थिएटर करने व बैरी जौन और अमरीका के रौयल एक्टिंग स्कूल से प्रशिक्षण पाने के बाद भी अविनाश तिवारी को बौलीवुड में काम पाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा. इतना ही नहीं अमिताभ बच्चन के साथ सीरियल ‘‘युद्ध’’ में अभिनय कर शोहरत बटोरने के बाद उनकी फिल्म ‘‘तू है मेरा संडे’’ को बाक्स आफिस पर सफलता नहीं मिली थी, जबकि उनके अभिनय की तारीफें हुई थी. इसके बावजूद संघर्ष जारी है. फिलहाल व एकता कपूर व इम्तियाज अली निर्मित तथा साजिद अली निर्देशित फिल्म ‘‘लैला मजनूं’’ को लेकर उत्साहित हैं.

अपनी पृष्ठभूमि के बारे में बताएं?

हम मूलतः बिहार के गोपालगंज के पास मणी रहमान गांव के रहने वाले हैं. छह सात साल की उम्र में हम मुंबई आ गए थे. पिता आरएएस सर्विस में थे. अब अवकाशप्राप्त कर चुके हैं. हमारी शिक्षा मुंबई में ही हुई थी. हम इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे, इसलिए घर से बाहर निकलने का मौका मिला. पढ़ने लिखने में हम ठीक थे, पर समझ में नहीं आ रहा था कि हमें करना क्या है? पर काफी सोचने के बाद मेरे दिमाग में आया कि हमें अभिनय करना है. अब यह जवाब क्यों आया, यह हमें पता ही नहीं चला. पर मैं आज भी अपने आपको डांटता रहता हूं कि किसने अभिनेता बनने के लिए कहा था. क्योंकि यह क्षेत्र बाहर से जितना चमकदार लगता है, उतना अंदर से नहीं है. इसमें मेहनत बहुत ज्यादा है. संघर्ष बहुत ज्यादा है. यहां काफी तकलीफ उठानी पड़ती है. मेरे परिवार में इस क्षेत्र से कोई जुड़ा हुआ नहीं है. परिवार के सदस्यों को उम्मीद थी कि हम आईएएस बनेंगे. खैर, हम मुंबई के ठाकुर कालेज से इंजीनियरिंग की डिग्री की पढ़ाई कर रहे थे, पर दूसरे वर्ष में छोड़ दिया. मेरी मम्मी आज भी कहती हैं कि घर में जो पेंटर आता है, वह भी बारहवीं पास है. कम से कम डिग्री तो हासिल कर लेते. मैं अपनी तरफ से इसी प्रयास में लगा हुआ हूं कि एक दिन मां की नजरों में लायक बेटा बन जाउं.

आपने अभिनय की कोई ट्रेनिंग हासिल की या..?

मैंने अभिनय करियर की शुरुआत ओम कटारे के साथ थिएटर करते हुए की थी. ‘दिल्ली ऊंचा सुनती है’, ‘चोर चोरी से’ जैसे कुछ नाटकों में अभिनय किया. उसके बाद मैं दिल्ली चला गया. वहां बैरी जान से अभिनय की ट्रेनिंग हासिल की. उनके साथ एक नाटक ‘‘कन्यादान’’ किया. उसके बाद मैं अमरीका की ‘‘न्यूयार्क फिल्म अकादमी’’ चला गया. लगभग सवा साल की ट्रेनिंग रही. ट्रेनिंग लेने के अलावा वहां पर एक नाटक किया. फिर कुछ लघु फिल्में की. यहां पर अब लघु फिल्में बनने लगी हैं, जबकि वहां पर 2005 से बन रही हैं. वहां से लौटते वक्त मैं सोच रहा था कि बौलीवुड में मेरा इंतजार कर रहे होंगे और वह मेरा स्वागत करेंगे. मगर बहुत जल्द सपना टूट गया. काफी संघर्ष करते हुए यहां तक पहुंचा हूं?

भारत में बैरी जान से अभिनय का प्रशिक्षण लेने के बाद अमरीका जाकर प्रशिक्षण लेने की जरुरत क्यों महसूस की और क्या फर्क पाया?

