‘कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पर, एक पल मिलते हैं मिल कर बिछुड़ते हैं, जब मोड़ आए तो बच के निकलते हैं…’ ‘पेज 3’ फिल्म का यह गीत ही नहीं बल्कि पूरी फिल्म ही हमारे समाज के उस भयावह चेहरे को पेश करती है जिस में रिश्तों पर सपनों का जनून कुछ इस कदर हावी हो गया है कि व्यक्ति से ज्यादा ओहदा माने रखने लगा है.
कोई भी रिश्ता जब तक इनसान की खुशी और प्रतिष्ठा के आड़े नहीं आता तब तक तो ठीक चलता है, लेकिन जैसे ही व्यक्ति को इस पर कोई खतरा नजर आता है वह इस खतरे की जड़ को ही मिटा देता है. चाहे खतरे की जड़ मांबाप, भाईबहन, पतिपत्नी ही क्यों न हों. तभी तो सदियों से रिश्तों का खून होता रहा है और होता रहेगा.
आरुषि की हत्या का मामला इस का ताजा उदाहरण है. भाजपा नेता प्रमोद महाजन की उन के भाई द्वारा हत्या सुर्खियां बन चुकी हैं. उत्तर प्रदेश के पूर्व सांसद डीपी यादव की बेटी भारती यादव के प्रेमी नीतिश कटारा की हत्या हो या 2000 में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की मुखिया बीबी जागीर कौर की बेटी हरप्रीत कौर की हत्या हो, इन सभी घटनाओं ने रिश्तों को ही तो शर्मसार किया है.
2007 की एक घटना ने तो भाईबहन के रिश्ते को ही कलंकित कर दिया. मुंबई में भाईबहन की बहस का खूनी अंत तब हुआ जब होटल व्यवसायी ललित डिसूजा ने पार्किंग पर हुए विवाद में अपनी बहन लोरना को गोली मार कर घायल कर दिया. इसी तरह सितंबर, 2007 में मुंबई में ही होटल के मालिक मोहन शेट्टी ने कथित रूप से अपने छोटे भाई मनोहर को उन के वकील के दफ्तर में गोली मार दी. इन दोनों भाइयों के बीच अरसे से संपत्ति का विवाद चल रहा था.
फरवरी, 2008 में दिल्ली के नंदनगरी इलाके में पत्नी की हत्या में उस का पति गिरफ्तार हुआ और मार्च, 2008 में उत्तम नगर में चाचा ने भतीजी से अवैध संबंध बनाए और फिर सुपारी दे कर उस की हत्या करा दी. अप्रैल, 2008 में विकासपुरी (दिल्ली) में भाई ने प्रेमिका के साथ मिल कर अपने ही छोटे भाई की हत्या कर शव को जला दिया.
इस तरह की घटनाएं समाज में क्यों बढ़ती जा रही हैं? यही जानने के लिए इस प्रतिनिधि ने समाज के कुछ खास वर्ग से जुड़े लोगों से बातचीत की.
प्रो. अंशुम गुप्ता दिल्ली विश्व- विद्यालय में मनोविज्ञान विभाग के प्रमुख हैं. वह बताते हैं कि नैतिक मूल्यों के बंधन टूट रहे हैं तो इस की वजह यही है कि इनसान के भीतर जानवरों की सहज प्रवृत्ति होती है और इस के प्रभावी होने पर इनसान भी जानवरों की तरह व्यवहार करने लगता है. नैतिक मूल्यों का ध्यान आते ही आमतौर पर लोग इसे नियंत्रित कर लेते हैं. पर जब बंधन टूट चुके हों तो फिर नियंत्रण की उम्मीद कहां से की जा सकती है.
राममनोहर लोहिया अस्पताल के साइकेट्री डिपार्टमेंट की प्रमुख डा. स्मिता देशपांडे का कहना है, ‘‘भारतीय समाज में मारकाट की घटनाएं आम हो गई हैं. लोगों के अंदर संवेदनशीलता ही नहीं बची है, इसलिए उन की नजर में आदमी की वकत खत्म हो गई है. दरअसल, हर इनसान के अंदर कंस्ट्रक्टिव और डिस्ट्रक्टिव, 2 तरह की प्रवृत्ति होती हैं. इन दोनों तरह की प्रवृत्ति का प्रभाव दिमाग पर घटने या बढ़ने से इनसान की सोच और उस का व्यवहार निर्धारित होता है. पागलपन प्रवृत्ति को नियंत्रित न रख पाने की हालत में व्यक्ति विनाश का काम करता है.’’
समाज अब दिखावे में ज्यादा जी रहा है और हर किसी के दिमाग पर यही सोच हावी है कि ऐसा हो गया तो लोग उस के बारे में क्या सोचेंगे?
विवाह और रिश्तों के विशेषज्ञ डा. खुराना का कहना है, ‘‘हमारे यहां लोग आदर्शों और सिद्धांतों की बातें तो बहुत करते हैं लेकिन फिर भी पारिवारिक शिक्षा न के बराबर है. परिवार में कोई मुसीबत आ जाए तो उस का सामना कैसे किया जाए? या परिवार के लोग आपस में मेलजोल बिठा कर कैसे रहें? ये बातें परिवार में बुजुर्गों के साथ बैठ कर बातचीत के जरिए या फिर काउंसलिंग के द्वारा की जा सकती हैं लेकिन नादान लोग काउंसलिंग का रास्ता छोड़ कर तंत्रमंत्र का रास्ता अपनाते हैं. इस से पीडि़त का मसला तो नहीं सुलझता लेकिन इन पंडेपुजारियों को खूब फायदा होता है.
