8 साल का रोहन अपनी मां के साथ नानी के घर में रहता है. नानानानी की तो मृत्यु हो चुकी है, लेकिन घर में उस के मामामामी और उन के 2 बच्चे हैं, जिन का व्यवहार न तो रोहन के साथ अच्छा है और न ही रोहन की मां माधुरी के साथ. मगर भैयाभाभी के साथ रहना माधुरी की मजबूरी है. उस के पति ने 3 वर्षों पहले उसे तलाक दे दिया था. मजबूर माधुरी को पति का घर छोड़ना पड़ा. वह 5 साल के नन्हे रोहन को ले कर अपने मायके आ गई. तब उस की मां जिंदा थीं. इसलिए भैयाभाभी ने उस के वहां रहने पर कोई ऐतराज नहीं किया.

मां के गुजरते ही माधुरी की हालत अपने ही मायके में नौकरानी जैसी हो गई. भाई के दोनों बच्चों का व्यवहार भी उस के और उस के बेटे रोहन के साथ अच्छा नहीं है. मगर वह क्या करे, इस घर को छोड़ कर कहां जाए? भाभी के तानों और भाई के लालच ने उस का जीना दूभर कर दिया है, फिर भी निभा रही है किसी तरह.

भैयाभाभी यह भी नहीं चाहते कि माधुरी बच्चे को ले कर कहीं जाए, क्योंकि तलाक के बाद उस के पति से मिलने वाले मेंटिनेंस के पैसों पर दोनों अपना हक समझते हैं. इधर मेंटिनैंस के 10 हजार रुपए माधुरी के अकाउंट में आए नहीं कि भाई ने एटीएम से तुरंत निकाल लिए. माधुरी ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं है. बैंक के सारे काम शुरू से ही भाई ने अपने हाथ में रखे हैं. उस की चैकबुक, पास बुक, एटीएम कार्ड सब भाई की कस्टडी में हैं. वह तो बस कागजों पर साइनभर करती है, जहां वह करने को कहता है.

रोहन धीरेधीरे समझदार हो रहा है. वह अपने ममेरे भाईबहन को देखता है कि उन के पास तो मां भी है और पिता भी. वह माधुरी से अपने पिता के बारे में सवाल करता है. उन से मिलने की जिद करता है. मगर माधुरी क्या करे. उसे कैसे समझाए कि उस के पिता ने दूसरी शादी कर ली है और उस के घर में रोहन के लिए कोई जगह नहीं है क्योंकि जिस तलाकशुदा महिला से उस ने शादी की है उस के पहले पति से 2 बच्चे हैं, जो अब रोहन के पिता के साथ ही रहते हैं.

मांबाप के तलाक की वजह से रोहन का बचपन छटपटा रहा है. वह अंदर ही अंदर घुट रहा था. एक ओर मामामामी और ममेरे भाईबहन का रूखा व्यवहार, वहीं दूसरी ओर अपनी मां को उनके हाथों जलील होता देख वह सिहर जाता है.

पिता की कमी का एहसास उस को बुरी तरह सालता है. रोहन जब दूसरे बच्चों को उन के पापा के साथ घूमतेखेलते देखता है तो अपने पापा को याद कर छिपछिप कर रोता है. मांबाप के तलाक का बुरा असर रोहन के व्यक्तित्व पर पड़ रहा है.  रोहन मानसिक रूप से तनावग्रस्त और शारीरिक रूप से कमजोर व्यक्ति के रूप में बड़ा हो रहा है. उस का विकास ठीक से नहीं हो पा रहा है.

मुख्यधारा से हटते बच्चें

एक दूसरे केस में मैं ने देखा था कि मांबाप के बीच हुए तलाक से संतान इस कदर प्रभावित होती है कि उस के दर्द और तनाव का परिणाम समाज में भयानक अपराध के रूप में सामने आता है. अजय राठी से मैं गुड़गांव के एक किशोराश्रम में मिली. उस की उम्र कोई 14 बरस की थी. वह बड़ा खूबसूरत था. झक गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें और चमकदार घुंघराले बाल. बिलकुल अंगरेज बच्चे सा दिखता था. इस किशोराश्रम में वे बच्चे थे जो किसी न किसी अपराध के कारण यहां 3 साल के लिए रखे गए थे ताकि उन के जीवन में सुधार ला कर उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके. इन पर कड़ी निगरानी रखी जाती थी. अजय के बारे में जब मैं ने वहां के संचालक से पूछा तो उस की कहानी सुन कर मैं भीतर तक कांप गई.