उस वक्त भारत में बैरी जान एकमात्र ऐसे टीचर थे, जो कि अंतरराष्ट्रीय स्तर का अभिनय प्रशिक्षण देते थे और वह भी थिएटर का. मैं कनाडा में रौयल अकादमी आफ ड्रामैटिक जाना चाहता था. इसी की तैयारी के लिए मैं बैरी जान के पास गया था. ‘रौयल अकादमी आफ ड्रामैटिक’ की शर्त होती है कि एक टेस्ट पास करना होगा. उसकी तैयारी करना जरुरी थी. पर बैरी जान ने कहा कि मुझे उनके यहां पूरा कोर्स करना पड़ेगा.

दूसरी बात उन दिनों ‘ग्लेाबलाइजेशन’ की बातें होने लगी थी. तो मुझे लगा कि यहां का टैलेंट वहां जाएगा और वहां का टैलेंट यहां आएगा. इसके अलावा मैंने देखा कि हौलीवुड के स्टूडियो बौलीवुड में आ रहे हैं. इसलिए मैंने अमरीका जाकर प्रशिक्षण लेने का निर्णय लिया. ‘न्यूयार्क फिल्म अकादमी’ फिल्म को लेकर खास कोर्स चलाता है, जहां हमें पहले दिन से ही कैमरा फेस करना होता है. वहां पहुंचते ही मैंने ‘न्यूयार्क फिल्म अकादमी’ के अलावा कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी सहित कईयों के साथ काम करना शुरू किया.

हां! उस वक्त तक हालीवुड में भारतीय कलाकारों को स्टीरियो टाइप यानी कि दुकानदार या चौकीदार के ही किरदार मिलते हैं. मुझे लगा कि मैं इसमें फंसता जा रहा हूं. वैसे भी मुझे हर हाल में भारतीय सिनेमा ही करना था. इसलिए लौट आया. पर मैं अपने आपको परिपक्व बनाने के लिए ट्रेनिंग लेने गया था. मेरी सोच यह है कि यदि मैं दस लोगों के साथ आडीशन के लिए खड़ा हूं, तो कम से कम मैं अपने अंदर आत्मविश्वास से भरा रहूं.

क्या आपको लग रहा था कि हालीवुड के स्टूडियो भारत आ रहे हैं, तो आपके लिए काम मिलना ज्यादा आसान हो जाएगा?

मुझे यह लग रहा था कि बौलीवुड में भी एक सिस्टम आएगा. हमारे यहां सिस्टम का अभाव है. बौलीवुड में कोई स्ट्रक्चर नहीं है. स्टूडियो के आने से स्ट्रक्चर का आना शुरू होगा, तो मैं कुछ समझ सकूंगा. पर अब आप देखिए कि, अभिनय करने का तरीका, अंदाज भी बदलता जा रहा है. अब दिन प्रतिदिन सिनेमा व अभिनय वास्तविक और स्वाभाविक होता जा रहा है. मुझे शुरू से इसी तरह का अभिनय लुभाता रहा है. मुझे लगा था कि मैं जो करना चाहता हूं, वह तब तक नहीं कर पाउंगा, जब तक हौलीवुड में जाकर काम करके नहीं समझूंगा. फिर समय बड़ा बलवान होता है. जब आपका समय आएगा, तभी आप किसी मुकाम पर पहुंच पाएंगे. पर मैं खुद को आने वाले समय के लिए तैयार रखना चाहता था. मेरा मानना रहा है कि तुम हीरा हो, पर चमकोगे तभी, जब रोशनी तुम पर पड़ेगी, तो मैं उसी रोशनी के इंतजार में था. अब ‘‘लैला मजनूं’’ के प्रदर्शन के बाद पता चल जाएगा कि मैं हीरा हूं या नहीं.

पर हौलीवुड के सफल स्टूडियो बौलीवुड में असफल रहे?

इस पर भी मैंने सोचा. मुझे लगता है कि बौलीवुड इंडीवीज्युअल स्तर पर चलती है. यहां पर स्टार सिस्टम हावी है. जब एक इंसान पर इंडस्ट्री चलाने लग जाते हैं, तो समस्या आनी ही है. हौलीवुड में स्टूडियो सिस्टम कंटेट प्रधान है, पर यहां ऐसा नही है. हमारे यहां कहानी की बजाय स्टार को प्राथमिकता देते हैं. दूसरी बात हमारे यहां बड़ी से बड़ी फिल्म सिर्फ चार से पांच हजार स्क्रीन्स में रिलीज होती है. जबकि हालीवुड फिल्में पूरे विश्व में लाख स्क्रीन्स में रिलीज होती हैं. पर अब बौलीवुड में बदलाव आ रहा है. अब हर कलाकार स्टार बन गया है. फिर चाहे वह रियालिटी शो करके आने वाला कलाकार ही क्यों न हो. मुझे लगता है कि अब स्टार भी अपने आप में छोटा होता जा रहा है.

