पूर्व कथा
प्रिया के पति ध्रुव की ज्वैलरी शाप थी. ध्रुव के मोबाइल पर कुछ दिन से रोज सुबह 9 बजे एक महिला का फोन आता है. रोजाना फोन आने से प्रिया कुछ परेशान हो जाती है.
एक दिन जब वह ध्रुव के साथ ज्वैलरी शाप में थी तभी उन के घर के नजदीक रहने वाली रीतिका वहां आती है. उस की आवाज सुन कर प्रिया जान जाती है कि यह वही ध्रुव के मोबाइल पर फोन करने वाली औरत है. वह ध्रुव से सहज ढंग में अंग्रेजी मिश्रित हिंदी में बातें कर रही थी और ध्रुव भी कस्टमर की हैसियत से उस से अच्छी तरह बात कर रहा था. प्रिया को रीतिका से जलन महसूस होती है.
थोड़े दिन बाद रीतिका की नौकरानी उस के कुछ गहने ठीक करने के लिए घर पर देने के लिए आती है. ध्रुव छत पर था सो प्रिया गहने ले लेती है. दूसरे दिन रीतिका मोबाइल पर फोन कर ध्रुव से गहनों के बारे में पूछती है. प्रिया मन ही मन कुढ़ती है कि रीतिका दुकान के बजाय घर पर क्यों फोन करती रहती है.
अब आगे…
मन में मची खलबली को दबाए शिष्टाचार का लबादा ओढे़ मैं अनमनी सी गेट खोलने बाहर आई और अनजाने ही मेरे मुंह से निकला, ‘‘वेलकम, रीतिका. कैसी हैं आप?’’
‘‘वेरीवेरी गुडमार्निंग,’’ कहते हुए रीतिका ने बडे़ स्नेह से मेरे अभिवादन का जवाब दिया, पर मैं ही जानती थी कि यह मेरी कैसी सुबह है. मैं उस के मुखौटे लगे चेहरे के पीछे के चेहरे को अच्छे से देख रही थी पर कुछ कर नहीं पा रही थी. वह हमारी ‘कस्टमर’ जो ठहरी. मन की बात न चाहते हुए भी कई बार जबान पर आ ही जाती है. अपने को लाख संभालने की कोशिश करते हुए भी मैं रीतिका से पूछ ही बैठी, ‘‘सुबह बड़ी जल्दी फ्री हो जाती हैं?’’
‘‘हां, उठती जल्दी हूं न, फिर हमारी काम वाली बाई लोग भी बड़ी कापरेटिव हैं, स्पेशली गिरजा, शी इज रियली वेरी कापरेटिव और आप? बिजी रोज ही की तरह हैं?’’ मैं समझ नहीं पा रही थी कि बिजी कह कर रीतिका मुझे चांटा मार रही है या फिर मेरी तारीफ कर रही है. पर इतना सच था कि उसे मालूम था कि सुबह धु्रव के दुकान जाने से पहले अकसर मैं व्यस्त रहती हूं. तब तक धु्रव उस की ज्वैलरी का सामान ले कर आ गए.
धु्रव के आते ही मैं किचन में चली गई, वैसे भी सुबह के समय किसी के पास वक्त ही कहां रहता है फिर आज तो बर्तन वाली नौकरानी भी नहीं आई थी. उन के लिए पानी का गिलास ले कर जो मैं ड्राइंगरूम में पहुंची, तो दोनों को गुटरगूं करते पाया. कितने खुश थे धु्रव उस समय. अगली दफा जब चाय ले कर पहुंची तब भी मुसकरा कर बातें हो रही थीं. काम का दबाव या कहूं मन का अविश्वास था जो रीतिका के जाते ही मैं फट गई, ‘‘धु्रव यह और अब मुझ से झेली नहीं जाती… ठिगन्नी कहीं की.’’
मेरे मनोभावों की गंभीरता से अनजान यह भी छेड़ते हुए बोले, ‘‘उस के ठिगनेपन से तुम्हें क्या? देखो, कस्टमर है कस्टमर. मुझ से एक पैसा कम नहीं कराती. सुबहसुबह 10 हजार का फायदा करवा गई और क्या चाहिए?’’ यह कहते हुए धु्रव ने 10 हजार की गड्डी मेरे हाथों में रख दी. वाकई रुपए में बड़ी गरमी होती है, तभी तो मैं क्राकरी साफ करते, ठंड से कंपकंपाती शांत हो गई. उस दिन मैं सोच रही थी कि बेचारे धु्रव सीधे घर से दुकान और दुकान से घर आते हैं. मेरे दुकान पर बैठने पर भी उन्हें कोई एतराज नहीं फिर उन के लिए मुझे इस तरह से नहीं सोचना चाहिए. माना कि उस औरत के मन में धु्रव को ले कर कोई भाव हो भी तो रहे, क्या कर लेगी हमारा? आएगी, जाएगी खर्च करेगी और चली जाएगी. पर हमारा घर तो अच्छे से चलता रहेगा, अधिक शक करने से घर बरबाद ही होता है.