अजय के मातापिता का तलाक हो चुका था. उस वक्त अजय की उम्र 10 साल थी. अदालत ने उस के पिता की बेहतर आर्थिक हालत को देखते हुए उस की पढ़ाई और अच्छे भविष्य के मद्देनजर उस की कस्टडी पिता को ही सौंपी थी, और उस की मां को यह अधिकार दिया था कि विशेष दिनों पर वह उस से मुलाकात कर सकती थी.

शुरू के दिनों में तो अजय को मांबाप के अलगाव का एहसास नहीं हुआ, लेकिन धीरेधीरे वह सारी बातें समझने लगा. उस का मन अपनी मां के लिए छटपटाने लगा. दरअसल, उस की मां से अलग हो कर पिता का रुझान एक अन्य महिला की ओर हो गया था और अजय की ओर ध्यान देना उन्होंने लगभग बंद कर दिया था. अजय घर में बस एक नौकर के साथ ही रहता था. उस के पिता देररात अपनी नई प्रेमिका के साथ घर आते और दोनों बैडरूम में रातभर सैक्स गतिविधियों में शामिल रहते थे, इस बात से बेखबर कि बगल के कमरे में अजय न सिर्फ जाग रहा है, बल्कि दरवाजे की झिर्री से उन की तमाम हरकतें देख भी रहा है. उस के नन्हे दिमाग पर इन बातों का बुरा असर पड़ रहा था.

पिता से उस का राब्ता बस इतना भर रह गया था कि उस की स्कूल और ट्यूशन फीस सही वक्त पर जमा हो जाती थी और उस की जरूरत का सारा सामान उसे घर में उपलब्ध था. मगर प्यार और सुरक्षा का जो एहसास उसे पिता की ओर से मिलना चाहिए था, उस से वह बिलकुल महरूम था. जब मां से मिलने का दिन होता तो वह बहुत खुश होता था क्योंकि वहां उसे प्यार और सुकून मिलता था. पर एक दिन मां ने भी दूसरी शादी कर ली और अजय से मिलने का उस का सिलसिला लगभग खत्म ही हो गया क्योंकि वह अपने नए पति के साथ दूसरे शहर में शिफ्ट हो गई थी, जहां से बारबार आना उस के लिए संभव नहीं था.

मांबाप के प्यार के अभाव ने ही अजय को गलत राह पर मोड़ दिया. उस के अंदर गुस्सा पनपने लगा. वह स्कूल में बच्चों से लड़ताझगड़ता, पड़ोसी बच्चों से मारपीट करता, घर में पिता की बातों का चीख कर जवाब देता और कभी गुस्से में घर का सामान उलटपलट देता. उस के व्यवहार में आक्रामकता बढ़ती जा रही थी और इसी तनाव व आक्रामकता ने एक दिन इतना उग्र रूप धारण कर लिया कि उस ने बैडरूम में सो रहे अपने पिता और उन की गर्लफ्रैंड को चाकू से गोद कर मार डाला. इस भयावह कांड को करने के बाद वह भागा नहीं, बल्कि सुबह होने का इंतजार करता लाशों के पास ही बैठा रहा.

सुबह उस ने सब से पहले अपनी मां को फोन कर के अपने कृत्य के बारे में बताया और उस के बाद 100 नंबर पर फोन कर के खुद ही पुलिस भी बुला ली. अजय को गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया गया और वहां से किशोराश्रम. आखिर किस की गलती है कि अजय का जीवन एक सामान्य बच्चे की तरह न हो कर एक अपराधी का हो गया? कौन है इस का जिम्मेदार? अब क्या होगा अजय का भविष्य? क्या हत्यारे का कलंक उस के माथे से कभी मिट पाएगा? क्या उस के व्यवहार में सुधार आएगा और वह एक अच्छा नागरिक बन पाएगा? सवाल बहुतेरे हैं, और जवाब नदारद.

‘आप मां के साथ क्यों नहीं रहते?’ कलकत्ता हाईकोर्ट में 6 साल की मासूम बच्ची आंखों में आंसू लिए अपने पिता से यह सवाल कर रही थी. उसे रोता देख उस के छोटे भाई ने भी सिसकना शुरू कर दिया. गालों पर लुढ़क आए आंसुओं के साथ उस के मुंह से निकला, ‘अगर वह पापा के साथ रहेगी तो मैं भी रहूंगा.’ कोने में खड़ी मां चुपचाप रो रही थी. पिता की आंखें भी भीगी हुई थीं.

