आज तक दुनिया में जितने भी आविष्कार हुए, नएनए तथ्य सामने आए, वे सब मानवीय तर्कशक्ति और चिंतन के बलबूते पर हुए हैं. लेकिन दुख की बात है कि धर्म तर्कवितर्क एवं चिंतन पर प्रतिबंध लगाता है. सोचिए, यदि आप बच्चों की क्यों और कैसे संबंधी जिज्ञासा की हत्या कर दें तो उन बच्चों का क्या होगा? क्या उन का बौद्धिक विकास हो सकेगा? यह कैसी स्वतंत्रता है कि हम तर्क ही न कर सकें? हम क्यों बिना सोचविचार के किसी चीज पर विश्वास करें. कोरा विश्वास बुद्धि को खा जाता है और वह पशु तुल्य हो जाता है.

स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘‘धर्म यह दावा क्यों करता है कि वह तर्क द्वारा परीक्षित होना नहीं चाहता. तर्क के बिना किसी भी प्रकार का यथार्थ निर्णय नहीं दिया जा सकता. प्रवचनों के आधार पर अंधों की तरह 20 लाख देवताओं में विश्वास करने की अपेक्षा बुद्धि का अनुसरण कर के नास्तिक होना अच्छा है. मनुष्य की गरिमा उस की विचारशीलता के कारण है, पशुओं से हम इसी बात में भिन्न हैं.’’

तर्क पर प्रतिबंध

रामचरित मानस में तुलसीदास लिखते हैं :

‘चरित राम के सगुण भवानी,

तर्कि न जाहिं बुद्धि बल वाणी.’

अर्थात राम के चरित्र के संबंध में बुद्धि और वाणी के बल से तर्क नहीं किया जा सकता.

दूसरे शब्दों में कहें कि बुद्धि को ताक पर रख कर लिखे गए चरित्र को स्वीकार करें.

बात यहीं पर खत्म नहीं होती है. राम के चरित्र पर तर्कवितर्क करना ईश निंदा माना गया है.

‘हरिहर निंदा सुनई जो काना,

होइ  पाप  गोघात  समाना.’

अर्थात भगवान की निंदा जो कानों से सुनता है, उसे गोहत्या के समान पाप लगता है.

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