आज की जंकफूड संस्कृति के चलते युवा भी हड्डियों से जुड़ी बीमारियों की चपेट में लगातार आ रहे हैं. युवा टैक्नोलौजी और सुविधाओं पर इतना ज्यादा निर्भर हो गए हैं कि शारीरिक परिश्रम करना कहीं पीछे रह गया है. पहले लोग शारीरिक काम बहुत करते थे, इसलिए स्वस्थ व फिट रहते थे. इस के अलावा युवाओं की अनियमित दिनचर्या, दिनभर डैस्क जौब, टैक्नोलौजी व मशीनों पर बढ़ती निर्भरता, शारीरिक व्यायाम न करने और पोषक खानपान न होने की वजह से हड्डियों के रोग होने का रिस्क बढ़ रहा है. वहीं, महिलाएं परिवार के सदस्यों की देखभाल में खुद की सेहत पर ध्यान देना भूल जाती हैं. इस वजह से युवावस्था में ही वे हड्डियों से जुड़ी समस्याओं से जूझने लगती हैं. गर्भधारण, स्तनपान कराने से ले कर मीनोपौज तक महिलाओं की हड्डियों का मजबूत होना बहुत महत्त्वपूर्ण है.
महिलाएं 20 के आखिरी पड़ाव या 30 के शुरुआती सालों में हड्डियों से जुड़े सेहत संबंधी मुद्दों व समस्याओं पर ध्यान नहीं देतीं. इस वजह से वे हड्डियों से जुड़े विकार औस्टियोपोरोसिस से घिर जाती हैं. भारत जैसे देश में तो महिलाओं को शुरुआत में पता तक नहीं चल पता कि वे औस्टियोपोरोसिस से ग्रस्त हैं.
हड्डियों की देखभाल करने की कोई उम्र नहीं है. किशोर लड़कियां अपनी इसी उम्र में ही हड्डियों का घनत्व बढ़ा सकती हैं. 30 वर्ष की उम्र के बाद यह थोड़ा मुश्किल हो जाता है. अगर शुरुआती सालों में हड्डियां मजबूत रहेंगी तो उम्र बढ़ने के साथ महिलाएं स्वस्थ रहेंगी. महिलाओं में 30 वर्ष की उम्र के बाद शरीर से कैल्शियम का भंडार कम होने लगता है और 40 की उम्र पार मीनोपौज के बाद तो कैल्शियम की जरूरत और अधिक हो जाती है क्योंकि मीनोपौज के बाद पुरानी हड्डियों के अवशोषित होने के मुकाबले नई हड्डियों के निर्माण की दर कम होने लगती है जिस से औस्टियोपोरोसिस होने का खतरा बढ़ जाता है. मीनोपौज के 5 से 7 साल तक महिलाओं का 20 प्रतिशत तक हड्डियों का घनत्व कम हो सकता है. शरीर में हड्डियां एक तरह की जीवित कोशिकाएं होती हैं जो लगातार अवशोषित होती रहती हैं और साथसाथ बनती भी रहती हैं. लेकिन 30 वर्ष की उम्र के बाद यह प्रक्रिया धीमी हो जाती है, इसलिए महिलाओं के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि वे 20 वर्ष की उम्र के पड़ाव से ही सही मात्रा में कैल्शियम लें ताकि मीनोपौज के बाद औस्टियोपोरोसिस जैसी बीमारियों का रिस्क कम हो जाए.
बच्चे भी नहीं हैं अछूते
पहले मोटे बच्चे को स्वस्थ बच्चा माना जाता था. मानते थे कि मोटा बच्चा स्वस्थ है लेकिन अब मोटापे से ग्रस्त बच्चे पर ध्यान देने की बहुत ज्यादा जरूरत है क्योंकि अध्ययनों से पता चला है कि मोटे बच्चों की हड्डियों के कमजोर होने का खतरा ज्यादा रहता है. मोटापे से ग्रस्त बच्चे के शरीर में वसा की मात्रा ज्यादा होती है जो कूल्हों के अलावा शरीर के अन्य भागों जैसे लिवर, दिल, मांसपेशियों में भी जमा होने लगता है. इस से हड्डियों को विकास करने की जगह नहीं मिल पाती और बच्चों की हड्डियां अविकसित व कमजोर हो जाती हैं.
