संस्कृत में एक शब्द है-पिष्टपेषण. इस का सरलार्थ है पीसे हुए को पीसना अर्थात व्यर्थ का कोई काम करना. हमारे यहां कई दशकों से यही कुछ हो रहा है और अरबों रुपया पानी में बहाया जा रहा है. मेरी मुराद गंगा शुद्धीकरण के नाम पर हो रही नौटंकी से है. इस वर्ष के बजट में भी गंगा के लिए करोड़ों रुपयों का प्रावधान किया गया है. ‘हर हर गंगे’ या ‘गंगा ने बुलाया है’ के धार्मिक जुमले छोड़ने वाले सभी धर्मध्वजी, धर्म के सभी धंधेबाज और सभी धर्मगर्द सुबहशाम यह दावा करते हैं कि गंगा पवित्र है, गंगा का जल अमृत है, गंगा स्वर्ग से लाई गई नदी है, तभी तो हमारे प्रधानमंत्री तक गंगा की आरती में शामिल हो कर पुण्य अर्जित करने का लोभ संवरण नहीं कर पाते. वर्तमान हिंदू धर्म एक तरह से पौराणिक हिंदू धर्म है, जिस में भागवत पुराण, गरुड़ पुराण जैसे पुराणों को वेदों से भी ज्यादा प्रामाणिक मान कर प्रस्तुत किया जाता है. इन 18 पुराणों में गंगा की जो महिमा गाई गई है, उसी से प्रेरित हो कर लोग जीतेजी भी गंगा में डुबकी लगाने के लिए दौड़ते हैं और मुर्दे की अस्थियां भी उस में डुबो कर या शव को उस में प्रवाहित कर उस के लिए तथाकथित स्वर्ग में सीट बुक कराने का प्रयास करते हैं.

बृहन्नारदीय पुराण में कहा गया है कि गंगा के दर्शन, उस के जल के स्पर्श और उस में स्नान करने वाले की पहले की 7 और उन से भी पहले की 7 अर्थात 14 पीढि़यां तर जाती हैं. गंगा में इतनी शक्ति है कि यदि कोई उस से हजारों मील के अंतर पर रहता हुआ भी उसे याद करता है तो वह परम गति को प्राप्त होता है, क्योंकि गंगा के स्मरण मात्र से पापों के समूह उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे वज्र के आघात से पर्वत. जो गंगा का स्मरण करता है वह सुंदर भवन, आभूषणों से युक्त नारियां, आरोग्य, वित्त और संपत्ति प्राप्त करता है. गंगा का श्रद्धा से स्मरण करने वाला तो कल्याण को प्राप्त होता ही है, उस का अश्रद्धा से स्मरण करने वाला भी स्वर्ग को प्राप्त होता है. गंगा के कीर्तन से ब्रह्महत्या,

गुरुहत्या, गोहत्या आदि पाप करने वाला मनुष्य भी पवित्र एवं पापमुक्त हो जाता है :

सप्तावरान् सप्त परान् पितृन्स्तेभ्यश्च ये परे,

पुमांस्तारयते गंगां वीक्ष्य स्पृष्ट्वावगाह्य च.  2

योजनानां सहस्रेषु गंगां स्मरति यो नर:.  12

अपि दुष्कृतकर्मा हि लभते परमां गतिम्,

स्मरणादेव गंगाया: पापसंघातपंजरम्.    13

भेदं सहस्रधा याति गिरिर्वज्रहतो यथा.   14

भवनानि विचित्राणि विचित्राभरणास्त्रिय:,  17

आरोग्यं वित्तसम्पत्तिर्गंगास्मरणजं फलम्. 18

अश्रद्धया तु गंगाया यस्तु नामानुकीर्तनम्,   22

करोति पुण्यवाहिन्या: सोऽपि

स्वर्गस्य भाजनम्.                     23

गंगाया: कीर्तनेनैव शुभां गतिमवाप्नुयात्,

ब्रह्महा गुरुहा गोघ्न: स्पृष्टो वा सर्वपातकै:. 24

(बृहन्नारदीयपुराण, गंगामाहात्म्य, अ. 5)

यह लिस्ट बहुत लंबी है. पुराणों के पूरे के पूरे अध्याय इसी तरह गंगा की महिमा गाते हैं. बृहन्नारदीय पुराण कहता है कि सब तीर्थों की खाक छानने, सभी तरह के यज्ञ करने और विभिन्न मंदिरों के दर्शन करने पर जो पुण्य प्राप्त होता है, वह अकेले गंगास्नान से मनुष्य को प्राप्त हो जाता है, इस में संदेह नहीं :

सर्वतीर्थेषु यत्पुण्यं सर्वेष्टायतनेषु च,

तत्फलं लभते मर्त्यो गंगास्नानान्न संशय:.