मन तो आखिर मन ही था, कब तक शांत रहता? अब तो आएदिन कभी सामान लेने, तो कभी देने, तो कभी रिपेयरिंग तो कभी रिश्तेदारों तथा सहेलियों के कामों को ले कर रीतिका का हमारे घर पर आनाजाना हो गया. गाहेबगाहे वह मुझे भी अपने घर आने को कह जाती. भले ही यह उस की व्यवहार- कुशलता हो, पर मुझे लगता कि यह सब भूमिका वह हमारे घर में घुसने के लिए बना रही है.
अगली दफा वह हमारे घर लगभग 10 दिन बाद आई. उस दिन धु्रव मार्निंग वाक पर गए थे. वह हमारे घर से माणिक की अंगूठी उठाने आई थी. धु्रव का इंतजार करने के बहाने वह बैठ गई. मन में मची खलबली को दबाते हुए मैं ने उस से उस के घरपरिवार तथा नौकरचाकरों के बारे में पूछ डाला. बातोंबातों में मुझे पता चला कि वह दिल्ली के एक प्रसिद्ध रेस्तरां गु्रप के मालिक की बेटी है. उस के मायके के लोग पढे़लिखे और मिलनसार हैं. जहां तक पैसे का सवाल है तो आज तक उस ने कभी पैसों की कमी नहीं जानी पर 2 जवान होती लड़कियों के चलते घर में ड्राइवर रखने से डरती है. बात को आगे बढ़ाते हुए रीतिका बोली, ‘‘आप लोगों को बहुतबहुत थैंक्स जो मेरा सारा काम यहीं घर बैठे हो जाता है वरना जराजरा से कामों के लिए मेन मार्केट में जाना बड़ा अनसेफ होता है.’’
मैं ने बात की सचाई की तह तक जाने की गरज से अपनी भावनाओं को संभालते हुए कहा, ‘‘और भैया?’’ मेरे इस प्रश्न को सुनते हुए भी न सुनने का बहाना कर, वह इधरउधर देखने लगी. उस का यह व्यवहार मेरे लिए कुछ संदिग्ध सा था पर यह सोच कर मैं शांत थी कि यह तो केवल कस्टमर है, हमें इस से क्या? शायद धु्रव का व्यवहार उस की ईमानदारी और सहयोगात्मक रवैया इस को पसंद आया होगा इसलिए सुविधा के कारण यह अकसर हमारे घर आया करती है.
उस दिन भी वह बड़ी रोमांटिक ड्रेस में थी. मन ही मन मुझे उस पर गुस्सा आ रहा था पर अपने को शांत करते हुए मैं ने धु्रव के अभी तक न आने की बात कर कहा, ‘‘कोई खास काम है? पता नहीं वह कब आएं, चाहो तो मुझे बता दो.’’ ‘‘नहीं, ऐसा कोई खास काम नहीं है. कल ऋदिमा को भेज दूंगी. असल में माणिक की अंगूठी बनवाई है. कल रविवार को पहननी है. गाड़ी से जाना हैवी ट्रैफिक के कारण बड़ा मुश्किल हो जाता है.’’
तभी धु्रव भी टहल कर आ गए. दबी जबान से मुझे सेब का जूस लाने को कह कर कस्टमर अटैंड करने लगे जबकि मैं चुपचाप उन की बातें सुनने का प्रयास करती रही. आज वह नए जड़ाऊ सेट का आर्डर दे रही थी, फिर दोबारा घर में घुसने का षड्यंत्र? समझ में नहीं आ रहा था कि गुस्सा करूं या शांत रहूं? चली आती है मरी हमारी हरीभरी बगिया में आग लगाने. जाने इस के आने से हमारा घर आबाद होगा या फिर बरबाद? पर ऐसे भी यह चली न आती होगी? जरूर धु्रव ही इसे घर पर बुलाते होंगे. जूस लाते समय जैसे ही मैं ड्राइंगरूम में घुसी, उसे पति को थैंक्स कहते पाया. उस के हाथपैर कुछ खास अंदाज में हिल रहे थे, मन ही मन मुझे उस पर बड़ी कोफ्त हो रही थी कि देखो, लोग कैसे सज्जनता का मुखौटा लगाए दूसरों को बेवकूफ बनाने में लगे रहते हैं. कहीं यह मीठी छुरी न हो? पर यह नहीं मालूम कि दूसरों को बेवकूफ बनाने वाला खुद सब से बड़ा बेवकूफ होता है.