इस हृदय विदारक दृश्य ने जज साहब और वकीलों को भी भावुक कर दिया. तलाक के मामले में अकसर बच्चे ही पिसते हैं और उन्हें ही परिस्थितियों से जूझना पड़ता है. जस्टिस निशिता म्हात्रे और जस्टिस राकेश तिवारी की डिविजन बैंच द्वारा बच्चों की अंतरिम कस्टडी मां को दिए जाने के बाद दोनों बच्चे पिता से अलग होने के दुख में रो पड़े थे. उन के मातापिता दोनों ने ही कस्टडी के लिए हाईकोर्ट में अपील की थी.

आपसी मतभेदों की मार

सिलीगुड़ी के इस दंपती के घर 2010 में बेटी और 2012 में बेटा हुआ था. तभी पत्नी को पति पर शक होने लगा और बच्चों के साथ उस ने सिलीगुड़ी छोड़ने का फैसला कर लिया. पत्नी और बच्चों को वापस लाने में असफल होने के बाद पति ने फरवरी 2016 में सिलीगुड़ी की अदालत का दरवाजा खटखटाया. पत्नी ने भी बच्चों की कस्टडी के लिए याचिका दायर कर दी. अप्रैल में कोर्ट ने बेटी की कस्टडी पिता को और बेटे की कस्टडी मां को दे दी. हालांकि मां ने बेटी को वापस पाने की जिद की और उस ने कलकत्ता हाईकोर्ट में इस आदेश को चुनौती दी. ऐसा ही उस के पति ने भी किया,

जो दोनों बच्चों की कस्टडी चाहता था. 17 मई, 2015 को जस्टिस म्हात्रे और जस्टिस तिवारी ने फैसला दिया कि दोनों बच्चे फिलहाल मां के साथ ही रहेंगे.

पतिपत्नी के बीच पैदा हुए आपसी मतभेद हद से गुजर जाएं या किसी शारीरिक, मानसिक या पारिवारिक समस्या के कारण स्थिति असहनीय हो उठे और साथ रहना दूभर हो जाए तो अलग हो जाना ही बेहतर माना जाता है. लेकिन तलाक के बाद बच्चों का हक, उन का पालनपोषण, उन की जिम्मेदारी एक गंभीर समस्या बन जाती है. कौन उन की देखभाल अच्छी तरह करेगा? यह विवाद का मुद्दा बन जाता है.

कानून की दृष्टि से बच्चे की भलाई व उस का हित सर्वोपरि होता है. कानून इस बात पर गौर करते हुए ही फैसला करता है कि बच्चा माता या पिता में से किस के पास ज्यादा सुरक्षित है. 95 प्रतिशत मामलों में बच्चे की अभिरक्षा का भार मां को ही सौंपा जाता है. यहां तक कि वेश्यावृत्ति से जुड़ी महिलाओं के लिए भी यह कानून समानरूप से लागू होता है, क्योंकि माना जाता है कि मां बच्चे की हर प्रकार से पिता के मुकाबले हजारगुना बेहतर देखभाल कर सकती है और बच्चा भी भावनात्मक रूप से मां के ज्यादा करीब होता है. 5 प्रतिशत मामलों में बच्चा पिता के अधिकार में सौंप दिया जाता है. ऐसे में बच्चे की रजामंदी सब से बड़ा कारण होती है.

हिंसक होते बच्चे

देश में अभी भी बच्चों की कस्टडी पिता को मिलना एक मुश्किल काम है. मगर अकेली मां के लिए नौकरी, घर और बच्चे की परवरिश एकसाथ करना मुश्किलभरा होता है. ऐसे में कहीं न कहीं पिता की कमी तो महसूस होती ही है. यही कमी धीरेधीरे कुंठा का रूप ले लेती है.

हिंदू अधिनियम के अनुसार, 8 वर्ष की उम्र के बाद लड़के को पिता के साथ रहने का विकल्प दिया जाता है. पिता या बेटा चाहे तो बच्चा पिता के पास जा सकता है. कोर्ट बच्चे की सुरक्षा व देखभाल को ध्यान में रखता है, इस के लिए कभीकभी जज भी बच्चे से बात करते हैं और उस की इच्छा जानने की कोशिश करते हैं. उस के बाद ही पिता के साथ बच्चे को रहने की इजाजत दी जाती है.