‘‘सुखी दांपत्य जीवन के सपने दिखा कर धर्म के बिचौलिए दंपती को गृहस्थ जीवन में प्रवेश के साथ ही धर्म की डगर दिखा देते हैं. आम लोगों में यह धारणा घर कर जाती है कि पंडे- पुजारियों, मुल्लाओं द्वारा सुझाए मंत्र और उन की बातें दांपत्य जीवन को सुखी बना देती हैं. लिहाजा, वे उन के यहां दिनरात चक्कर लगाने शुरू कर देते हैं, जबकि उन्हें जरूरत काउंसलिंग की होती है पर वे काउंसलिंग के लिए मनोचिकित्सक के पास जाने से कतराते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वे मनोरोगी नहीं हैं. दूसरे कुछ लोग इस डर से नहीं जाते कि कहीं लोगों को इस बात का पता न चल जाए कि उन के परिवार के बीच आपस में विवाद है.’’
इस बारे में शिवानी का कहना है, ‘‘मेरे ही पड़ोस में रहने वाली शोभा को पंडों पर बहुत विश्वास है. पिछले दिनों शोभा के पति घर कुछ देरी से आते थे. आफिस में काम की वजह से वह कुछ तनाव में भी रहते थे. वह तनाव के चलते ही पत्नी को कभीकभी झिड़क भी देते थे.
पति का बदला व्यवहार देख कर शोभा एक दिन पुजारी के पास पहुंच गई. पुजारी ने पंचांग देख कर बताया कि कुछ ग्रहों की टेढ़ी नजर उस के वैवाहिक जीवन पर पड़ गई है नतीजतन, उस के पति का चक्कर किसी दूसरी औरत से चल रहा है. पुजारी ने उपाय के तौर पर कुछ पूजा बता दी. इस के बाद तो शोभा अपने पति की हर बात को शक की निगाह से देखती, उस की हर गतिविधि पर नकारात्मक सोच रखती.
धीरेधीरे पतिपत्नी के बीच का तनाव बढ़ता गया. छोटीछोटी बातों पर दोनों के बीच कहासुनी होने लगी. इस तरह रिश्ते में आई कटुता फिर कभी सही नहीं हो पाई. इस मामले में होना यह चाहिए था कि शोभा पति से बात करती और स्वयं ही समस्या का हल ढूंढ़ती.
धर्मभीरु शोभा जैसे लोगों को समझना होगा कि जीवन में सुख किसी चमत्कार, आशीर्वाद, कृपा या तंत्रमंत्र से नहीं मिलता बल्कि इस के लिए जीवन की व्यावहारिकता जरूरी है.
सामाजिक कार्यकर्ता शोभा विजेंद्र का कहना है, ‘‘अंधविश्वास व रूढि़यों को बढ़ावा देने में बहुत हद तक मीडिया भी जिम्मेदार है. ऐसे तथाकथित ज्योतिषी, पंडेपुजारियों, तकदीर बांचने वाले ढोंगी लोगों के विज्ञापन आएदिन अखबारों, पत्रपत्रिकाओं व टीवी चैनल पर दिखाई देते रहते हैं जिस में ये लोग नौकरी व्यवसाय में मुनाफा दिलवाने, प्रेमी को पाने व संपत्ति विवाद को हल करने जैसी समस्याओं का हल निकालने का दावा करते हैं.’’
इस तरह के समाचारनुमा विज्ञापन में इन के पूरे पते और फोन नंबर भी लिखे होते हैं.
अपनी समस्याओं से परेशान व्यक्ति जैसे ही इन की तरफ रुख करता है, इन ढोंगी लोगों के वारेन्यारे हो जाते हैं और लोगों का हाल कुछ शोभा की तरह हो जाता है. यह उन के रिश्तों को सही करने के बजाय उस में जहर घोलने का काम करते हैं. अगर मीडिया इन का प्रचार करना बंद कर दे, तो काफी हद तक इस धंधे को फलनेफूलने से रोका जा सकता है.
सिर्फ यही नहीं, टूटते परिवार, अवैध संबंधों कोे बढ़ावा देने में भी मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका है. जिस तरह से टेलीविजन पर सीरियल परोसे जा रहे हैं और फिल्में आ रही हैं उस का प्रभाव आम जनता पर पड़ता है.
एक ही पुरुष के कई औरतों के साथ संबंध और उन्हें बड़ी ही आसानी से छिपा लेने के तरीके जब आम लोग धारावाहिकों में देखते हैं, तो उस का अनुकरण करने लगते हैं पर ऐसा करते हुए वे यह भूल जाते हैं कि धारावाहिक मात्र एक कल्पना पर आधारित होते हैं और असली जिंदगी की सचाई कुछ और ही है. मीडिया समाज में घटी किसी भी घटना को बहुत बढ़ाचढ़ा कर पेश करता है जिस का नकारात्मक प्रभाव समाज के लोगों पर पड़ता है.
इन लोगों से की गई बातचीत के आधार पर जो निष्कर्ष निकला वह यह है कि इस तरह की घटनाएं अपने पीछे एक बड़ा सवाल छोड़ देती हैं कि हत्या करने के बाद हत्यारे को आखिर क्या हासिल होता है?
समाज में होने वाली इन सभी घटनाओें को अंजाम देने के बाद आरोपी का अंजाम प्रमोद महाजन की हत्या करने वाले उन्हीं के भाई प्रवीण महाजन जैसा ही होता. वह आज तक जेल में है.
अगर किसी वजह से हत्या का आरोपी पुलिस से बच भी जाए तो भी उस की इतनी बेइज्जती हो चुकी होती है कि कोई ऐसे को अपने यहां नौकरी तक नहीं देता. उस का सुखचैन तो जाता ही है, पैसे की तंगी झेलता है सो अलग.
इन सब के बावजूद एक हत्यारा पुलिस और कानून से बच सकता है लेकिन क्या वह खुद से बच सकता है?