तभी, अरे, यह क्या इस की चुन्नी का पल्ला भी गिर गया, अगर अनजाने गिरा था तो मुझे देखते ही उठ कैसे गया? नहीं, इस तरह काम नहीं चलेगा, अब मुझ से और नहीं घुटा जाता, शायद उस दिन उमाकांतजी ठीक कह रहे थे, ‘विश्वास धोखा है.’ आज तक मैं इसी विश्वास के धोखे में रही पर अब ध्रुव से खुल कर बात करनी ही पडे़गी. उस के जाते ही तेजी से, नागिन की तरह फुफकार मारती, मैं ध्र्रुव से बोली, ‘‘हटाओ, यह सब कस्टमर, कस्टमर. नहीं चाहिए ऐसा कस्टमर, हमारा घर है या कि किसी की खाला का घर? चली आती है रोजरोज, अपने आदमी के पास बैठने से जी नहीं भरा जो यहां चली आती है.’’
धु्रव ने समझाने के लहजे में कहा, ‘‘देखो, यह एक पैसे वाले घर की बहू है, सोसायटी में बडे़बडे़ लोगों के बीच इस का उठनाबैठना है. आज छोटेमोटे कामों में यदि हम इसे सहयोग देंगे, तो कल जाने कौन सा बड़ा आर्डर हमें मिल जाए, फिर दोनों लड़कियों की शादी के लिए भी तो अभी जेवर खरीदेगी?’’ यह कह कर उन्होंने मुझे अपनी दूरदृष्टि का परिचय दिया, पर अशांत मन कुछ भी सुनने को तैयार न था. मैं ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मरी, कभी अपने आदमी के साथ भी यहां आई है? कितना जेवर पहनेगी?’’ ‘‘हमें इस से क्या, हमारी तो मार्केट की चुकता हो रही है. तुम तो जानती हो उस का आदमी पूरा सनकी है.’’
नाराज होते हुए, कुछ आश्चर्य तथा जिज्ञासा से उन की ओर देखते हुए मैं बोली, ‘‘और क्या? सनकी ही तो है, दोस्तयार सब उसे ‘जीतू घाट वाला’ कहते हैं, किसी की बीमारी में कभी न जाएगा पर मरे आदमी को फूंकने घाट पर सब से पहले जाएगा, अजीब पागल आदमी है? सारे दिन गधे के जैसे काम करता है, फुर्सत है उसे एक पल की?’’
धु्रव ने संयत हो कर कहा, ‘‘तो क्या मेरे घर फुर्सत मनाने आएगी?’’ गुस्से में मैं वह सब कह गई जो आज तक मेरे मन को कचोट रहा था. आज मेरे मन का हर भाव गुबार बन कर बाहर निकल जाना चाहता था. धु्रव भी शायद अपनी सहृदयता के वशीभूत हो मेरी मनोदशा को समझते हुए, बिना एक भी शब्द कहे घर से दुकान चले गए, कहने को तो आवेश में आ कर मैं धु्रव से न जाने क्याक्या कह गई, पर अगले ही पल, मुझे वे सभी घटनाएं याद आ गईं जब मैं रीतिका के कई बार बुलाने पर अचानक उस के घर पहुंच गई थी.
घंटी बजते ही एक व्यक्ति बाहर निकला. मैं ने अपना परिचय देते हुए रीतिका से मिलने की इच्छा जाहिर की. बिना कुछ कहे वह अंदर चला गया, तभी एक नौकरानी ट्रे में पानी का गिलास ले कर आई, उस ने मुझे पास पडे़ सोफे पर बैठने को कहा. पर यह क्या, उस के कहने से पहले तो मैं लगभग सोफे पर बैठ ही गई थी. मन में आया कि बड़ा अजीब आदमी है? क्या इसे मेरा यहां आना अच्छा नहीं लगा? पर यह तो मुझे जानता भी नहीं है? या फिर यह नीरस इनसान है? गूंगा तो वह हो नहीं सकता था क्योंकि कमरे के अंदर से उस की किसी को डांटने की जोरजोर की आवाजें आ रही थीं. घर का अजीब सा माहौल था. आधुनिक सुखसुविधाओं, झाड़फानूस और आधुनिक किचन व फर्नीचर्स से सजे उस मकान में मुझे अजीब सी मनहूसियत दिखाई दे रही थी. पूछने पर उस की नौकरानी ने बताया कि भाभी बगल वाले फ्लैट में अपनी बीमार सास को देखने गई हैं. मैं ने खबर कर दी है, आती ही होंगी. इस बीच वह व्यक्ति सूटटाई लगा कर, बिना कुछ कहे, तेज कदम बढ़ाता, बाहर चला गया.