(बृहन्नारदीय पुराण, गंगामाहात्म्य,

अ. 5, श्लोक 34)

स्कंदपुराण (केदारखंड) में गंगा के एक हजार नामों वाला स्तोत्र दिया गया है. उस के अंत में लिखा है कि जो इस स्तोत्र को प्रतिदिन पढ़ता है, वह पापों से मुक्त हो जाता है, उसे जल्दी ही भगीरथ के समान पुत्र प्राप्त होता है, विद्यार्थी को इस के पाठ से विद्या की प्राप्ति होती है और वह बृहस्पति के समान ज्ञानी हो जाता है:

नाम्नां सहस्रमाख्यानं गंगाया: सर्वकामदम्,

यस्तु वै पठते नित्यं मुक्तिभागी भवेन्नर:.

158

पुत्रार्थी लभते पुत्रं भगीरथसमं द्रुतम्,

विद्यार्थी लभते विद्यां वाचस्पतिसमो भवेत्.              

159

(स्कंदपुराण, गंगावतरण, अ. 2)

ब्रह्मवैवर्तपुराण कहता है कि गंगा के पानी की एक बूंद से भी यदि आदमी छू जाए तो उस के करोड़ों जन्मों के ब्रह्महत्या जैसे पाप भी तत्काल नष्ट हो जाते हैं :

यत्तोयकणिका स्पर्श: पापिनां च पितामह,

ब्रह्महत्यादिकं पापं कोटिजन्मार्जितं दहेत्.

(ब्रह्मवैवर्तपुराण, गंगास्तोत्र,

अ. 3, श्लो. 21)

बृहन्नारदीय पुराण गंगा के पवित्र व शुद्ध जल की महिमा गाते हुए कहता है कि जो व्यक्ति गंगा के पावन जल में स्नान करता है, वह इतना शुद्ध हो जाता है जितना सैकड़ों यज्ञों को करने से भी शुद्ध नहीं हो सकता :

स्नातानां शुचिभिस्तोयै: गांगेयै: प्रयतात्मनाम्

व्युष्टिर्भवति या पुंसां न सा क्रतुशतैरपि,

(बृहन्ना. गंगा. अ. 5, श्लो. 28)

आदिशंकर ने अपने गंगास्तोत्र में लिखा है कि जो व्यक्ति गंगा के निर्मल जल का पान करता है, उसे यमराज देख नहीं पाता अर्थात वह यमलोक में न जा कर बैकुंठ में वास करता है :

तव जलममलां येन निपीतं

परमपदं खुल तेन गृहीतम्,

मातर्गंगे त्वयि यो भक्त:

किल तं द्रष्टुं न यम: शक्त:.

(गंगास्तोत्र, पद्य 4)

वाल्मीकिकृत गंगाष्टकस्तोत्र के अंत में कहा गया है कि जो इस का पाठ करता है उस के कलियुग के सब पाप धुल जाते हैं, वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है और उसे संसार में बारबार जन्म नहीं लेना पड़ता :

गंगाष्टकं पठति य: प्रयत: प्रभाते

वाल्मीकिना विरचितं शुभदं मनुष्य:,

प्रक्षाल्य सोऽत्र कलिकल्मषपंकमाशु

मोक्षं लभेत्पतति नैव पुनर्भवाब्धौ.

(गंगाष्टकस्तोत्र, पद्य 9)

विभिन्न पुराणों और धर्माचार्यों के ये वचन गंगा के पानी को पवित्र, सशक्त और सब तरह के पापों, प्रदूषणों का नाशक बताते हैं. सभी हिंदू इन की सत्यता में विश्वास करते हैं, इसी आस्था के कारण वे गंगाजल को परमपवित्र मानते हैं, यहां तक कि मरणासन्न व्यक्ति के मुंह में इस की दो बूंद डाल कर यह सम झते हैं कि मृतक पापमुक्त हो कर सद्गति को प्राप्त होगा. ऐसे में जो लोग यह कोलाहल मचाते हैं कि गंगा मैली हो गई है, गंगा का पानी पीने से आदमी बीमार हो सकता है और इस में नहाने से व्यक्ति कैंसर रोग का शिकार हो सकता है, क्या वे हिंदूधर्म की खिल्ली नहीं उड़ा रहे? क्या वे आस्था को ठेस नहीं पहुंचा रहे? जो सरकारें गंगा शुद्धिकरण अभियान के नाम पर करदाताओं का पैसा पानी में निर्ममतापूर्वक बहा रही हैं, क्या वे हिंदू आस्था का मजाक नहीं उड़ा रहीं? क्या वे गंगाआरती को ढोंग नहीं बताना चाह रही हैं? या तो गंगा आम नदी की तरह है, उस में कुछ भी अलौकिक, आध्यात्मिक एवं दिव्य नहीं और पुराणों की बातेंकोरी गप हैं, पंडों द्वारा फैलाया गया मकड़जाल मात्र हैं या फिर वह अलौकिक, आध्यात्मिकतासंपन्न और दिव्य सुरनदी है तथा पुराणों की बातें प्रामाणिक एवं पत्थर पर लकीर हैं. दोनों बातें एकसमान सत्य नहीं हो सकतीं यानी या तो सरकार का शुद्धीकरण अभियान पाखंड है या फिर पुराणों के वचन मिथ्या हैं.

