2019 के आम चुनावों का अघोषित डंका बज चुका है. पक्षविपक्ष की अपनीअपनी गोलबंदी और व्यूहरचना शुरू हो गई है. माना जा रहा है कि 17वीं लोकसभा के लिए गोलबंद विपक्ष का एक प्रमुख चेहरा गुजरात के निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी का भी होगा. इस की वजह यह है कि राजनीति में आए भले उन्हें अभी बहुत दिन न हुए हों, लेकिन उन में जिस किस्म की ऊर्जा है, लोगों को संतुष्ट करने की जो वाकपुटता है, वह चुनावों के नजरिए से बहुत माने रखती है. जिग्नेश का उत्साह और अपनी सोच को मूर्तरूप देने का जनून उन्हें बाकी नेताओं से तो अलग बनाता ही है, उन में गजब की सांगठनिक क्षमता भी है. इसलिए भी उन्हें अगले लोकसभा चुनाव का स्टारप्रचारक माना जा रहा है. सवाल है साल 2019 के आम चुनावों को ले कर जिग्नेश क्या सोचते हैं? पिछले दिनों अहमदाबाद में जब उन से बातचीत हुई तो उन्होंने अपने विचार व्यक्त किए. पेश हैं उस बातचीत के प्रमुख अंश:
साल 2019 को ले कर बहुत सारी रणनीतियां सामने आ रही हैं. आप की क्या प्लानिंग है? मुझे ऐसा लगता है कि रेडियो पर मन की बात करना, 15 अगस्त व 26 जनवरी के मौके पर जुमलेबाजी करना, विदेशों में घूमना और ग्राउंड जीरो पर कुछ डिलीवर करना, इन बातों का कहीं न कहीं इस देश की जनता को एहसास हो रहा है. रामरहीम कांड, भीमाकोरेगांव कांड, रोहित वेमुला की आत्महत्या, गौरी लंकेश का मामला और नोटबंदी के चलते डेढ़ सौ लोगों के मारे जाने पर उन की खामोशी कई चीजें उजागर करती है. इन सारे मुद्दों पर सामूहिक नजर डालें तो यह बात साफ है कि 2014 में नरेंद्र मोदी जिस उम्मीद के प्रतीक थे, आज ऐसा नहीं है. 4 वर्षों में नोटबंदी और जीएसटी ने जिस तरह इकोनौमिक क्राइसिस पैदा किया, उस से उन की लोकप्रियता का ग्राफ काफी नीचे आया है.
नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ आखिर नीचे क्यों आया? सत्ता मेें आते ही नरेंद्र मोदी ने सारे लेबर लौज को तोड़नेमरोड़ने की कोशिश की, दलित और मुसलमानों का घरवापसी, लवजिहाद और गौमाता के नाम पर उत्पीड़न बढ़ा है. इस सब के चलते न केवल उन की लोकप्रियता का ग्राफ नीचे आया है बल्कि उन के प्रति लोगों में असंतोष बढ़ा और आक्रोश भी बढ़ा है. इस का नतीजा क्या हो सकता है, क्या 2019 में भाजपा सत्ता में नहीं आएगी?
एक स्वाभाविक चांस है कि व्यक्तिगत तौर पर नरेंद्र मोदी पीएम न बनें और भाजपा दोबारा पावर में न आए. इस के लिए मेरा मानना है कि सारी मेनस्ट्रीम की राजनीतिक पार्टियों को एक महागठबंधन बनाना पड़ेगा और ऐसा ही महागठबंधन सारे पीपुल्स मूवमैंट का भी बने और इन दोनों की अपनी स्वतंत्र मौजूदगी रहे. ये दोनों गठबंधन अलगअलग दिशाओं से एकसाथ आगे बढ़ें. पीपुल्स मूवमैंट के लोकप्रिय हुए चेहरों की इस में क्या भूमिका होगी?
