खबरिया चैनलों में अब खबरें कम धर्म की धारा ज्यादा बहती है. सुबह से ले कर रात तक छोटे परदे पर राशिफल, ग्रहों की चाल, धर्म पर चलने के उपदेश दिए जा रहे हैं. इस सदी में धर्म सब तरफ दिखाई दे या न दे लेकिन धर्म के साए में चलने वाले चैनल अब चारों तरफ उछलकूद मचाते और शांति का उपदेश देने की कोशिश करते जरूर दिखाई देते हैं. अब ये चैनल वही करने पर उतारू हो गए हैं जिसे तांत्रिक, धर्मगुरु, ज्योतिषी व धर्म के ठेकेदार करते हैं. 2-1 धार्मिक चैनल लोकप्रिय क्या हुए टेलीविजन पर इनचैनलों की बाढ़ ही आ गई. धार्मिक चैनलों को पहले भक्ति का चैनल कहा जाता था, जिसे समाज का एक खास तबका ही देखना पसंद करता था लेकिन अब इन्हें देखे बिना युवा हो या बुजुर्ग इन के दिन की शुरुआत ही नहीं होती.
हालत यह है कि धर्म की झंकार अब अंगरेजी और कारोबारी चैनलों की चाल पर भारी पड़ने लगी है. टैम के ताजा आंकड़े बताते हैं कि उच्च आय वर्ग के 31 और मध्यम आय वर्ग के 29 प्रतिशत लोग धार्मिक चैनल देखना पसंद करते हैं यानी 60 प्रतिशत दर्शक आध्यात्मिक चैनलों को अपने करीब बताते हैं. आंकड़े यह भी कहते हैं कि पहले जहां धार्मिक चैनलों का मार्केट शेयर 0.2 प्रतिशत के करीब था, वह अब बढ़ कर 0.9 प्रतिशत तक पहुंच चुका है. यहां यह भी गौर करने की बात है कि बिजनेस चैनलों का मार्केट शेयर 0.5 प्रतिशत है जबकि अंगरेजी चैनल अभी 0.9 प्रतिशत की अपनी हिस्सेदारी बनाए हुए हैं. अपनी बढ़ती लोकप्रियता के चलते आज धार्मिक चैनल विदेशों में भी लोकप्रिय हो रहे हैं. चैनलों पर धर्म का बाजार
सत्संग और धार्मिक कार्यक्रमों के अलावा धार्मिक चैनलों पर स्वास्थ्य, योग को भी प्राथमिकता दी जा रही है. इन पर दिखाए जाने वाली आयुर्वेदिक दवाओं और स्वास्थ्य नुस्खों को बेच कर मोटी रकम ऐंठी जा रही है. धार्मिक उत्पाद तथा सत्संग, भजनकीर्तन की आडियोवीडियो कैसेट, सीडी, डीवीडी, धार्मिक पुस्तकों के अलावा अगरबत्ती, धूपबत्ती, मालाएं, रुद्राक्षों से ले कर रत्न कहे जाने वाले कीमती पत्थर धड़ल्ले से सेहत और शांति के नाम पर बिक रहे हैं. इन सभी चीजों के साथसाथ टेलीशौपिंग भी आमदनी का एक खास जरिया है. हर्बल दवाओं व आयुर्वेदिक दवाओं का लगभग 10 करोड़ से ज्यादा का कारोबार होता है. आज देश मेें धर्म और अध्यात्म का बाजार तेजी से बढ़ रहा है. एक अनुमान के मुताबिक धर्म का कारोबार 2 हजार करोड़ रुपए से ऊपर चला गया है. टीवी चैनलों पर तथाकथित आध्यात्मिक गुरुओं के प्रवचनों ने इसे फलनेफूलने में बड़ी मदद की है. सिर्फ टीवी चैनलों पर ही 15 से 20 करोड़ रुपए का कारोबार होता है. यह बाजार सालाना लगभग 40 फीसदी की दर से विकास कर रहा है.