वसा की अधिक मात्रा से बच्चों में हड्डियों का विकास रुक जाता है और इस से बच्चों में फ्रैक्चर का रिस्क बहुत जयादा बढ़ जाता है. अभिभावकों के लिए यह समझना बहुत जरूरी है कि गठिया जैसी बीमारियां अब बुजुर्गों तक ही सीमित नहीं रह गई हैं, बल्कि इस से बच्चे व युवा भी नहीं बच पा रहे हैं. इसलिए उन्हें खाने में पौष्टिक व संतुलित आहार दें और हड्डियों की मजबूती के लिए प्रचुर मात्रा में कैल्शियम व विटामिन डी दें. बच्चे अब बाहर खेल कर पसीना बहाने के बजाय घर में मोबाइल, कंप्यूटर व टीवी पर ही लगे रहते हैं और उन के खानपान में जंकफूड व कोल्ड ड्रिंक्स का ज्यादा सेवन होता है. इस के अलावा तली चीजें व पैक्ड फूड के सेवन से बच्चों की हड्डियों के लिए जरूरी खनिज लवणों की कमी हो जाती है. इन वजहों से भी बच्चों के मामूली चोट लगने पर फ्रैक्चर की स्थिति बन जाती है.
बुजुर्गों की परेशानी
उम्र बढ़ने के साथसाथ हड्डियों में घिसाव से कमजोरी आ जाती है. इस वजह से बुजुर्गों में गठिया या औस्टियोपोरोसिस की समस्या ज्यादा देखने को मिलती है. अगर समय रहते ध्यान न दिया जाए तो आर्थ्राइटिस या औस्टियोपोरोसिस की वजह से रोजमर्रा के काम तक करना दूभर हो जाता है. दर्द लगातार हो रहा हो तो डाक्टर से सलाह लेनी बहुत जरूरी है. पेनकिलर दवाएं लगातार नहीं लेनी चाहिए, इस से किडनी और अन्य अंगों पर साइडइफैक्ट्स होते हैं. समय रहते और्थोपैडिक डाक्टर से परामर्श ले करसही इलाज कराना चाहिए.
(लेखक नई दिल्ली स्थित मैक्स अस्पताल, शालीमार बाग में और्थोपैडिक विशेषज्ञ हैं.)
फ्रैक्चर के प्रबंध के तरीके
टूटी हुई हड्डियों का प्रबंध कैसे किया जाता है, जानकारी दे रहे हैं डा. राजू वैश्य.
हड्डी टूटने या फ्रैक्चर की स्थिति में रोगी को तुरंत दर्द शुरू हो जाता है और फ्रैक्चर की वजह से रोगी प्रभावित अंग को हिलाने में भी असमर्थ होता है. ऐसी स्थिति में तुरंत डाक्टर से परामर्श लें. फ्रैक्चर का पता लगाने के लिए एक्सरे या एमआरआई की जाती है. फ्रैक्चर की सही जगह का पता चलने पर रोगी की स्थिति के अनुसार प्लास्टर लगाया जाता है और अगर रोगी की स्थिति गंभीर है तो सर्जरी कर के रौड भी लगाई जाती है. भिन्न आयुवर्ग के लोगों जैसे बच्चों, वयस्कों और बुजुर्गों में टूटी हुई हड्डी के उपचार का तरीका अलग है. यही नहीं, हड्डी टूटने का पैटर्न भी अलग होता है.
