सुप्रीम कोर्ट चाहे लाख कह ले कि हर वयस्क को प्रेम व विवाह का मौलिक अधिकार है और किसी बजरंगी, किसी खाप, किसी सामाजिक या धार्मिक गुंडे को हक नहीं कि इस अधिकार को छीने, मगर असल में धार्मिक संस्थाएं विवाह के बीच बिचौलिए का हक कभी नहीं छोड़ेंगी. विवाह धर्म की लूट का वह नटबोल्ट है जिस पर धर्म का प्रपंच और पाखंड टिका है और इस में किसी तरह का कंप्रोमाइज कोई भी धर्म नहीं सहेगा, सुप्रीम कोर्ट चाहे जो कहे.

जो भी धर्म के आदेश के खिलाफ जा कर शादी करेगा, सजा सिर्फ उसे ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार और रिश्तेदारों को भी मिलेगी. सब को कह दिया जाएगा कि इस परिवार से कोई संबंध न रखो. कोई पंडित, मुल्ला, पादरी शादीब्याह न कराएगा. श्मशान में जगह नहीं मिलेगी, लोग किराए पर मकान नहीं देंगे, नौकरी नहीं मिलेगी.

धर्म का जगव्यापी असर है. जब लोग 7 समंदर पार रहते हुए भी कुंडली मिलान के बाद विवाह करते हों, गोरों व कालों की कुंडली भी बनवा लेते हों ताकि सिद्ध किया जा सके कि धर्म, रंग और नागरिकता अलग होने के बावजूद विवाह विधिविधान से हुआ है, तो क्या किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट की फुसफुसाहट हिंदुत्व के नगाड़ों के बीच खो जाएगी.

पारंपरिक शादियां चलती हैं, तो इसलिए कि शादी चलाना पतिपत्नी के लिए जरूरी होता है, उन का कुंडली, जाति, गोत्र, सपिंड, धर्म से कोई मतलब नहीं होता. शादी दिलों का व्यावहारिक समझौता है. एकदूसरे पर निर्भरता तो प्राकृतिक जरूरत है ही, सामाजिक सुरक्षा के लिए भी जरूरी है और इस के लिए किसी धर्मगुरु के आदेश की जरूरत नहीं. यदि प्यार हो, इसरार हो, इकरार हो, इज्जत हो तो कोई भी शादी सफल हो जाती है. बच्चे मातापिता पर अपनी निर्भरता जता कर किसी भी बंधन को, शादी को ऐसे गोंद से जोड़ देते हैं कि सुप्रीम कोर्ट, कानून या कुंडली की जरूरत नहीं.

कुंडली, जाति, गोत्र, सपिंड के प्रपंच पंडितों ने जोड़े हैं, ये धर्म की देन हैं, प्राकृतिक या वैज्ञानिक नहीं. शादी ऐसा व्यक्तिगत कृत्य है जो व्यक्ति के जीवन को बदल देता है और धर्म इस अवसर पर मास्टर औफ सेरिमनीज नहीं मास्टर परमिट गिवर बन कर पतिपत्नी को जीवन भर का गुलाम बना लेता है.

शादी में धर्म शामिल है, तो बच्चे होने पर उसे बुलाया जाएगा और तभी उसे धर्म में जोड़ लिया जाएगा ताकि वह मरने तक धर्म के दुकानदारों के सामने इजाजतों के लिए खड़ा रहे.

विधर्मी से विवाह पर धर्म का रोष यही होता है कि एक ग्राहक कम हो गया है. चूंकि दूसरे धर्म का ग्राहक भी कम होता है, दोनों धर्मों के लोग एकत्र हो कर इस तरह के विवाह का विरोध करते हैं. आमतौर पर शांति व सुरक्षा तभी मिलती है जब पति या पत्नी में से एक धर्म परिवर्तन को तैयार हो.

अगर उसी धर्म में गोत्र या सपिंड का अंतर भुला कर शादी हो रही हो तो धर्म के दुकानदारों के लिए दोनों को मार डालने के अलावा कोई चारा नहीं होता. शहरों में तो यह संभव नहीं होता पर गांवों में इसे चलाना आसान है, संभव है और लागू करा जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट चाहे जितना कह ले, जब तक देश में धर्म के दुकानदारों का राज है और आज तो राज ही वे कर रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट का आदेश केवल नरेंद्र मोदी के अच्छे दिन आ चुके हैं, जैसा है.

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