बेटी के मामले में यह आयुसीमा

18 वर्ष है. बेटी को 18 वर्ष तक मां के पास ही रहना होता है, उस के बाद वह अपनी इच्छा से पिता के पास जा सकती है. मां यदि दूसरी शादी कर लेती है या फिर स्थिति ऐसी है कि वह बच्ची को नहीं रखना चाहती है तो बेटी की कस्टडी पिता को मिल जाती है. मगर एक बच्चे के लिए मातापिता दोनों का प्यार जरूरी है. मां से जहां वह भावनात्मक रूप से मजबूत बनता है, वहीं पिता की वजह से उस के अंदर सुरक्षा का एहसास पनपता है. एक अच्छे व्यक्तित्व के निर्माण के लिए यह दोनों  चीजें बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. मगर तलाक की स्थिति में बच्चे को किसी एक से अलग होना पड़ता है और इस का सीधा असर उस के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ता है.

तलाकशुदा दंपती के बच्चों में बहुधा साधारण स्थितियां भी प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. समाज की नजरों में वे खुद को अपराधी महसूस करने लगते हैं. उन्हें शर्म आती है कि उन के मातापिता ने ऐसा कदम उठाया. उन के अंदर प्रतिरोध की भावना प्रबल हो उठती है. उन का व्यवहार असामान्य होने लगता है. वे अपने साथी बच्चों के प्रति आक्रामक हो जाते हैं. यही नहीं, ठीक परवरिश न मिलने पर उन के कदम आपराधिक गतिविधियों की ओर बढ़ जाते हैं.

क्या कहता है कानून

फिजिकल और लीगल कस्टडी के लिए गार्जियन ऐंड वार्ड्स एक्ट 1890, द कस्टडी फौर द चाइल्ड फौर हिंदूज और हिंदू माइनौरिटी ऐंड गार्जियनशिप एक्ट 1956 के तहत कस्टडी दी जाती है. अदालत का साफ आदेश है कि ‘वैलफेयर औफ माइनर टू बी पैरामाउंट कंसीडरेशन.’ इस के लिए देश में जिला स्तर पर गार्जियन कोर्ट बनी हुई हैं.

बच्चों की कस्टडी के लिए अदालतों में आने वाले मामलों में 90 फीसदी पिता यह दावा करते हैं कि चूंकि उन की आय पत्नी से ज्यादा है, इसलिए वे बच्चों को बेहतर परवरिश और सुरक्षा दे सकते हैं, लिहाजा कस्टडी उन्हें दी जाए. यही नहीं, 85 प्रतिशत मामलों में देखा गया है कि बच्चे को पाने के लिए पति अपनी पत्नी के व्यवहार को खराब बताते हैं, उन्हें बेरोजगार, व्यभिचारी या मंदबुद्धि घोषित करने की कोशिश करते हैं. इस के बावजूद देखा गया है कि अदालतों में 95 फीसदी मामलों में बच्चों की कस्टडी मां को ही सौंपी जाती है. करीब 5 फीसदी मामलों में ही कस्टडी पिता को मिल पाती है. वहीं, 10 वर्ष से बड़े बच्चे की मरजी को भी कोर्ट प्रमुखता देता है.

पिता कोर्ट में बच्चे की कस्टडी हासिल करने के लिए हर संभव कोशिश करता है. वह अपनी कमाई और शिक्षा के आधार पर खुद को पत्नी से ज्यादा सक्षम भी बताता है. बावजूद इस के, कोर्ट मानता है कि मां ही बच्चे की नेचुरल गार्जियन है, इसलिए उस के पक्ष में फैसले ज्यादा होते हैं. हालांकि अब पिता का रोल बच्चों के लालनपालन में बढ़ा है. इसलिए अदालतें पिता के प्रति भी कुछ सौफ्ट हो रही हैं. शायद इसीलिए अब जौइंट लीगल कस्टडी का ट्रैंड भी बढ़ा है, जैसा कि बौलीवुड अदाकार रितिक रोशन और उन की पत्नी सुजैन के मामले में देखा गया है. तलाक के बावजूद दोनों ही अपने बच्चों के साथ पब्लिक इवैंट, स्कूली कार्यक्रम व निजी जलसों में इकट्ठा देखे जाते हैं. अदालतें भी बच्चों के फिजिकल और साइकोलौजिकल डैवलपमैंट को देखते हुए साझा परवरिश के कौन्सैप्ट को प्रमोट कर रही हैं.