बच्चों में फ्रैक्चर
वयस्कों के मुकाबले बच्चे की हड्डी जल्दी ठीक होती है क्योंकि इस में एक विशेष कवरिंग यानी पेरिऔस्टियम होता है जो हड्डी को औक्सीजन और पोषण की बेहतर आपूर्ति करता है. इस से टूटी हुई हड्डी को जल्दी ठीक होने में सहायता मिलती है. बच्चों में पेरिऔस्टियम के कारण टूटी हुई हड्डी जल्दी जुड़ती है और उन के रीमौडलिंग की संभावना बढ़ जाती है. इस बात की संभावना ज्यादा रहती है कि बच्चे की हड्डियां पूरी तरह टूटने के बजाय मुड़ जाएं (ग्रीन स्टिक फ्रैक्चर) क्योंकि ये कोमल होती हैं.
वयस्कों में फ्रैक्चर
कम उम्र के मरीजों में फ्रैक्चर का मुख्य कारण जोर से चोट या झटका लगना होता है. इस के लिए उपचार के सामान्य तरीकों की आवश्यकता होती है. इन्हें 2 वर्गों में बांटा जा सकता है और यह सौफ्ट टिश्यू से संबंधित होता है. क्लोज्ड फ्रैक्चर : ये ऐसे फ्रैक्चर होते हैं जिन में ऊपर की त्वचा ठीक रहती है. ओपन यानी खुला/कंपाउंड फ्रैक्चर : ऐसे जख्म जिन का संबंध फ्रैक्चर से होता है.
बुजुर्गों में फ्रैक्चर
बुजुर्ग मरीजों की हड्डियां औस्टियोपोरोसिस के कारण नाजुक हो जाती हैं. इसलिए इस वर्ग की हड्डियां बहुत जल्दी टूट जाती हैं. औस्टियोपोरोसिस के कारण आमतौर पर कलाई, रीढ़, कंधे और कूल्हों में फ्रैक्चर होता है. मल्टीपल वर्टिब्रल फ्रैक्चर के कारण व्यक्ति थोड़ा टेढ़ा हो जाता है या झुक जाता है. इस से उस की ऊंचाई कम हो जाती है, लगातार दर्द रहता है और इस कारण आवाजाही कम हो जाती है.
क्या है उपचार
फ्रैक्चर के उपचार का एक सीधा नियम है, हड्डियां सीधी जुड़नी चाहिए और जुड़ने से पहले उन्हें इधरउधर बढ़ने से रोका जाना चाहिए. इस के लिए क्या उपचार किया जाए, यह इस बात पर निर्भर करता है कि फ्रैक्चर कितना गंभीर है. यह ओपन फ्रैक्चर है या क्लोज्ड और कौन सी हड्डी टूटी है. उदाहरण के लिए कूल्हे की टूटी हड्डी और टूटे हाथ का उपचार अलग होगा. फ्रैक्चर और हड्डियों का प्रबंध गैर औपरेटिव तथा औपरेटिव दोनों तरीकों से किया जा सकता है. नौन औपरेटिव उपचार अकसर फ्रैक्चर को प्लास्टर कास्ट से निष्क्रिय कर के किया जाता है. ऐसा तब होता है जब टूटे हुए हिस्से एकसीध में होते हैं. ऐसा न हो तो मरीज को बेहोश कर के या सुन्न कर के हड्डियों को सीध में लाना होता है और इस के बाद ही प्लास्टर चढ़ाया जाता है. बच्चों में फ्रैक्चर का उपचार अकसर बिना औपरेशन के किया जाता है क्योंकि उन की हड्डियों के रीमौडल करने की संभावना अच्छीखासी होती है.
नौन औपरेटिव
हड्डियों के उपचार की इस थैरेपी में कास्टिंग और ट्रैक्शन (त्वचा और हड्डियां) शामिल है. यह सुनिश्चित करने के बाद कि टूटे हुए हिस्से सही तालमेल में हैं, प्लास्टर कास्ट कर दिया जाता है. यह कास्टिंग फाइबर ग्लास से या फिर प्लास्टर औफ पेरिस यानी पीओपी की पट्टियों से किया जा सकता है.