आप अमरीका से प्रशिक्षण लेकर आए तो किस तरह से संघर्ष करना पड़ा?

यहां आने पर पता चला कि मुझे अपना पोर्टफोलियो बनाना पड़ेगा. अमरीका वगैरह में ऐसा नहीं है. वहां आठ बाय दस की एक तस्वीर के साथ अपने बारे में संक्षिप्त जानकारी देनी होती है और उसी आधार पर वह तय करते हैं कि आप फलां किरदार के लिए उपयुक्त हैं या नहीं. जबकि यहां आपकी पोर्टफोलियो की आठ दस तस्वीरें देखकर तय करते हैं. मैंने अपना पोर्टफोलियो बनवाया नहीं था. पहले तो भारत में कास्टिंग डायरेक्टर नहीं होते थे. अब कुछ कास्टिंग डायरेक्टर आ गए हैं. पर हम अभी भी बहुत पीछे चल रहे हैं. लेकिन अब दिख यह रहा है कि बालीवुड में भी कलाकारों के चयन की प्रकिया धीरे धीरे हौलीवुड के ढर्रे पर जा रही है. पहले से काफी बदलाव आया है, पर अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है. यहां जो कास्टिंग का प्रोसेस है, वह भी सही नहीं है. आडीशन के समय कलाकार को एक सीन दे दिया जाता है, पर कलाकार को उस सीन का आगे पीछे कुछ पता ही नहीं होता है. आडीशन के दौरान कलाकार को पता ही नहीं होता है कि निर्देशक को चाहिए क्या? तो यह सारी बहुत समस्याएं हैं. हौलीवुड में मैनेजर व एजेंट सब अलग अलग होते हैं. यहां सारा काम एक ही इंसान करता है. तो बौलीवुड में कमियां बहुत हैं. पर आप जहां रहते हैं, उसी हिसाब से काम करना पडे़गा.

बौलीवुड में काम पाने के लिए किस तरह का संघर्ष करना पड़ा?

अमरीका में मैंने जिन लघु फिल्मों में काम किया था, उनके कुछ दृश्यों को लेकर एक शो रील बनायी थी. मैं शो रील की सीडी लेकर जाता था, जिसे लोग देखना पसंद नहीं करते थे. वह सिर्फ तस्वीर मांगते थे. मैं इस सोच के साथ दौड़ भाग कर रहा था कि एक बार जहां काम मिलेगा, वहां बार बार मिलेगा. काफी चक्कर लगाता था. रिजेक्शन पर रिजेक्शन हो रहे थे. अंदर से तकलीफ भी हो रही थी. पर धीरे धीरे समझ में आया कि सामने वाले का कमेंट आपके उपर निजी स्तर पर नहीं है. बल्कि काम को लेकर है. पर घर चलाने लायक काम मिलता रहा.

बौलीवुड में अभिनय करियर की शुरुआत कहां से हुई?

सबसे पहले लेख टंडन जी के डीडी वन पर प्रसारित सीरियल ‘बिखरी आस निखरी आस’ में काम करने का मौका मिला. उसके बाद लेख टंडन के ही सीरियल ‘एक आंगन के हो गए दो’ किया. इन सीरियलों को करने के बाद मैं मुंबई में घर खरीद सका. कुछ विज्ञापन फिल्में कीं. 2014 में अमिताभ बच्चन के साथ सीरियल ‘युद्ध’ किया था. उसमें मैं एंटी हीरो था. ‘युद्ध’ से मुझे पहचान मिली. जिसके चलते मुझे एक फिल्म ‘‘तू है मेरा संडे’’ मिली. इस फिल्म को बाक्स आफिस पर खास सफलता नहीं मिली. मगर मेरे काम को बहुत सराहा गया. यह फिल्म ठीक से रिलीज नहीं हो पायी थी. उसके बाद मुझे फिल्म ‘‘लैला मजनूं’’ मिली.