ये जो चेहरे हैं, जिन में सहला रशीद, कन्हैया कुमार, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और तमाम ऐक्सवाईजेड हैं, ये अगर पौलिटिकल मेनस्ट्रीम पार्टीज का हिस्सा बनते हैं तो जिस संघर्ष की जमीन से ये ऊपर उठे हैं, वह छूट जाएगी और फिर वे उस उम्मीद का प्रतीक भी नहीं रहेंगे. लेकिन अगर ये दोनों साथी बन सकते हैं तो मैं मानता हूं देयर इज मोर दैन अ चांस औफ कीपिंग बीजेपी अवे फ्रौम पावर. इस गठबंधन में सब से बड़ी भूमिका किस की हो सकती है?
इन सब में मेरे विचार से सब से अहम भूमिका मायावतीजी अदा कर सकती हैं. उत्तर प्रदेश में बसपा, सपा और कांग्रेस का गठबंधन हो जाए तो नरेंद्र मोदी दोबारा प्रधानमंत्री नहीं बन सकते. ये हो जाए, वो हो जाए तो अपनी जगह है, लेकिन जब आप ग्राउंड में जाते हैं, चीजों को रीड करते हैं तो क्या यह संभावना नजर आती है?
इसी ग्राउंड की रीडिंग के बेस पर मैं यह कहता हूं. गुजरात में जिस तरह से दलित आंदोलन हुआ, पाटीदार आंदोलन हुआ, ओबीसी समाज का राइज हुआ, आशावर्कर बहनें लड़ीं, आंगनवाड़ी की बहनें लड़ीं, किसान सड़कों पर आए, सूरत के व्यापारी सड़कों पर आए, उसी के चलते भाजपा, जो 150 सीटों का घमंड ले कर घूम रही थी, 99 के आंकड़े पर अटक गई. राधनपुर में अल्पेश ठाकोर जीते और बडगाम में मैं. लेकिन गुजरात में सत्ता तो भाजपा की ही है?
भाजपा सत्ता में आने के बाद भी जुबिलिएंट या सैलिब्रेटिंग मूड में नहीं आ पाई. वह जानती है कि केवल 7 सीटों के बल पर ही वह सरकार बना पाई है. भाजपाइयों में यह सोच है जिस के चलते अब वे यह क्लेम नहीं कर पा रहे कि ग्रेट गुजराती मौडल औफ डैवलपमैंट पूरी दुनिया के लिए आदर्श है. आगामी चुनावों में केंद्र सरकार को घेरने के लिए विपक्ष के पास सब से बड़े मुद्दे क्या होंगे?
पब्लिक हैल्थ और एजुकेशन के मुद्दे, कृषि संकट, आर्थिक संकट और बेरोजगारी जैसे मूवमैंट्स बड़े मुद्दे हैं. आप को ले कर इन्हीं मूवमैंट्स के बीच से कुछ बातें आ रही हैं. जैसे, मायावती ने कहा कि आप किसी का मुखौटा हो?
ऊना से ले कर अब तक जितने भी लोगों ने इस तरह से आलोचनात्मक बातें कहीं उन सब को मैं दिल की गहराइयों से धन्यवाद देता हूं, क्योंकि उन सब के चलते ही मैं इतना चर्चा में रहा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा को एहसास होना चाहिए कि नाउ आई एम मोर पौपुलर दैन रूपानी.
आंदोलनकारियों और मेनस्ट्रीम पार्टीज का साथ कितना और कहां तक हो सकता है? चुनावी राजनीति की जो मेनस्ट्रीम पौलिटिकल पार्टीज हैं और देश की जो वर्तमान परिस्थितियां हैं, इस के लिए वे जिम्मेदार भी हैं. हम अगर आज भाजपा के सामने खुल कर लड़ पा रहे हैं तो इसीलिए कि ये तमाम राजनीतिक पार्टियां भाजपा की तरह ही भ्रष्ट हैं. इसलिए जिस तरह से हम उस के खिलाफ खुल कर बोल रहे हैं, वे नहीं बोल पाएंगी. लेकिन पूरी तरह से ऐसी पार्टियों से दूरदूर तक कोई नाता न हो, ऐसी पोजिशन ले कर आइडियली तो हम शुद्ध रह सकते हैं लेकिन पौलिटिकली भाजपा के साथ हम नहीं चल सकते.