निष्क्रिय किया जाना : हड्डियों का जुड़ना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो अकसर होता है. फ्रैक्चर के उपचार का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि ठीक होने के बाद जख्मी हिस्सा सर्वश्रेष्ठ संभव ढंग से काम करे. फ्रैक्चर का उपचार अकसर टूटी हुई हड्डियों को वापस उन के स्वाभाविक स्थान पर बहाल कर के (अगर आवश्यक हो) ठीक होने तक हिलने नहीं देना है.
ट्रैक्शन : उपचार की इस विधि के तहत हड्डी या हड्डियों को खींच कर तालमेल में रखा जाता है और हड्डी को लगातार हलके खिंचाव में रखा जाता है. इस तरह खींचने का असर हड्डी या हड्डियों पर होता है और इस के लिए हड्डी के जरिए धातु के पिन का उपयोग किया जाता है या फिर स्किन टेप यानी स्किन टै्रक्शन का उपयोग किया जाता है. यह प्राथमिक उपचार है.
सर्किल उपचार
इस उपचार का उपयोग तभी होता है जब कोई अस्थिरोग शल्य चिकित्सक ऐसा करने के लिए कहता है ताकि टूटी हुई हड्डी को पुरानी स्थिति में बहाल किया जा सके. इस तरीके से हड्डी अपनी सही जगह पर स्थापित हो जाती है.
इस प्रक्रिया में हड्डी की सर्जरी होती है और उसे धातु के टुकड़े से ठीक किया जाता है. इस के जरिए हड्डियों को एकसाथ रखा जाता है. टूटी हुई हड्डी को ठीक करने के कई तरीके हैं. इन में बाहरी यानी एक्सटर्नल फिक्सेशन और आंतरिक उपकरण यानी इंटरनल फिक्सेशन शामिल हैं. एक्सटर्नल फिक्सेशन में पिन या स्कू्र से टूटी हुई हड्डी को जोड़ कर कस दिया जाता है. यह टूटे हुए हिस्से के ऊपर, नीचे या ऊपर से नीचे तक हो सकता है. इन्हें लोहे के तार से जोड़ा या कसा जाता है जो त्वचा के बाहर होते हैं. वहीं, आंतरिक फिक्सेशन के तहत टूटी हुई हड्डी को ठीक करने के लिए धातु के कई उपकरण उपलब्ध हैं. ये स्टेनलैस स्टील या टाइटेनियम धातु के बने होते हैं. ये भिन्न किस्म के होते हैं :
तारें : आमतौरपर इन का उपयोग फ्रैक्चर के स्थायी और निर्णायक उपचार के लिए किया जाता है. इन का उपयोग टूटी हुई हड्डी को जोड़ने के लिए उपयोग में लाए जाने वाले प्लेट और स्कू्र के साथ होता है. आवश्यकता के अनुसार तार का उपयोग त्वचा के ऊपर या किसी सुराख के जरिए किया जा सकता है.
प्लेट और स्कू्र : इन का उपयोग वयस्कों में फ्रैक्चर का प्रबंध करने के लिए किया जाता है. ताकि औपरेशन के बाद की देखभाल के लिए आवश्यक कामकाज संभव हो. प्लेट की डिजाइन अलगअलग होती हैं. सभी प्लेटों को लगाने के लिए सौफ्ट टिश्यू को हटाया जाता है और यह न्यूनतम होता है. हड्डी की गुणवत्ता खराब हो तो लौकिंग प्लेट का उपयोग अकसर किया जाता है, जैसे औस्टियोपोरोटिक फ्रैक्चर्स.
इंट्रामेडुलरी नेल्स : गुजरी आधी सदी के दौरान इंट्रामेडुलरी नेल्स का उपयोग खूब स्वीकार किया गया है. ये नेल्स एक आंतरिक स्प्लिंट की तरह काम करते हैं जो हड्डी के साथ मिल कर भार साझा करते हैं. ये लचीले अथवा सख्त, लौक्ड अथवा अनलौक्ड, रीम्ड अथवा अनरीम्ड हो सकते हैं. लौक्ड इंट्रामेडुलरी नेल्स स्थिरता मुहैया कराते हैं ताकि हड्डियां तालमेल में रहें और उन की लंबाई पहले की ही तरह रहे. इंट्रामेडुलरी नेल्स के उपयोग से फ्रैक्चर वाली जगह पर व्यापक ताकत संभव होती है. इस से हड्डी जल्दी ठीक होती है.