साझी परवरिश की वकालत

पतिपत्नी में दांपत्य विवाद के बाद तलाक होने की स्थिति में उन के बच्चों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को ले कर अदालतें ही नहीं, बल्कि विधि आयोग भी बेहद चिंतित है. उस की चिंता का मुख्य कारण तलाक के बाद दंपती के बीच बच्चों पर हक को ले कर छिड़ने वाली कानूनी लड़ाई और बच्चों के मनमस्तिष्क पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव को ले कर है. विधि आयोग अदालतों में कानूनी दांवपेंच का मोहरा बनने से बच्चों को बचाने के लिए ‘साझा परवरिश’ की वकालत करता है. उस ने तलाकशुदा दंपती के बच्चों की एकल के मुकाबले साझा परवरिश का कानूनी प्रावधान किए जाने पर जोर दिया और वर्ष 2015 में केंद्र सरकार को सौंपी अपनी 157वीं रिपोर्ट में तलाकशुदा दंपतियों के बच्चों की परवरिश को ले कर कई सिफारिशें कीं ताकि मातापिता के बीच तलाक के बाद उन के बच्चों पर बुरा प्रभाव न पड़ सके.

आयोग ने बच्चों पर पतिपत्नी दोनों का प्राकृतिक अभिभावक होने की वकालत करते हुए कहा कि अब समय आ गया कि पारिवारिक न्यायालय के निरीक्षण में भारत में साझा परवरिश की कोशिश की जानी चाहिए. साझा परवरिश का सिद्धांत पहले से ही अमेरिका, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और नीदरलैंड्स में मौजूद है. विधि मंत्री सदानंद गौड़ा को सौंपी रिपोर्ट में हिंदू माइनौरिटी ऐंड गार्जियनशिप एक्ट 156 तथा गार्जियंस एेंड वार्ड्स एक्ट 1890 में संशोधन करने की बात हो रही है.

कुछ ऐसे कानूनों, जिन में पिता को ही बच्चे का प्राकृतिक अभिभावक होने की बात कही गई है, को रेखांकित करते हुए आयोग ने अपनी सिफारिशों में यह भी कहा है कि एक अभिभावक होने की वरिष्ठता को हटाया जाना चाहिए और मातापिता दोनों को समान महत्त्व दिया जाना चाहिए.

उल्लेखनीय है कि विधि आयोग ने ‘भारत में साझा परवरिश प्रणाली क्रियान्वयन’ नाम से एक परामर्शपत्र जारी कर इस बारे में विशेषज्ञों से राय मांगी थी. इस संबंध में ज्यादातर ने आयोग की सिफारिशों पर अपनी सहमति की मुहर लगाई है.

तलाक के बाद

समय आ गया है कि मातापिता तलाक लेने से पहले अपने बच्चों के भविष्य और उन पर पड़ने वाले मानसिक प्रभाव के बारे में गंभीरता से सोचें. हालांकि दंपती के तलाक लेने के फैसले को अदालतें कभी प्रोत्साहित नहीं करतीं और आखिर तक कोशिश करती हैं कि दोनों में सुलह हो जाए, पर यदि तलाक के लिए दोनों पक्ष अड़ ही जाएं और तलाक ही अंतिम फैसला हो, तो ऐसे में उन्हें चाहिए कि अपने बच्चों को अपने अलग होने का कारण भलीभांति और सही रूप में समझाएं. दोनों पक्षों के वक्तव्यों में समानता होनी चाहिए.

ऐसा नहीं कि वे बच्चे को एकदूसरे के प्रति कड़वाहट से भर दें. उसे यह आश्वासन दें कि हम पतिपत्नी अलग हो रहे हैं, किंतु तुम्हारे साथ आजीवन जुड़े रहेंगे. तुम्हारी जरूरतें तलाक के बाद भी हमारे लिए उतनी ही महत्त्वपूर्ण होंगी जितनी अब हैं.

यह स्वाभाविक है कि बच्चा जिस पक्ष के पास रहता है उस के विपरीत उसे दूसरे पक्ष की चाहत ज्यादा होती है. इस को गलत नहीं समझना चाहिए और इस को ले कर बच्चे को कभी डांटना नहीं चाहिए. अपने बचपन को ध्यान में रख कर ही अपने बच्चे के विकास की ओर ध्यान देना चाहिए. बेहतर तो यही होगा कि बच्चे को बोर्डिंग स्कूल भेज दें और दोनों नियमितरूप से उस से मिलने जाते रहें.

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