सरकार, न्यायपालिका और स्वायत्त संस्थानों के बीच पिछले समय से लगातार टकराव बढ रहा है. एकदूसरे के कामों में हस्तक्षेप करने और अपना काम ठीक से न करने के आरोपप्रत्यारोप लग रहे हैं.
पिछले कुछ समय से केंद्रीय विश्वविद्यालयों में केंद्र सरकार के बेजा हस्तक्षेप का विवाद सुर्खियों में रहा है. पिछले दिनों जजों की नियुक्ति को ले कर सरकार और सुप्रीम कोर्ट का टकराव सामने आया था.
कौलेजियम की सिफारिश को सरकार ने मानने से इनकार कर दिया था. सीबीआई में भ्रष्टाचार को ले कर सरकार, सीबीआई और सीवीसी के बीच परस्पर दोषारोपण का खेल चल ही रहा है.
अब ताजा मामला सरकार और रिजर्व बैंक के टकराव का सामने आया है. दोनों के बीच अलगअलग मुद्दों पर तकरार चल रही है.
एनपीए, नकदी संकट और बिजली कंपनियों को छूट जैसे मामलों पर विचार के लिए सरकार ने आरबीआई को पत्र भेजे थे. इस के बाद रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने रिजर्व बैंक की स्वायत्तता का मुद्दा उठाया था. इस पर वित्त मंत्रालय ने स्पष्टीकरण भी दिया. इस में कहा गया कि सरकार आरबीआई की स्वायत्तता का सम्मान करती है लेकिन सरकार और रिजर्व बैंक दोनों का काम जनहित और अर्थव्यवस्था की जरूरत के मुताबिक होना चाहिए.
विरल आचार्य ने सरकार के दखल की बात सार्वजनिक रूप से कहने पर जिस तरह से विवाद की शुरुआत हुई वह और आगे बढी जब वित्तमंत्री अरुण जेटली ने दस लाख करोड़ रुपए के बट्टेखाते के कर्ज के लिए रिजर्व बैंक को जिम्मेदार ठहराया.
वित्तमंत्री अरुण जेटली कहते हैं कि पिछली सरकार द्वारा आंख बंद कर कौरपोरेट कंपनियों को कर्ज बांटा. उस समय रिजर्व बैंक ने निगरानी क्यों नहीं रखी? तब रिजर्व बैंक ने नियामक के तौर पर अपनी भूमिका क्यों नहीं निभाई. बैंक चुप क्यों रहा. उस दौरान बांटे गए कर्ज के बावजूद खनन और स्टील उद्योग की हालत बदतर हो गई.
असल में रिजर्व बैंक उतना जवाबदेह नहीं है जितना राजनीतिक तौर पर वित्तमंत्री और उन का मंत्रालय. राजनीतिक तौर पर वित्तमंत्रालय अपनी नीतियों का इस्तेमाल अक्सर चुनावों में भुनाने के लिए करता है.
सरकार नोटबंदी और जीएसटी को ले कर घिरी हुई है. इन दोनों निर्णयों की जम कर छिछालेदर हो रही है. अभी तक सरकार बता नहीं पाई है कि दोनों फैसलों से देश की जनता को क्या, कितना फायदा हुआ.
एनपीए बढता जा रहा है. सरकार पिछली यूपीए सरकार पर इस के लिए दोषारोपण कर रही है. सरकार और रिजर्व बैंक दोनों एकदूसरे की पूरक भूमिका में हैं. सरकार चाहती है कि रिजर्व बैंक बैंक ब्याज दरों को घटा कर बाजार को राहत दे जबकि रिजर्व बैंक को लगता है कि सरकार उस का इस्तेमाल राजनीतिक मकसद से करना चाहती है.
यह सही है कि अर्थव्यवस्था कठिन दौर से गुजर रही है. किसी भी संस्थान की स्वायत्तता के लिए टकराव घातक साबित होता है.
सरकार स्वतंत्र संस्थाओं पर अपना नियंत्रण चाहती है. ऐसा करने के पीछे उस की अपने मन मुताबिक संस्थाओं में नियुक्तियां, नीतियां और विचारधारा थोपने की मंशा छिपी हुई है.
हालांकि संविधान ने हर संस्था को अपनेअपने अधिकार क्षेत्र में काम करने की आजादी दी है. हर संस्था की अपनीअपनी सीमाएं तय हैं लेकिन सरकारें उन में घुसपैठ करना चाहती हैं. इस से होगा यह कि धीरेधीरे संवैधानिक संस्थाएं अपना रुतबा खोने लगेंगी. जनता का उन पर भरोसा खत्म होता जाएगा. यह देश के लिए ही नुकसानदायक सिद्ध होगा.