इंट्रामेडुलरी नेल्स का उपयोग आमतौर पर फिमोरल और टिबियल डायफिसील फ्रैक्चर के लिए किया जाता है और अकसर ह्यूमेरेल डायफिसील फ्रैक्चर में भी इस का उपयोग होता है. इंट्रामेडुलरी नेल्स का फायदा यह है कि मिनिमली इनवैसिव प्रक्रिया में उस का उपयोग होता है. यही नहीं, अर्ली पोस्ट औपरेटिव एंबुलेशन और अर्ली आरओएम में भी इस का उपयोग होता है.
सर्जिकल विधियां
आमतौर पर सर्जरी तभी की जाती है जब सामान्य उपाय नाकाम हो जाते हैं. कुछ फ्रैक्चर जैसे कूल्हे की हड्डी टूटने (अमूमन औस्टियोपोरोसिस के कारण होता है) जैसी स्थिति में सर्जरी कराने की सलाह दी जाती है.
हड्डियों को संक्रमण से बचाएं
संक्रमण की वजह से कई मामलों में हमेशा के लिए हड्डियां क्षतिग्रस्त हो जाती हैं. ऐसे में संक्रमण को कैसे रोका जा सकता है, उपाय बता रहे हैं डा. हेमंत शर्मा.
बैक्टीरिया पनपने से त्वचा में संक्रमण हो जाता है और समय पर ध्यान न देने से वह संक्रमण गंभीर भी हो सकता है. ठीक ऐसे ही हड्डियों में संक्रमण हो सकता है जिसे औस्टियोमाइलाइटिस कहते हैं. अगर हड्डी में बैक्टीरिया या वायरस चला जाए तो हड्डियों में संक्रमण होने का खतरा रहता है. वयस्कों में यह समस्या अकसर कूल्हों, रीढ़ की हड्डी और पैरों में पाई जाती है जबकि बच्चों में यह आमतौर पर बाजू की लंबी हड्डी और टांगों में देखने को मिलती है.
कैसे होता है संक्रमण
कई छोटेछोटे बैक्टीरिया व वायरस खून के रास्ते हड्डियों में पहुंच जाते हैं और हड्डियों में संक्रमण फैलाते हैं. इस में सब से आम स्टेफ्लोकोकस जीव है जिस से शरीर में संक्रमण होता है और बाद में यह हड्डियों तक भी पहुंच जाता है. स्टेफ्लोकोकस जीव त्वचा के ऊपर कोई नुकसान नहीं पहुंचाते लेकिन ये रोगी की इम्युनिटी को कम कर देते हैं और जख्मी अंग को अधिक संक्रमित कर सकते हैं. ये बैक्टीरिया किसी चोट, गहरे जख्म से उत्पन्न होते हैं और मवाद के रूप में संक्रमण के पास की हड्डियों में पहुंच जाते हैं. कई बार ये बैक्टीरिया सर्जरी से हुए कट से भी उत्पन्न हो सकते हैं.
संक्रमण के कारण
हड्डी में संक्रमण होने के कई कारण हो सकते हैं. अगर जख्म को सही तरीके से साफ न किया जाए तो बैक्टीरिया पनप सकते हैं. कई बार जख्म या चोट में मवाद भर जाता है, जिस में बैक्टीरिया उत्पन्न हो जाते हैं. यही मवाद हड्डियों तक पहुंच जाता है. इस के अलावा डायबिटीज के रोगी का जख्म ठीक न होने की स्थिति में बैक्टीरिया हड्डियों पर अटैक कर सकते हैं. अकसर डायबिटीज रोगियों के पैरों पर जख्म होने पर वे भर नहीं पाते, जिस से उस में बैक्टीरिया उत्पन्न होने लगते हैं और फिर वे हड्डियों को संक्रमित करते हैं. त्वचा में संक्रमण के मुकाबले हड्डियों के संक्रमण को ठीक होने में काफी समय लगता है.