शायद, यही इस का पति ‘घाट वाला’ होगा? कैसा विचित्र आदमी है? कैसे रहती होगी रीतिका इस के साथ? अनायास ही रीतिका के लिए मेरे मन में दर्द की एक छोटी सी लहर उठ गई. तभी सामने से मुझे डस्टिंग करती हुई गिरजा आती दिखाई दी. डांट खाने के मारे, उस की जबान तो जैसे बहुत कुछ कहने को बेचैन हो रही थी. सो एक ही सांस में वह बोले जा रही थी, ‘‘आग लगे मरी जबान को…बड़ा ‘चोर’ आदमी है यह. अभी परसों ही तो ‘श्रीचंद्र जनरल स्टोर्स’ में इंपोर्टेड सेंट की शीशी चोरी करते पकड़ा गया. बताओ क्या इज्जत रह गई होगी बापदादाओं की? हम चोरी करें तो चोर कहलाएं और बड़ा आदमी करे तो ‘मेनिया’. कैसा बेवकूफ बनाते हैं ये बड़े लोग. यह तो रीतिका भाभी के मारे बने हैं. लेनेदेने में हाथ अच्छा है, काम भी कोई खास नहीं और बोलती भी कायदे से हैं, नहीं तो इस सरफोडू के मारे कोई 2 मिनट न रुके.’’
मुझे उसी दिन अपनी बातों का जबाव मिल गया था. मैं विस्मृत नजरों से उसे देख रही थी. उस समय मुझे खुद पर गर्व और दूसरी तरफ रीतिका पर तरस आ रहा था. तभी रीतिका भी मुझ से मिलने आ गई थी. मेरे आने पर खुशी जाहिर करते हुए जिस तरह वह मेरे स्वागत में लगी थी, सही अर्थों में मुझे वह एक व्यवहारकुशल, सुघड़ गृहिणी लग रही थी. माहौल को समझते हुए वह बोली, ‘‘योर हसबैंड हैस गौन टू शाप? ही इज वेरी सोफेस्टीकेटेड एंड हानेस्ट मैन.’’
प्रिया, तुम कितनी लकी हो, जो तुम्हें ऐसा पति मिला. विजयी के समान कंधे सीधे किए मैं उस दिन झूठे से भी रीतिका के पति की तारीफ नहीं कर पा रही थी, पर उस दिन मैं ने रीतिका की आंखों का सूनापन पढ़ लिया था. कभीकभी अधिक सहृदयता किसी और सहृदयी के मन को किस तरह न चाहते हुए भी छलनी कर देती है, यह बात उस दिन मैं ने जानी.
फिर भी न जाने मुझे क्या होता चला जा रहा था. मैं अपनी ही बनाई दुनिया में, दूर कहीं अंधेरी सुरंग में खड़ी खुद को महसूस कर रही थी और जहां खुद को अकेला पा कर घबराने लगी थी. मेरी दशा उस निरीह पक्षी की तरह हो गई थी, जिस के सारे पंख ही कतर दिए गए हों.
मुझे इस तरह उदास देख ध्रुव ने कारण जानना चाहा. शायद उस का अबोध मन किसी भी शंकाओं से परे होने के कारण? पर मैं आज ऐसी कोई भी बात धु्रव से नहीं करना चाहती थी, मुझे डर था कि यदि यह बात मिथ्या साबित हुई तो ध्रुव का मन कितना आहत होगा? शायद मैं तुम्हें कुछ अधिक ही चाहने लगी थी. धु्रव के दूसरी बार पूछने पर सिरदर्द का बहाना बना गई, पर मैं उदास थी, मन ने, न जाने अब तक कितने चक्रव्यूह रच डाले थे.
एक दिन जब धु्रव ने फिर से मेरी उदासी का कारण जानना चाहा तो मैं ने खाना बनाने वाली दिन भर की बाई रखने का प्रस्ताव रखा. मैं बोली, ‘‘धु्रव, घर में अब फुटकर काम वालों से काम नहीं चलता. मैं ने एक औरत से बात की है, वह गिरजा के गांव से आई उस की विधवा ननद है. औरत भरोसेमंद लगती है. मुझे लगता है कि वह हमारा घर अच्छे से संभाल लेगी. अब बच्चे भी बड़े हो गए हैं, मैं तुम्हारे साथ व्यापार संभालना चाहती हूं.’’ ‘‘हां, क्यों नहीं, यही तो मैं भी सोच रहा था… पर तुम्हारी व्यस्तता के कारण कह नहीं पाता था. क्यों न अब से तुम घर ही रह कर कुछ कस्टमर अटैंड कर लिया करो. इस तरह मैं दुकान बेहतर तरीके से चला सकूंगा. आशा है कि तुम्हें मेरा यह प्रस्ताव पसंद आएगा. मैं कस्टमर से कह दूंगा कि वे अब से सीधे तुम्हीं से बात करें.’’