेट में आ रहे हैं. दरअसल, शरीर की रीढ़ की हड्डी भी दूसरे अंगों की तरह बेहतर काम करने के लिए बनी है. हालांकि जब पीठ पर बहुत ज्यादा बोझ आ जाता है तो इस में विकृति आनी शुरू हो जाती है जिस से कमर में दर्द रहने लगता है और कई बार यह दर्द गंभीर स्पौंडीलोसिस  में बदल जाता है.

क्या है इलाज

अगर बीमारी की पहचान शुरुआत में ही हो जाए तो दवाओं व फिजियोथैरेपी से ठीक करने की कोशिश की जाती है. लेकिन भारतीय परिवेश में देखा जाए तो हम पीठदर्द को तब तक नजरअंदाज करते हैं जब तक कि वह असहनीय स्थिति में न पहुंच जाए. अकसर लोग दर्द में पेनकिलर्स लेते रहते हैं. दर्द के ज्यादा बढ़ जाने या पेनकिलर दवाओं का असर न होने पर ही लोग डाक्टर से परामर्श लेते हैं. ऐसी स्थिति में कई बार विकार इतना बढ़ चुका होता है कि डाक्टर के पास सर्जरी के अलावा विकल्प नहीं बचता.

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इलाज की नई तकनीक

मैडिकल क्षेत्र में आ रही नईनई तकनीकों के चलते इस समस्या का समाधान संभव है. खासतौर से मिनिमल एक्सेस स्पाइनल तकनीक यानी मास्ट के जरिए रीढ़ की हड्डी से जुड़ी समस्या का आसानी से इलाज किया जाता है. मास्ट तकनीक नेविगेशन और नर्व मौनिटरिंग सिस्टम से लैस है. मास्ट तकनीक में कीहोल सर्जरी प्रक्रिया अपनाई जाती है ताकि आसपास की मांसपेशियों को क्षति न पहुंचे. यह रीढ़ की हड्डी की सर्जरी की जटिलता को न सिर्फ कम करती है, बल्कि इस की प्रक्रिया छोटी, सुरक्षित, किफायती व दागमुक्त है. स्पाइन सर्जरियों की तकनीकों में आए नए विकास से सर्जरी के परिणाम बेहतर और सटीक आते हैं.

मिनिमल इनवेसिव स्पाइन सर्जरी

(एमआईएसएस) में एक छोटा सा चीरा लगाया जाता है व मांसपेशियों को फैला दिया जाता है और माइक्रोसर्जिकल तकनीक के जरिए तसवीर देख कर रीढ़ की हड्डी की विकृति को ठीक किया जाता है. पारंपरिक सर्जरी में रीढ़ की हड्डियों के आसपास की मांसपेशियों को काट कर उस में सुरंग जैसा बना कर रीढ़ की हड्डी का जायजा ले कर सर्जरी की जाती थी लेकिन मिनिमल इनवेसिव स्पाइन सर्जरी में मांसपेशियों को फैला कर धीरेधीरे अलग किया जाता है. मास्ट तकनीक द्वारा सर्जरी करने से रोगी को रिकवरी में कम समय लगता है. यह तकनीक दर्द और सर्जरी के बाद जुड़ी जटिलताओं को भी कम करती है. मास्ट सर्जरी में रोगी को बेहतरीन परिणाम मिलते हैं. इस में रोगी को शारीरिक दर्द तो कम होता ही है, साथ ही चीरफाड़ ज्यादा नहीं होती. कम चीरफाड़ करने वाली हड्डी की इस सर्जरी को कीहोल या माइक्रोस्कोपिक सर्जरी भी कहते हैं. इस प्रक्रिया में शरीर में बड़ी चीरफाड़ करने के बजाय मात्र 3-4 छोटे छेद किए जाते हैं.

रीढ़ की हड्डी का औपरेशन करने में मास्ट के उच्चस्तरीय उपकरणों का इस्तेमाल किया जाता है. इस से अंदरूनी अंगों को देखने में मदद मिलती है जिस से औपरेशन करने में आसानी होती है और सटीक परिणाम मिलते हैं. इस प्रक्रिया में रोगी की रिकवरी इतनी जल्दी होती है कि उसे उसी दिन या अगले दिन चलने की सलाह दी जाती है और हफ्ते के भीतर रोगी अपने रोजमर्रा के काम कर सकता है. बस, 6 हफ्ते तक भारी चीजें उठाने का परहेज किया जाता है. आम औपरेशन के बाद सर्जरी के निशान दिखाई देते हैं जिस के चलते रोगी पर भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ते हैं लेकिन इस तकनीक में रोगी के शरीर पर कोई निशान नहीं पड़ता जिस से वे बेहिचक किसी भी तरह के कपडे़ पहन सकते हैं.

रीढ़ की हड्डी का औपरेशन करने में मास्ट के अत्याधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल किया जाता है. मरीज के अंदरूनी भागों को आसानी से देखा जा सकता है, जिस से औपरेशन करने में सटीक परिणाम मिलते हैं.

मास्ट तकनीक के फायदे

  1. इस से रोगी की जल्दी रिकवरी होती है और वह उसी दिन या दूसरे दिन चलफिर सकता है.
  2. इस प्रक्रिया में खून का कम नुकसान होता है जिस से रोगी को तनाव कम होता है.
  3. इस से संक्रमण होने का खतरा कम रहता है.
  4. शरीर पर निशान नाममात्र होते हैं.
  5. रीढ़ की हड्डी के टिश्यू और मांसपेशियों का नुकसान कम होता है.
  6. औपरेशन के बाद रोगी को दर्द कम होता है.
  7. जल्द ही रोगी रोजमर्रा की जिंदगी के काम करने में सक्षम होता है.
    (लेखक बीएलके अस्पताल, नई दिल्ली में स्पाइन सर्जरी के कंस्ल्टैंट हैं.) 
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