क्या हैं लक्षण
आमतौर पर हड्डियों में संक्रमण से रोगी को दर्द बहुत ज्यादा होता है. इस के अलावा उसे बुखार के साथ कंपकंपाहट, संक्रमित अंग में सूजन और लालिमा छा जाती है. संक्रमित हड्डी के पास त्वचा अकड़नभरी हो जाती है. अंग से गाढ़े पीले रंग का मवाद निकलता है और यह दिनप्रतिदिन काफी गहरा होता जाता है और छेद जैसा दिखने लगता है.
संक्रमण का रिस्क
सब से ज्यादा समस्या डायबिटीज रोगियों को हो सकती है. उन की हडिडयों में पहुंचने वाले रक्त से यह समस्या हो सकती है. किडनी के इलाज में इस्तेमाल हिमोडायलिसिस से यह विकार हो सकता है. कृत्रिम प्रत्यारोपण के दौरान भी संक्रमण होने का रिस्क बढ़ जाता है. इस के अलावा ज्यादा शराब व धूम्रपान के सेवन से हड्डी में संक्रमण का रिस्क बढ़ सकता है.
कैसे करें इलाज
बीमारी का पता चलने पर रोगी को ऐंटीबायटिक दवाओं की डोज दी जाती है. अगर स्थिति ज्यादा गंभीर होती है तो डाक्टर सर्जरी का भी परामर्श देते हैं. सर्जरी में संक्रमित हड्डी और उस के आसपास के मृत टिश्यूज को बाहर निकाल दिया जाता है. इस प्रक्रिया में जख्म या चोट के मवाद को भी बाहर निकाला जाता है. संक्रमित हड्डी को निकाल कर उस की जगह नई हड्डी प्रत्यारोपित कर दी जाती है. जख्म की उपयुक्त देखभाल करना बहुत जरूरी है और कई बार इलाज कई महीनों तक चल सकता है. इसलिए रोगी को डाक्टर द्वारा दी गई दवाओं को नियमित रूप से लेना चाहिए. अगर रोगी को डायबिटीज है तो बिना डाक्टर के परामर्श के कोई भी दवा या इलाज न करें. वैसे तो अन्य रोगियों को भी इलाज खुद से नहीं करना चाहिए लेकिन डायबिटीज रोगी के मामले में स्थिति गंभीर हो सकती है. रोगी अकसर खुद ही ऐंटीबायटिक दवाएं ले लेते हैं जिस से कई बार रोगी को कई तरह के साइड इफैक्ट्स हो जाते हैं. खासतौर पर डायबिटीज या किसी अन्य बीमारी से ग्रस्त रोगी को तो बिना डाक्टर के परामर्श के कोई दवा लेनी ही नहीं चाहिए. लोग कैमिस्ट से दवा ले लेते हैं जो काफी जोखिम भरा हो सकता है.
बेहतर देखभाल और जख्म को सूखा रख कर संक्रमण को रोका जा सकता है. दर्द बढ़ने पर समय रहते डाक्टर से परामर्श लेने पर स्थिति को गंभीर होने से बचाया जा सकता है. रोगी को आरामदायक और सही जूते पहनने चाहिए. डायबिटीज रोगियों को खास खयाल रखना चाहिए. चोट से बचना चाहिए ताकि जख्म न हो क्योंकि डायबिटीज रोगियों के जख्म भरने में समय लगता है.
हेयरलाइन फ्रैक्चर : रिस्क फैक्टर्स भी है
हेयरलाइन फ्रैक्चर से जुड़े रिस्क व सावधानी के बारे में जानिए डा. रवि सौहता से.