जो सरकारें, मंत्रिगण (प्रधानमंत्री सहित), गंगा को पवित्र व पुनीत रटे जा रहे हैं, वे किस मुंह से उस की शुद्धि की बात कर सकते हैं? जब गंगा स्वयंशुद्ध है, जब वह पापों व प्रदूषणों का विनाश करती है तब उस की शुद्धि की बात करना क्या आत्मविरोधी कथन नहीं? आप दूसरों को शुद्ध करने वाली गंगा को शुद्ध कैसे कर सकते हैं? यदि वह शुद्ध किए जाने के योग्य है तो स्पष्ट है कि उस की अपनी शुद्धता के दावे  झूठे हैं, फिर प्रधानमंत्री के गंगाआरती के आडंबर में शामिल होने का क्या औचित्य रह जाता है? फिर पुराणों के कथनों को प्रामाणिक मानने में क्या तुक है?

आप दोनों हाथों में लड्डू नहीं पकड़ सकते. दो नावों पर सवार होने वाला गंगा में गिर कर जहां से उठ जाएगा. यदि गंगा पतितपावनी है तो उन लोगों के विरुद्ध हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के अपराध में एफआईआर दर्ज होनी चाहिए और अदालत में उन पर मुकदमा चला कर उन्हें दंडित करना चाहिए, जो उसे मैली व प्रदूषित कह कर अपमानित कर रहे हैं और उसे शुद्ध करने के नाम पर न केवल हिंदू आस्थाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं, बल्कि करदाताओं के पैसे का दुरुपयोग भी कर रहे हैं. यदि वास्तव में गंगा मैली हो चुकी है और वह एक आम नदी की तरह विषाक्त हो चुकी है तो स्पष्ट है कि पुराणों की बातें निराधार और समाज में अंधविश्वास फैलाती हैं. ऐसे में उन के संविधान की धारा 51(ए) के विरुद्ध जाने के कारण उन पुराणों को प्रतिबंधित कर देना चाहिए. तब उन मंत्रियों और प्रधानमंत्री को भी देश को यह बताने का कष्ट करना पड़ेगा कि वे गंगाआरती जैसे आडंबरों में शामिल हो कर उस संविधान के विरुद्ध आचरण क्यों करते हैं जिस के प्रति प्रतिबद्ध रहने की वे शपथ ले कर मंत्री व प्रधानमंत्री बने हैं.

कोई कह सकता है कि प्राचीनकाल में गंगा में गंदे पानी के नाले नहीं गिरते थे, सो तब वह पवित्र थी, हमें आज भी पहले वाली स्थिति पैदा कर के गंगा की महानता को फिर से प्रतिष्ठित करना है.ऐसी बातें वही कह सकता है जो या तो इतना मूढ़ हो कि उसे हिंदू संस्कृति का क ख ग भी न पता हो या फिर वह इतना धूर्त हो कि सबकुछ जानते हुए भी अनजान बनने का ढोंग कर रहा हो. प्राचीनकाल में यदि गंगा में गंदे पानी के नाले नहीं गिरते थे तो अन्य नदियों में भी नहीं गिरते थे. वे सब भी गंगा के समान ही साफ थीं. फिर उन्हें उस तरह महिमामंडित क्यों नहीं किया गया जिस तरह गंगा को किया गया? वस्तुत: हिंदुओं का तो यह घोषित मंतव्य रहा है कि गंगा में चाहे कितनी ही गंदगी क्यों न आ कर पड़े, वह कभी गंदी होती ही नहीं, उलटे वह गंदगी को भी पवित्र बना देती है.

