एक नयी स्टडी बेहद निराशाजनक है. इसके मुताबिक आजकल के अभिभावक बच्चों की परवरिश को इस कदर अनदेखा कर रहे हैं कि उनके लिए दिन में मात्र 32 मिनट निकाल पाते हैं. यानी 24 घंटों में महज 32 मिनट ही अपने बच्चों के साथ खेलकूद, खानेपीने, पढ़ाई और दिनभर की बातें करने के लिए देते हैं. जबकि इस से ज्यादा समय तो 4-5 गाने सुनने, ड्राविंग करें, सिगरेट पीने या कोई कोई टीवी सीरीज देखने में गँवा देते हैं. तो क्या बच्चों की अहमियत इतनी कम हो गयी है कि उन्हें महज 32 मिनट की पैरेंटिंग दी जाए?
कोई ताज्जुब नहीं की आजकल के बच्चे कम उम्र से ही अकेलेपन, अवसाद और अपने में सिकुड़ते जाते हैं. माँ-बाप को ये समझना होगा कि बच्चों की ख़ुशी के लिए संसाधनों से ज्यादा जरूरी आपका समय. इसलिए हर पेरेंट्स को अपने बच्चों की ख़ुशी और साथ के लिए करने ही चाहिए. जब मातापिता उन्हें समय ही नहीं देंगे तो उनका बौद्धिक और शारीरिक विकास क्या ख़ाक होगा?
बच्चों से समय की चोरी
मील डिलीवरी सर्विस फर्म मंचरी का यह सर्वे करीब 2000 से भी ज्यादा माता पिता के बीच किया गया और इसमें खुद पैरेंट्स ने इस बात को स्वीकार किया है कि वे अपने लिए समय निकालने के चक्कर में सप्ताह में चार बार अपने बच्चों से समय चुराते हैं. यानी जो टाइम बच्चों को मिलना था वे खुद पर खर्च कर डालते हैं. नए आंकड़ों के मुताबिक़ इस के पीछे अहम कारण यह कि करीब 32 प्रतिशत माता-पिता दफ्तर से घर आकर 8 बजे तक अपने ही काम निबटाते रहते हैं. जबकि यह टाइम पूरी तरह से पैरेटिंग फैक्टर के लिए होता है. और जब तक वे अपने काम निबटा कर फ्री हो पाते हैं बच्चे सो चुके होते हैं या फिर अपनी दुनिया में अपने तरीके से जी रहे होते हैं.
जबकि जो मातापिता काम नहीं करते हैं वे अपने बच्चों को करीब 8-10 घंटे देते हैं. अब आप ही सोचिए कि 8 घंटे और 32 मिनट का यह फर्क बच्चों पर कितना भारी पड़ता है.
शौपिंग जरूरी या बच्चे?
सर्वे में यह बात भी सामने आई है कि पैरेंट्स बच्चों को सप्ताह में करीब 2 बार भी आउटिंग एक्टिविटी के लिए नहीं ला जाते. जबकि इस से ज्यादा समय वे ऑनलाइन शॉपिंग या ग्रोसरी स्टोर्स पर बिताते हैं. इस के चलते उन्हें बच्चों से प्रतिदिन औसतन पांच बार गलत हरकत या लापरवाही के लिए
डांटना-डपटना पड़ता है. ये आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि माता-पिता के व्यस्त कार्यक्रम के चलते उनके और बच्चों के खानपान पर भी निगेटिव असर पड़ता है. साल में करीब 227 बार प्रोपर मील स्किप की जाती है पैरेट्स द्वारा. जाहिर है इसका असर बच्चों की मील पर भी पड़ता है. वहीं करीब 8 प्रतिशत माता-पिता खाना पकाने में बहुत व्यस्त होने की बात स्वीकार करते हैं और 9 6 प्रतिशत बाहर खाने को लेकर बच्चों को अनदेखा कर जाते हैं.
बिजी शेड्यूल के साइडइफेक्ट्स
करीब 54 प्रतिशत माता-पिता बच्चों को महज 32 मिनट देने के पीछे खुद को बिजी शेड्यूल में फंसा होना बताते हैं. लेकिन यह बात समझने एहोगी कि बिजी शेड्यूल बच्चों से बढ़कर नहीं है. आज आप उन्हें समय नहीं देंगे बाद में बुढापे में खुद इस बात का रोना रोयेंगे कि बच्चों के पास आपके लिए समय ही नहीं है. जबकि उनका आपसे कोई भावनात्मक लगाव बना ही नहीं तो वे आपसे कैसे जुड़ाव महसूस कर पायेंगे.
बेहतर तो यही कि आपको जब भी समय मिले उनके खेलों में शामिल हों. उनसे करीब हों. हर बात साझा करें. उनके मन की जिज्ञासा और बन्द गाठों को खोलें. कारण चाहे जो भी हो, उनका अवॉयड न करें. यदि वे अकेलेपन में घुटते रहेंगे तो बच्चे का पालन-पोषण प्रभावित होगा. कई पैरेंट्स बच्चों को
डे-केयर सेंटर में भी छोड़ कर अपनी जिम्मेदारी निभा लेते हैं. यह सही नहीं है. यह वैसा ही है जैसे बच्चे बुजुर्गों को ओल्ड एज होम भेजकर अपने कर्तव्यों को इतिश्री कर लेते हैं. ऐसे पैरेंट्स को नए प्रकार की काबिलियत पैदा करनी होती है. जहाँ तमाम बिजी शेड्यूल के बाजवूद बढ़िया प्लानिंग तथा टाइम मैनेजमेन्ट के जरिये बच्चों को उनका वाजिब हक़ और टाइम देना पड़ेगा.
याद रहे, अच्छी पैरेंटिंग का एक ही उसूल है कि जब भी आप अपने नौनिहाल के पास हों हर एक पल खुल कर जिएं. ये काम और जुब है तो बच्चों के लिए ही. जब वे ही आपके पास नहीं होंगे तो आप की मेहनत किस काम की. इसलिए काम और परवरिश में में संतुलन बनाकर चलें. वर्ना बच्चे और लापरवाही बड़े होते देर नहीं लगाते.