हेयरलाइन फ्रैक्चर या स्टै्रस फ्रैक्चर आम लोगों में बोन इंजरी की आम समस्या मानी जाती है. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है हेयरलाइन फ्रैक्चर हड्डी में बहुत बारीक दरार सा होता है. यह हड्डी पर ज्यादा जोर पड़ने के कारण गंभीर इंजरी से होता है. हेयरलाइन फ्रैक्चर सक्रिय खिलाडि़यों की आम समस्या होती है क्योंकि लगातार दौड़नेउछलने जैसी गतिविधियों के कारण उन की हड्डियों पर ज्यादा दबाव पड़ने का खतरा रहता है. ऐसी गतिविधियों के परिणामस्वरूप पैरों या एडि़यों में हेयरलाइन इंजरी का खतरा रहता है जबकि सोने, गिरने या कूदने के चलते शरीर के किसी हिस्से पर ज्यादा दबाव पड़ने से स्ट्रैस फ्रैक्चर होता है.
जो लोग औस्टियोपोरोसिस के शिकार हैं या जिन की हड्डियों की डैंसिटी कम होती है उन्हें नियमित कार्य करने के दौरान भी हेयरलाइन फ्रैक्चर हो सकता है, जिस से कमजोर हड्डियों पर थोड़ा अधिक स्ट्रैस पड़ जाता है. एक्यूट फ्रैक्चर में हड्डियों में बड़ी इंजरी होती है और उस में इलाज की जरूरत पड़ती है लेकिन हेयरलाइन फ्रैक्चर मामूली होता है और पर्याप्त आराम तथा देखभाल से ही ठीक हो जाता है. इस में किसी सर्जिकल चिकित्सा की जरूरत नहीं पड़ती और कई बार तो प्रभावित हिस्से को पट्टी से लपेटने की भी जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन हेयरलाइन फ्रैक्चर का असर लंबे समय तक रह सकता है और इस की न तो अनदेखी होनी चाहिए और न ही इसे हलके में लेना चाहिए.
हेयरलाइन फ्रैक्चर का असर
ज्यादातर मामलों में हेयरलाइन फ्रैक्चर का प्रभाव कुछ हफ्तों तक ही रहता है और इस दौरान प्रभावित हिस्से पर ज्यादा दबाव डालने या वजन उठाने से बिलकुल बचना चाहिए. कुछ हफ्तों तक भरपूर आराम और प्रभावित हड्डी की सभी गतिविधियों पर विराम लगाना ही हेयरलाइन फ्रैक्चर से नजात पाने के लिए पर्याप्त माना जाता है. यही वजह है कि इस दौरान डाक्टर आप के पैर में पट्टी या बाजू में क्रेप बैंडेज लपेट देते हैं ताकि आप की हड्डी पर किसी तरह का अतिरिक्त दबाव न पड़े. यदि उचित ध्यान न दिया जाए और डाक्टर की सलाह का पूरी तरह पालन न किया जाए तो यह इंजरी परेशानी का सबब बन सकती है. हड्डी को पर्याप्त रूप से आराम नहीं देने पर दोबारा इंजरी होने का खतरा रहेगा या भविष्य में भी आप के उस जगह पर दर्द उभर सकता है. कुछ मामलों में स्ट्रैस फ्रैक्चर पूरी तरह ठीक नहीं होता, जो आगे चल कर क्रोनिक दर्द में बदल जाता है और सामान्य जीवनचर्या को बाधित करने लगता है. पैरों का स्ट्रैस फ्रैक्चर आधाअधूरा ठीक होने पर जब कभी आप ज्यादा देर तक चलेंगे या दौड़ेंगे तो इस का दर्द उभर सकता है. खिलाडि़यों का स्ट्रैस फ्रैक्चर अगर पूरी तरह ठीक नहीं किया जाए तो उस का कैरियर भी खतरे में पड़ सकता है.