तुलसीदास ने कहा है कि जैसे सारी गंदगी को सूर्य नष्ट कर देता है, पर खुद गंदा नहीं होता, जैसे आग में फेंकी गई सारी गंदगी जल कर नष्ट हो जाती है, पर आग खुद गंदी नहीं होती, उसी प्रकार गंगा में फेंकी हुई सारी गंदगी नष्ट हो जाती है, लेकिन उस से गंगा कभी गंदी या मैली नहीं होती, क्योंकि जिन में सामर्थ्य होता है, उन पर गंदगी आदि का कोई दोष प्रभावकारी नहीं होता. स्पष्ट है, हिंदू आस्था और संस्कृति के अनुसार गंगा गंदे नालों एवं अन्य प्रकार के गंदे पदार्थों के संपर्क में आ कर भी दूषित नहीं होती. सो, प्राचीनकाल वाली स्थिति पैदा करने का तर्क बेतुका है. अब जब तुलसी की रामायण यह घोषित करती है कि गंगा उसी तरह गंदगी को नष्ट कर देती है जिस तरह सूर्य एवं अग्नि करते हैं, तब यह कैसे मान लिया जाए कि वर्तमान में वह गंदगी से गंदी हो चुकी है?

ऐसे में तो गंगा शुद्धीकरण का अभियान और भी ज्यादा शिद्दत से एक ढकोसला प्रतीत होता है. इसलिए इस के नाम पर करदाताओं के धन को पानी में बहाना सख्ती से बंद होना चाहिए और कभी पलीद न होने वाली पवित्र गंगा को ‘गंदी’, ‘दूषित’, ‘मैली’, ‘विषैली’ आदि कहने वाले तत्त्वों के खिलाफ हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को दुर्भावनापूर्वक आहत करने का मामला दर्ज होना चाहिए. वे तत्त्व चाहे सरकारी हों, अर्धसरकारी या गैरसरकारी स्वयंसेवी संगठन. यदि वैज्ञानिक परीक्षण वास्तव में यह सिद्ध कर रहे हैं कि गंगा गंदी है, मैली है तो आस्था को तिलांजलि दे कर अक्ल का रास्ता अपनाओ और पुराणों व धर्माचार्यों के गंगा के बारे में व्यक्त किए गए अतिशयोक्तिपूर्ण उद्गारों को एकदम रद्द करो, गंगा की  झूठी महिमा गाना व उस की आरती उतारने का आडंबर करना बंद करो एवं गंगा के नाम पर चलाए जा रहे धर्म व परलोक के धंधे को प्रतिबंधित करो. तभी हम इस प्रवहमान जलराशि की भलीभांति रक्षा कर सकने की मानसिकता अपना सकेंगे. अन्यथा यह नदी भी उसी तरह धर्म की बलि चढ़ती रहेगी जैसे हम श्रीकृष्ण के नाम के साथ यमुना को जोड़ कर, उस की बलि दिए जा रहे हैं.

यह खेद का विषय है कि श्रद्धा की पात्र बनाई गई नदियों को श्रद्धांधता व इस कुतर्क से सैप्टिक टैंक बनाया जा रहा है कि नदी में नाली का पानी मिल कर नदी ही बन जाया करता है. गंगा में गिरा नाली का गंदा पानी गंगाजल ही बन जाया करता है. जब किसी नदी को धर्म से जोड़ दिया जाता है तब कहा जाता है कि यह दिव्य है, यह पवित्र है, यह सारी गंदगी को वैसे ही आत्मसात कर लेती है जैसे शिव ने पौराणिक कथा में विष का पान कर लिया था, जबकि वास्तविकता यह है कि कोई भी नदी उपयोगी होने के बावजूद न दिव्य होती है न अलौकिक. वह एचटूओ (॥२हृ) के फार्मूले से बने सामान्य पानी की अचेतन व प्रवहमान विशाल राशि मात्र होती है, जिस का दिव्यता/अदिव्यता जैसे मानवीय संकल्पों से कोई संबंध नहीं होता. नदियों को धर्म के व्यापार का जलमार्ग बनाने की अनुमति दे कर प्रदूषण से नहीं बचाया जा सकता. उन्हें इहलौकिक चीज ही बनी रहने दो, सामान्य प्रवहमान विशाल जलराशियां मात्र, जो सूखती भी हैं, प्रदूषित भी होती हैं और बाढ़ग्रस्त हो कर जानमाल को हानि भी पहुंचाती हैं. इन के साथ तदनुसार ही व्यवहार अपेक्षित है. ये कल्पित स्वर्ग का साधन नहीं बन सकतीं, क्योंकि बाढ़ के दिनों यही (नदियां) उस (स्वर्ग) के कल्पित कू्रर भाई नरक का नजारा पेश किया करती हैं.  मानो तथाकथित माताएं आदमखोर डायनें बन जाया करती हैं. सो, नदी को नदी ही रहने दो और अपनी मानसिक वयस्कता का परिचय दो.

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