आपको फिल्म ‘‘लैला मजनूं’’ कैसे मिली?

मैं 2015 में इम्तियाज अली व साजिद अली से मिला था. उनके कहने पर मैंने आडीशन दिया था और मुझे आश्वासन मिला था कि मेरा चयन हुआ है, पर फिल्म के लिए कोई अनुबंध नहीं हुआ था. पूरे दो साल तक इंतजार करने के बाद फरवरी 2017 में मैं इस फिल्म के लिए अनबंधित किया गया.

अपने मजनूं के किरदार पर रोशनी डालेंगें?

लैला मजनूं की प्रेम कहानी तो सदियों पुरानी है. मगर यह आधुनिक परिवेश की कहानी है. इसमें मजनूं अमीर बाप का बेटा है. जिसका कश्मीर में बहुत बड़ा होटल है. काफी जमीनें हैं. वह अपने पिता के पैसे पर ऐश कर रहा है. उसे किसी की तलाश है, जो कि लैला पर जाकर पूरी होती है. मजनूं ऐसे प्यार को जाहिर करने का प्रयास करता है, जो कि हर तरह के ढांचों से अलग है. वह अपने अंदर व बाहर को जोड़ने का प्रयास करता है. प्रेम कहानी के साथ ही इसमें स्प्रिच्युअल बातें भी हैं.

स्प्रिच्युअल बात क्या है?

लैला मजनूं की प्रचलित कहानियों में एक वर्जन है कि बचपन में जब कैश को कुरान पढ़ायी जाती थी, तो  जब भी ‘ला इलाहा’ आता था, तो उसके मुंह से लैला लैला निकलता था. तो लोगों ने उसे काफिर घोषित कर दिया. जब भटकते हुए मजनूं पागल हो जाता है और पुनः अपनी लैला से मिलता है, तो कहता है-हर पत्ते हर बूते हर जर्रे में एक ही नाम लैला की जगह उसके मुंह से ‘ला इलाहा’ निकलता है. इसी पर हमारी फिल्म का गाना है-‘काफिर काफिर..’. यानी कि अंततः लैला और ला इलाहा एक हो गए थे. पर इसी के साथ फिल्म में मनोरंजन भी है.

मजनूं का किरदार निभाने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ी?

फिल्म ‘‘लैला मजनूं’’ के लिए मैंने काफी मेहनत की. पूरे दो माह तक हमारा वर्कशाप हुआ. इम्तियाज अली ने हमें यह भी सिखाया कि गाने की शूटिंग के दौरान हमें किस तरह अपने होंठ चलाने चाहिए. इसके अलावा इस फिल्म के लिए मैंने महज 17 दिनों के अंदर 12 किलो वजन बढ़ाया. इतना ही नहीं मजनूं संजीदा प्यार में यकीन करता है. उसके लिए प्यार साधारण नहीं बल्कि पैशनेट और किसी की भी कल्पना से परे है. मजनूं की इस संजीदगी को समझने के लिए मुझे काफी होमवर्क करना पड़ा. किरदार की आत्मा में घुसने के लिए जब सभी कलाकार व यूनिट के लोग कश्मीर में होटल में रह रहे थे, तब भी मैं कश्मीर की ठंड में बाहर लकड़ी पर बैठकर समय बिताता था. वहां गांव के लोग मुझे पागल पुकारने लगे थे.

प्यार को लेकर आपकी अपनी क्या सोच है?

मेरे लिए प्यार एक भाव है. प्यार व रिश्ते में काफी फर्क है. रिश्तों का इजहार करने में प्यार एक माध्यम है. मगर हमारे यहां लोग रिश्ते को ही प्यार का नाम दे देते हैं. जबकि प्यार बहुत अलग और पवित्र है. मजनूं तो पा चुका है.

सोशल मीडिया पर कितना व्यस्त रहते हैं?

बहुत कम. अब फिल्म के रिलीज के समय मुझे सोशल मीडिया से जुड़ने का दबाव बना है. अब मैं भी इस तरह की दौड़ का हिस्सा बन गया हूं. मुझे शायरी लिखने का शौक है. बचपन से कविताएं लिखता रहता हूं. पढ़ता बहुत हूं.

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