खतरे व सावधानियां
स्ट्रैस फ्रैक्चर से पीडि़त होने पर ये फैक्टर्स आप को खतरे में डाल सकते हैं:
कमजोर हड्डियां : औस्टियोपोरोटिक हड्डियों के लिए स्ट्रैस फ्रैक्चर एक बड़ा खतरा होता है. औस्टियोपोरोसिस एक ऐसी स्थिति यानी ‘छिद्रयुक्त हड्डियों की स्थिति’ होती है जिस में आप की हड्डी की डैंसिटी बहुत कम हो जाती है. यदि आप की हड्डियों की डैंसिटी में कमी कैल्शियम या विटामिन डी की कमी के कारण होती है तो आप बड़ी आसानी से हेयरलाइन फ्रैक्चर की चपेट में आ सकते हैं. सीढि़यों के 2 पायदान से कूदने जैसी नुकसानरहित गतिविधियां करने पर भी आप मुश्किल में पड़ सकते हैं. कमजोर बोन डैंसिटी से पीडि़त कई बुजुर्गों को बारबार स्ट्रैस फ्रैक्चर होता रहता है. कई बार स्ट्रैचिंग करने और परदा खींचने जैसे रोजमर्रा के कार्यों में उन्हें यह परेशानी आ सकती है. इस तरह के खतरे से दूर रहने के लिए अपनी हड्डियों को पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम और विटामिन डी के सेवन से मजबूत रखना जरूरी है. यदि आप अपनी सक्रियता अचानक बढ़ा देते हैं तो आप को स्ट्रैस फ्रैक्चर हो सकता है. मसलन, निष्क्रिय लोग यदि अचानक दौड़ना या किसी जिम में वर्कआउट करना व वजन उठाने वाला व्यायाम शुरू कर दें तो उन के स्ट्रैस फ्रैक्चर की चपेट में आने का खतरा बढ़ सकता है. आप को धीरेधीरे अपनी शारीरिक सक्रियता बढ़ानी चाहिए. साथ ही, हड्डियों की मजबूती के लिए उचित व्यायाम भी बहुत जरूरी है. हड्डी एक जिंदा टिश्यू होती है जो व्यायाम से सक्रिय रहती है. हड्डियों के लिए वजन उठाने वाला व्यायाम सर्वश्रेष्ठ माना जाता है.
पैरों की संरचना : कुछ लोगों के पैरों की संरचना ही ऐसी होती है कि उन्हें फ्रैक्चर का खतरा अधिक रहता है. मसलन, फ्लैट पांव या असामान्य छोटे पांव वाले लोगों में अन्य लोगों की अपेक्षा फ्रैक्चर का खतरा रहता है.
इन का परहेज करें
- जंक फू्ड खाना
- हाई प्रोटीन
- मांस
- नमक की ज्यादा मात्रा
- कौफी और चाय
- कैफीन और कार्बोनेटिड ड्रिंक
- धूम्रपान व शराब का सेवन
- जीवनशैली व खानपान में बदलाव जरूरी
- ल्शियम पर्याप्त मात्रा में लें जिस से कि शरीर हड्डियों से कैल्शियम न लें.
- हरी पत्तेदार सब्जियां पर्याप्त मात्रा में लेने से विटामिन ‘के’ भरपूर मिलता है.
- वजन नियंत्रित रखें. आप को जान कर आश्चर्य होगा कि अगर शरीर का एक किलो वजन ज्यादा है तो घुटने को कदम बढ़ाने के लिए 4-5 गुना ज्यादा दबाव झेलना पड़ता है और अगर यह दबाव लगातार बना रहे तो कार्टिलेज में टूटफूट हो जाती है और इस से घुटने के जोड़ों में विकृति हो जाती है.
- विटामिन के, डी और सी के लिए संतरे, पालक, गोभी और टमाटर प्रचुर मात्रा में लें. ये कार्टिलेज बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और शरीर में कैल्शियम को अवशोषित करने में मदद करते हैं जिस से हड्डियां मजबूत होती हैं.
- हड्डियों की मजबूती के लिए विटामिन डी बहुत महत्त्वपूर्ण है और इसे पाने के लिए धूप सेंके.
- हड्डियों की मजबूती के लिए दूध और उस से बने उत्पाद बहुत जरूरी हैं. 50 साल तक के वयस्कों को दिन में 1,000 मिलीलिटर दूध लेना चाहिए तो महिलाओं को 1,200 मिलीलिटर दूध पीना चाहिए.