अंधविश्वास को पुख्ता करता मीडिया धर्म के इस बाजारवाद में इलेक्ट्रौनिक मीडिया अंधविश्वासों को इस कदर पुख्ता कर रहा है कि यदि सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण या और कोई खगोलीय घटना हो, तो हमारे हिंदी खबरिया चैनल किसी पंडित या ज्योतिषी के साथसाथ किसी ऐसे व्यक्ति को भी बुलाते हैं जो वैज्ञानिक दृष्टि से इन घटनाओं को परखता है. बीच में एंकर साहब बैठते हैं और फिर विज्ञान और अंधविश्वास के बीच खेल शुरू हो जाता है. नदियों में ग्रहण के अवसर पर स्नान करते हुए श्रद्धालुओं की तसवीरें दिखाई जाती हैं और ग्रहण जैसी कुदरती घटना को इस तरह पेश किया जाता है मानो धरती पर कोई बहुत बड़ा अजूबा हो रहा है जिस का हमारे जीवन पर गहरा असर पड़ने वाला है.
भविष्य के खोखले सपने हर समाचार चैनल पर आप को ग्रहों का हाल बताने वाले, टैरोकार्ड खींच कर भविष्यफल निकालने वाले और ग्रहों की शांति के उपाय बताने वाले मिल जाएंगे. सुबह भविष्यफल बताने वालों की भीड़ लग जाती है. हर चैनल ग्रहनक्षत्रों की चाल से दर्शकों की राशि के अनुसार उन के आज के दिन का अंदाजा लगाता नजर आता है. आज के दिन कौन सा रंग आप के लिए शुभ है, किस से कितनी बात करें, दोस्त से कैसा व्यवहार करें, किस वाहन का प्रयोग करें. सब अटपटे सुझाव राशिफल में पेश कर के मूर्ख जनता की जिंदगी को अपने इशारों पर नचाते हैं और अंधविश्वास में जकड़ी जनता अपना हर कदम राशि के हिसाब से रखती है और दिन का अंत अगर अच्छा हो जाए तो उस का श्रेय राशि को देती है. ये कार्यक्रम घंटों चलते हैं और अकसर फोनइन कार्यक्रम होते हैं जिन में दर्शकों की भागीदारी भी रहती है.
ज्यादातर चैनल ज्योतिषी या भविष्यफल जानने के लिए खास कार्यक्रम पेश करते हैं. इन कार्यक्रमों में एक ओर जहां जैकी श्रौफ रंगबिरंगे पत्थर बेचते नजर आते हैं वहीं बेजान दारूवाला के साथ फिल्म अभिनेत्री रति अग्निहोत्री एकमुखी रुद्राक्ष के साथ कीमती पत्थर बेचती है. कुकुरमुत्ते की तरह उग आए निजी मनोरंजन चैनल तो पैसे कमाने की होड़ और अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए मनगढ़ंत कहानियों को आधार बना कर कार्यक्रमों को पेश कर अंधविश्वासों व कोरी कल्पनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं. लेकिन सवाल यह उठता है कि इस के लिए दोषी क्या सिर्फराशिफल दिखलाने वाले वे चैनल हैं या फिर वे दर्शक भी हैं जो ऐसे ऊटपटांग कार्यक्रमों को देख कर चैनल वालों को ऐसा करने को उकसाते हैं.
ऊलजलूल कहानियां एक चैनल अचानक चीखते-चिल्लाते हुए घोषणा करता है कि उसे ‘रावण की ममी’ मिल गई है. ‘रावण की ममी मिली, विज्ञान को चुनौती.’ यह चैनल अपने अति उत्साह में यह भूल गया कि वह विज्ञान को नहीं, बल्कि महर्षि वाल्मीकि को चुनौती दे रहा है.
