खामोश थीं निगाहें उन की मैं समझ न सका.
ये प्यार है या फरेब निगाहों से तीर मारे थे हजारों
दिल में इस तरह चुभ कर रह गए सभी के सभी
निकाल न सका कोई उन को. प्यार की घंटी बज चुकी थी
जब हम चौराहे पर मिले थे ग्रीन सिगनल मिलते ही
साथसाथ चल पड़े थे समाज ने रैड सिगनल दे कर
दो दिलों की धड़कनों को रोक दिया था.
मुद्दतों के बाद ऐसे मिले जैसे हम अनजान थे.
उस के दिल में राज किया था मैं ने क्यों न मैं दो कदम
आगे बढ़ कर उस को रोकूं क्यों न मैं बहते हुए
आंसुओं को पोछूं. जोरजबरदस्ती का अंजाम देखा
हम ने चुपके से समाज से दूर हो कर एक आशियाना बनाया
जहां सुकून मिल सके. लेकिन वह भी ज्यादा दिन
ठहर न सका आंधीतूफान में सब खाक हो गया
उन सुर्खियों की ढेर में फिर भी भावनाएं ढूंढ़ती रहती हैं
उस ग्रीन सिगनल को.
– अरुण कटकवार