लोग हिंदी फिल्म ‘ठग्स औफ हिंदोस्तान’ के बकवास होने का रोना रो रहे हैं. बोल रहे हैं कि बड़े बजट की इस फिल्म से उन के पैसे वसूल नहीं हुए. पर क्यों? अरे, कोई फिल्म इसलिए नहीं बनाई जाती कि लोगों के दिलों में न उतर सके. लेकिन कभीकभार ऐसा हो जाता है. ऐसा पहले भी हुआ है कि बड़े सितारों से सजी बड़े बजट की फिल्में पहले ही दिन बौक्स औफिस पर दम तोड़ गई थीं.
लेकिन क्या लोग खासकर भारत में लोग अच्छी फिल्में देखने के वाकई शौकीन हैं? क्योंकि पहले कई बार ऐसा देखा गया है कि किसी शानदार फिल्म की समीक्षा लिखने वाले समीक्षक ने फिल्म की तारीफ में अपनी लेखनी को कागज पर इस तरह उतार उतार दिया कि लोग किसी तरह चले जाएं सिनेमा उस फिल्म को देखने के लिए पर अफसोस ऐसा हो नहीं पाया.
रानी मुखर्जी की फिल्म ‘हिचकी’ तो याद होगी ही आप को. भारत से ज्यादा चीन में चली है. बिगड़ैल बच्चों को सुधारने के विषय पर बनी इस फिल्म में हिचकी की भयंकर बीमारी से जूझ रही एक जूझारू टीचर के किरदार को रानी मुखर्जी ने घोंट कर पी लिया था. फिल्म के संवाद, डायरेक्शन भी उम्दा था लेकिन हमारे यहां यह फिल्म उतनी नहीं चल पाई जितनी चलनी चाहिए थी.
कभीकभी तो ऐसा महसूस होता है कि भारत में छोटे बजट की अच्छी फिल्मों को लोग देखने से बचते हैं या शायद बहुतों को अच्छी फिल्में देखने की तमीज ही नहीं है. रहस्यरोमांच से भरपूर हालिया फिल्म ‘अंधाधुन’ जब मैं ने सिनेमाघर में देखी थी तब बहुत से दर्शक किसी सस्पैंस फिल्म को देखने के मूड में ही नहीं लग रहे थे. इस फिल्म के पहले 5 मिनट में एक बड़ा राज छिपा था जो कई दर्शक मिस कर गए. जो गंभीर सीन किसी अगले सीन की अहम कड़ी थे, बहुत से दर्शक उन्हें समझ ही नहीं पाए. कइयों ने तो इंटरवल के बाद पौपकॉर्न खाने के चक्कर में फिल्म के खास सीन छोड़ दिए और फिल्म का रोमांच वहीं मार डाला.
कहने का मतलब है कि हम आज भी अच्छे सिनेमा को ऐनजौय करने के लायक नहीं बन पाए हैं. स्टारकास्ट हमारे लिए सब से अहम होती है.
आप को याद होगी शाहरुख खान की फिल्म ‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’. 21 जनवरी, 2000 को रिलीज हुई इस फिल्म का पहला दिन पहला शो मैं ने ब्लैक में टिकट खरीद कर दिल्ली के प्लाजा सिनेमा में देखा था. वह फिल्म कतई बुरी नहीं थी पर उस में मीडिया जगत पर जो कटाक्ष किया गया था वह समय से पहले का था. लिहाजा फिल्म औंधे मुंह गिरी थी.
वहीं सिनेमाघर में मेरे साथ बैठे एक टपोरी टाइप बंदे ने बोर हो कर कहा था कि इस से अच्छी तो राकेश रोशन के लौंडे की फिल्म है. वजह, उसी दौरान रितिक रोशन की फिल्म ‘कहो न प्यार है’ आई थी. बिना किसी बड़े तामझाम के आई फिल्म ‘कहो न प्यार है’ खूब चली थी. लोगों की सुनासुनी के चक्कर में तो सलमान खान और भाग्यश्री की पहली फिल्म ‘मैं ने प्यार किया’ सुपरडुपर हिट हो गई थी.
थोड़ा ज्यादा पीछे चलते हैं. फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ शोमैन राजकपूर का ड्रीम प्रोजेक्ट थी जिस में उन्होंने एक जोकर के जरीए ज़िंदगी का फलसफा दर्शकों के सामने रखने की कोशिश की थी पर फेल हो गए. बड़े निराश हुए थे वे लोगों के अनाड़ीपन पर और उन्होंने तभी ठान लिया था कि अपनी अगली फिल्म में वे दर्शकों को वही चटपटी रेसिपी परोसेंगे जो वह चटकारे ले कर देखती है. तब उन्होंने फिल्म ‘बॉबी’ बनाई थी जिसे लोगों ने हाथोंहाथ लिया था. ऋषि कपूर और डिंपल कापड़िया की जोड़ी देखते ही देखते हिट हो गई थी.
अगर गिनाने लगें तो बहुत सी ऐसी फिल्में रही हैं जो आज की तारीख में कल्ट फ़िल्में मानी जाती हैं पर अपने समय में फ्लॉप रही थीं. ‘कागज के फूल’, ‘सिलसिला’, ‘लम्हे’, ‘पाकीजा’, ‘जाने भी दो यारो’ ऐसी ही कुछ फ़िल्में हैं.
कहने का मतलब यह है कि कोई भी फिल्मकार जिस विजन के साथ फिल्म बनाता है वह दर्शकों तक अपना संदेश किस हद तक पहुंचा पाती है इस का कोई तय पैमाना नहीं है. यह सब दर्शकों के मूड और उन की सोच पर निर्भर करता है कि कौन सी फिल्म को वे अपना बना लेते हैं.
फिल्म ‘शोले’ के साथ भी यही हुआ था. समीक्षकों ने इस फिल्म को पूरी तरह से नकार दिया था पर दर्शकों ने इसे इतना प्यार दिया कि ‘शोले’ भारतीय सिनेमा का एक यादगार इतिहास बन गई.