अभी कुछ ही दिन पहले एक समाचार चैनल बता रहा था, ‘यह रास्ता यमलोक को जाता है.’ उस का दावा था कि यमलोक का पता चल गया है. एक दूसरा चैनल दर्शकों को जानकारी दे रहा था कि महाभारत की कथा के अनुसार स्वर्ग की सीढ़ी यहां से शुरू होती है और बाकायदा अपनी कैमरा टीम के साथ वह उस स्थान की तसवीर दिखाता है जहां से पांडव स्वर्ग पहुंचे थे. पुनर्जन्म की घटना पर अधिकतर चैनल अपना कार्यक्रम प्रसारित कर ही रहे हैं. सिर्फ यही नहीं, बल्कि न्यूज चैनल पर मुख्य समाचारों व सामाजिक सरोकारों के मुद्दों को अनदेखा कर सनसनी जैसे कार्यक्रम दिखा कर भूतप्रेत से संबंधित बेकार के मुद््दों को समाचार चैनल दर्शकों के सामने पेश कर रहा है, जिस में भूत बंगले, डायन, चुड़ैल जैसी मनगढं़त कहानियों को दिखाया जाता है. इस के अलावा राम की अयोध्या, शिव की नगरी, साईं बाबा की खुली आंखें जैसे कार्यक्रम समयसमय पर दिखाए जाते हैं. दूसरे ग्रहों से पृथ्वी पर आने वाले एलियन भी आजकल खबरिया चैनलों पर छाए रहते हैं.
इन चैनलों पर ‘आहट’, ‘रूह’, ‘शरारत’, ‘डरना मना है’, ‘काल कपाल महाकाल’ जैसे धारावाहिकों को दिखा कर दर्शकों को दिग्भ्रमित किया जाता है. देर रात इन कार्यक्रमों को इस अंदाज में दिखाया जाता है कि लोगों के अंधविश्वास कोे बढ़ावा मिले. इन मूल्यहीन व अंधविश्वासों से भरे धारावाहिकों को नितांत अवैज्ञानिक तथ्यों के सहारे पेश किया जाता है और उन का प्रसारण कर जनता में अंधविश्वास फैलाने का काम किया जाता है, जिस के चलते और कुछ तो नहीं लेकिन धर्मभीरु जनता पहले से भी कहीं ज्यादा अंधविश्वास से प्रेरित हो जाती है. यदि कुछ साल पहले और अब प्रसारित होने वाले धारावाहिकों पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि पहले किसी भी धारावाहिक में भूतों पर विश्वास और अंत में केवल वहम, धन हड़पने की साजिश और इन के पीछे के वैज्ञानिक तथ्यों को दिखाया जाता था. इस से दर्शकों के मन पर बैठा भूतों का वहम दूर होता था. लेकिन आजकल के धारावाहिकों में भूतप्रेतों को एक आस्तिव के रूप में दिखाया जाने लगा है. यही कारण है कि लोगों का भूतप्रेतों में भरोसा बढ़ा है.
प्रवचनों की बहार आम लोगों की बदलती रुचि को देखते हुए बाबाओं ने भी बेहद शातिर ढंग से अपनेआप को बदला है. प्रवचन तो बाबाओं के वही हैं पर जिन कथा आयोजनों पर पहले 5 से 25 हजार रुपए तक का खर्च आता था, अब उसी कथा में संगीत पर भी पूरा ध्यान दिया जाता है और उस पर 30 हजार से ले कर 8-10 लाख रुपए तक खर्च हो रहा है. आसाराम व सुधांशु जैसे महाराजों के प्रवचनों के लिए लगने वाले पंडाल व आशियाने पर करीब 50 हजार से 4 लाख तक खर्च आता है. पहले जब खुले मैदान में ये बाबा बोलते थे तो उसे प्रवचन कहते थे लेकिन अब जब ये वातानुकूलित आडिटोरियम में बैठ कर बोलते हैं, तो वह प्रवचन आध्यात्मिक उपदेश में तब्दील हो जाता है.
आम आदमी की जिंदगी के अहम हिस्से बनते जा रहे समाचारपत्र, पत्रिकाएं, रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा व इंटरनेट जैसे संचार माध्यम कुछ नया और अपना प्रचारप्रसार बढ़ाने के लिए किसी भी निराधार और अवैज्ञानिक तथ्यों को पाठकों व दर्शकों के सामने परोसने में नहीं हिचकिचाते हैं. बाजारवाद और आगे बढ़ने की इसी अंधी दौड़ ने इन संचार माध्यमों को अपने सामाजिक दायित्व से बेखबर कर दिया है. यह सब देश व समाज को कहां ले जाएगा इस का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है.